क्रांति १८५७
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यह वेबसाईट इस महान राष्ट्र को सादर समर्पित।

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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

राष्ट्रीय आन्दोलन (1858 से 1909 ई. तक )

1. उन्नीसवीं शताब्दी में राजनीतिक चेतना का विकास
केशवचन्द्र का भारतीय ब्रह्म समाज
साधारण ब्रह्म समाज
प्रार्थना समाज
आर्य समाज
थियोसोफिकल सोसायटी
रामकृष्ण मिशन

2. भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के कारण

3. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना
ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन (1851)
इण्डिया लीग (1875)
इण्डियन एसोसियेशन (1876)
बाम्बे प्रेसीडेन्सी एसोसियेशन
पूना सार्वजनिक सभा (1867)
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885)

4. उदारवादी राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1905 ई.)
उदारवादियों की माँगे
उदारवादियों की कार्य प्रणाली
उदारवाद के सिद्धान्त का विचार
उदारवादियों की दुर्बलताएँ अथवा त्रुटियाँ
उदारवादियों की सफलताएँ या देन

5. उदारवादी राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख नेता
दादाभाई नौरोजी (1825-1917 ई.)
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (1848-1925)
गोपालकृष्ण गोखले (1866-1915 ई.)
पं. मदमोहन मालवीय (1561-1946)
बदरूद्दीन तैयब जी (1844-1906)

6. उग्रवादी राष्ट्रीय आन्दोलन
उग्रवादी आन्दोलन के उदय के कारण
लार्ड कर्जन के शासनकाल में भारत विरोधी कार्य
उग्रवादियों तथा उदारवादियों की तुलना
उग्रवादी आन्दोलन की प्रगति
उग्रवादी आन्दोलन का मूल्यांकन

7. उग्रवादी राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता
बाल गंगाधर तिलक
लाला लाजपतराय
विपिनचन्द्र पाल
अरविन्द घोष

8. क्रांतिकारी आन्दोलन

9. भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उदय
अंग्रेजो की फूट डालो और राज्य करो की नीति के विभिन्न चरण
1857 का विद्रोह एवं भारतीय मुसलमान
1870 के पश्चात् ब्रिटिश नीति में परिवर्तन
सर सैय्यद अहमद खाँ का अलीगढ़ आन्दोलन
मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियण्टल डिफेंस ऐसोसियेशन
बंगाल का विभाजन (16 अक्टूबर, 1905)
शिमला शिष्टमण्डल और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग
मुस्लिम लीग की स्थापना (1906 ई.)


1. उन्नीसवीं शताब्दी में राजनीतिक चेतना का विकास
19वीं सदी में धार्मिक तथा सामाजिक सुधार आन्दोलनों से भारतीय राष्ट्रीयता के विकास का एक नया युग प्रारम्भ होता है। इस समय समाज को सती प्रथा, जाति प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, मूर्तिपूजा, छुआछूत एवं बहुदेववाद आदि बुराइयों ने दूषित कर रखा था, जबकि विभिन्न आडम्बरों के कारण धर्म भी संकीर्ण होता जा रहा था। इस समय ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे प्रचार कार्य के कारण लोगों का ध्यान ईशाई धर्म की तरफ आकृष्ट हो रहा था तथा वे हिन्दू धर्म के प्रति उदासीन होते जा रहे थे। इस समय देश में पुनर्जागरण हुआ तथा विभिन्न सुधारकों ने देश की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति में अनेक सुधार किए, जिसके कारण आधुनिक भारत के निर्माण को प्रोत्साहन मिला।

विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन

केशवचन्द्र का भारतीय ब्रह्म समाज
केशचन्द्र सेन 1857 ई. में ब्रह्म समाज के सदस्य बने। उन पर पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का बहुत प्रभाव था, अतः उनका देवेन्द्रनाथ ठाकुर से मतभेद हो गया तथा 1866 ई. में उन्होंने भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना की।

सेन के धार्मिक विचार
केशवचन्द्र सेन पर पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति तथा ईसाई धर्म का बहुत प्रभाव था। अतः उनके नेतृत्व में भारतीय ब्रह्म समाज का हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति से नाता टूट गया। इस समाज के सदस्य ईसा मसीह को अपना ईश्वर मानकर पूजने लगे। इसके अलावा वे ईसाई ग्रन्थों तथा बाइबल का भी अध्ययन करने लगे। सेन विश्व धर्म की स्थापना के इच्छुक थे, अतः उन्हों सभी धर्मो की उपासना आरम्भ कर दी। इस समाज की प्रार्थनाओं में हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, चीनी, यहूदी आदि सभी धर्मो की प्रार्थानाएँ सम्मिलित थीं। इसके सदस्य सड़कों पर सामूहिक कीर्तन करते हुए चलते थे।

सामाजिक सुधार
केशचन्द्र सेन एक महान् सामाजिक सुधारक थे। उन्होंने बाल विवाह, बहु विवाह, पर्दा प्रथा, जाति प्रथा आदि बुराइयों का विरोध करते हुए स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह पर बल दिया। उनके प्रयासों से सरकार ने 1872 में एक कानून बनाकर अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता प्रदान कर दी तथा विवाह हेतु लड़कों के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष तथा लड़कियों हेतु 14 वर्ष निर्धारित कर दी। उन्होंने स्त्रियों व मजदूरों की दशा में सुधार हेतु 1870 ई. में भारतीय सुधार संघ की स्थापना की। अपने विचारों के प्रसाह हेतु सेन ने सुलभ समाचार नामक समाचार पत्र का प्रकाशन किया।

भारतीय ब्रह्म समाज ने सेन के नेतृत्व में काफी विकास किया। 1866 ई. मं इसकी बंगाल में 50, उत्तर प्रदेश में 2 एवं पंजाब व मद्रास में एक-एक शाखा स्थापित हो चुकी थी। इस समाज के सिद्धान्तों के प्रसार हेतु विभिन्न भाषाओं में 37 पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थी। 1878 ई. में उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह कूच बिहार के राजकुमार से कर दिया। विवाह के समय वर-वधू दोनों नाबालिग थे अर्थात् 18 व 14 वर्ष की आयु से कम थे। सेन के विरोधियों ने इस विवाह की आलोचना करते हुए अपना अलग समाज साधारण ब्रह्म समाज स्थापित कर लिया। इस पर सेन ने भी एक नवीन समाज विधान समाज का गठन किया, जिसका ईसाई धर्म की तरफ बहुत अधिक झुकाव था।

साधारण ब्रह्म समाज
आनन्द मोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री, विजय कृष्ण गोस्वामी आदि ने केशवचन्द्र सेन से मतभेद होने पर साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की। इसने समाज एवं धर्म में महत्त्वपूर्ण सुधार किए। इसके प्रयासों से कलकत्ता में एक स्कूल की स्थापना की गई, जो आगे चलकर सिटी कॉलेज ओफ कलकत्ता के नाम से विख्यात हुआ। इस समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए तत्त्व कौमुदी नामक बांगला एवं ब्रह्म पब्लिक ओपिनियन नामक अंग्रेजी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे। इसने 1884 ई. में संजीवीनी नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया तथा 1880 ई. में ब्रह्म बालिका नामक स्कूल की स्थापना की।

यद्यपि आज ब्रह्म समाज लगभग लुप्त हो चुका है, किन्तु फिर भी धर्म तथा समाज सुधार के क्षेत्र में इसका योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता। इसने प्रेस की स्वतन्त्रता पर बल देकर भारतीयों में राष्ट्रीयता की एक नई बावना जाग्रत की।

प्रार्थना समाज
इसकी स्थापना 1867 ई. में डॉ. आत्माराम पाण्डुरंग ने महाराष्ट्र में की थी। यह समाज एवं धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। कालान्तर में आर.जी. भण्डाकर तथा महादेव रानाडे भी इस समाज से जुड गए। इस समाज ने जाति प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि बुराईयों का विरोध किया तथा एकेश्वारवाद, स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, निराकार उपासना आदि पर बल दिया। इसके प्रयासों से महाराष्ट्र में अनेक अनाथालयों, विधाश्रमों एवं रात्रि पाठशालाओं की स्थापना हुई।

आर्य समाज
19वीं सदी के सुधारवादी आन्दोलनों में आर्य समाज अपना प्रमुख स्थान रखता है। इसकी स्थापना 10 अप्रेल, 1875 ई को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बम्बई में की थी। वह वैदिक धर्म पर आधारित था। स्वामी दयानन्द के अवतीर्ण होने से पूर्व हिन्तुत्व जर्जर हो चुका था एवं उसमें अनेक आडम्बरों, कर्मकाण्डों एवं रूढ़ियों ने प्रवेश कर लिया था। ईसाई और इस्लाम धर्म प्रचारक हिन्दू धर्म का खुला उपहास उड़ा रहे थे एवं अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। केशवचन्द्र सेन के ब्रह्म समाज का झुकाव भी ईसाई धर्म की तरफ था।

इन परिस्थितियों में दयानन्द ने हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर करते हुए हिन्दुओं का ध्यान उनके धर्म के मूल स्वरूप की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम् संस्कृति है। उनकी धारणा थी कि हिन्दू धर्म ही सच्चा धर्म है तथा वेद ज्ञान के भण्डार है। स्वामी दयानन्द का मानन था कि यदि वैदिक धर्म की बुराइयों को दूर कर उसे पुनः प्रतिष्ठित किया जाए, तो भारत पुनः विश्व का गुरू बनने में सक्षम है। इस प्रकार जहाँ राजा राममोहन राय का झुकाव ईसाई धर्म की तरफ था, वहीं स्वामी दयानन्द का झुकाव हिन्दू धर्म की तरफ था। उन्होंने हिन्दू धर्म में एक नए प्राण फूंक दिए। रोमा रोलां के शब्दों में, दयानन्द इलियड् अथवा गीता के प्रमुख वाचक के समान थे, जिसने हरक्युलिस की शक्ति के साथ हिन्दू अन्धविश्वासों पर प्रबल प्रहार किया। वस्तुतः शंकराचार्य के बाद इतनी महान् बुद्धि का सन्त दूसरा नहीं जन्मा। रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, स्वामी दयानन्द सरस्वती आधुनिक भारत के एक महान् पथ-दर्शक थे।

स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883 ई.)
स्वामी दयानन्द सरस्वती जन्म 1824 ई. में गुजरात के भैरवी क्षेत्र में निकट टंकरा नामक गाँव में एक धनी तथा रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। उनके पिता का नाम अम्बाशंकर था। 14 वर्ष की आयु में एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर अपने पिता के साथ शिव के मन्दिर में गए वहाँ उन्होंने एक चूहे को शिवलिंग पर चढ़कर प्रसाद खाते हुए देखा। यह देखकर मूर्तिपूजा पर से उनका विश्वास उठ गया। जब उनके पिता 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह करने लगे, तो वह घर छोड़कर भाग गए। इसके बाद वे 15 वर्ष तक सम्पूर्ण देश में घूमते रहे। 1860 ई. में उन्होंने मथुरा आकर स्वामी विरजानन्द को अपना गुरू बनाया तथा वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद अपने गुरू के आदेश के अनुरूप इन्होंने आजीवन वैदिक धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने एवं वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न किया।

जहाँ राजा राममोहन राय पर पाश्चात्य संस्कृति एवं अंग्रेजी भाषा का प्रभाव था, वहीं स्वामी दयानन्द सरस्वती हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति से बहुत प्रभावित थे। उनका उद्देश्य हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करते हुए एक बार पुनः उसकी श्रेष्ठता स्थापित करना था। उन्होंने मूर्तिपूजा का डटकर विरोध किया। वेदों में आस्था हो े के कारण उन्होंने वेदों की तरफ लौटो का नारा दिया। उन्होंने सम्पूर्ण देश का भ्रमण कर हिन्दू धर्म का प्रचार किया तथा विभिन्न विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती संस्कृत के महान विद्वान थे। 1822 ई. में उन्होंने ब्रह्म समाज के साथ मिलकर कार्य करने का प्रयत्न किया, किन्तु प्रयत्न विफल रहा, क्योंकि ब्रह्म समाज के सदस्यों का वेदों की प्रामाणिकता तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त में कोई विश्वास नहीं था एवं उनका झुकाव पाश्चात्य संस्कृति तथा ईसाई धर्म की तरफ था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर ंसस्कृत भाषा के स्थान हिन्दी भाषा में अपने विचारों का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। स्वामीजी ने 10 अप्रेल, 1875 ई. को बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। यहाँ से दिल्ली गए, जहाँ सत्य की खोज हेतु हिन्दू, ईसाई एवं मुस्लिम धर्म प्रचारकों का सम्मेल बुलाया गया था। इस सम्मेलन में दो दिन तक वाद-विवाद होता रहा, किन्तु सम्मेलन किसी निर्णय पर न पहुँच सका। स्वामी जी ने इसके बाद पंजाब में जाकर अपने विचारों का प्रचार किया। इसके परिणामस्वरूप पंजाब में स्थान-स्थान पर आर्य समाज की शाखाएँ स्थापित हुए। इसके बाद वे ग्वालियर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि स्थानों पर आर्य समाज का प्रसार किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तीन ग्रन्थों की रचना की
1. प्रथम ग्रन्थ ऋग्वेदादि भाष्य में उन्होंने वेदों के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किए।
2. द्वितीय ग्रन्थ में वेद भाष्य में उन्होंने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के सम्बन्ध में टीका लिखी।
3. स्वामी दयानन्द का तीसरा ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश था, जो बहुत अधिक प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में उन्होंने सभी धर्मों के दोषों पर प्रकाश डालते हुए यह प्रामाणित करने का प्रयत्न किया है कि वैदिक धर्म ही सभी धर्मों श्रेष्ठ है। इसमें उन्होंने इस्लाम तथा ईसाई धर्म के आडम्बरों तथा कर्मकाण्डों की भी खुलकर आलोचना की है। इससे हिन्दू इन धर्मों के दोषों से परिचित हुए तथा वे समझ गए कि ये धर्म हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ नहीं है। इससे हिन्दुओ का विश्साव इन धर्मों से उठने लगा तथा पुनः हिन्दू धर्म की तरफ आकर्षित होने लगा। उन्होंने ईसाई एवं इस्लाम धर्म की श्रेष्ठता पर पानी फेर दिया। यह उनकी महान् देन थी। डॉ. ताराचन्द ने लिखा है कि, दयानन्द को आपत्ति तो इस बात पर थी कि इस्लामी और ईसाई तत्त्व हिन्दू धर्म पर आक्रमण करने से बाज नहीं आ रहे थे और इसलिए अपने धर्म के बचाव में उन्होंने प्रत्याक्रमण के शस्त्र का सहारा लिया, ताकि हिन्दू धर्म पर हमले के बजाय उन्हें अपनी स्थिति बचाने की फिक्र हो। एम.ए. चमूपति ने लिखा है कि, मुल्लाओं और पादरियों ने पहली बार यह अनुभव किया कि अनेक विश्वास की बिना किसी संकोच के आलोचना हो सकती है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती का अन्तिम समय राजस्थान में व्यतीत हुआ। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर यहाँ के अनेक राजा तथा सामन्त उनके भक्त बन गए। उनके राजनीतिक विचार बड़े उँचे थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि, विदेशी राज्य से स्वराज्य हर प्रकार से अच्छा है। स्वामी जी ने जोधपुर के व्यसनी नरेश महाराज जसवन्तसिंह को खूब लताड़ा था, अतः महाराज की कृपापात्र नन्हीं जान ने स्वामी जी के भोजन में विष मिला दिया, जिसके कारण 30 अक्टूबर 1883 ई. को स्वामी जी की अजमेर में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में मादाम ब्लोवाट्स्की ने लिखा था कि, यह बिल्कुल सही बात है कि शंकराचार्य के बाद भारत में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ, जो स्वामी जी से बडा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे अधिक तेजस्वी वक्ता तथा कुरीतियों पर टूट पडने में उनसे अधिक निर्भीक रहा हो। दी थियोसोफिस्ट ने स्वामी जी की मृत्यु के बाद प्रशंसा में लिखा था कि, उन्होंने जर्जर हिन्तुद्व के गतिहीन जन-समूह पर भारी बम प्रहार किया और अपने भाषणों से लोगों के हृदय में आग लगा दी। सारे भारत वर्ष में उनके समान हिन्दी और संस्कृत का वक्ता दूसरा कोई नहीं था। पाल रिचार्ड ने लिखा है कि, स्वामी दयानन्द निःसन्देह एक ऋषि थे। उनका प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त करने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। मैक्समूलर ने लिखा है कि, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू धर्म के सुधार का बड़ा कार्य किया। जहां तक समाज सुधार का सम्बन्ध है, वे बड़े उदार हृदय थे। वे अपने विचारों को वेदों पर आधारित और उन्हें ऋषियों के ज्ञान पर अवलम्बित मानते थे।

इन्होंने वेदों पर बड़े-बड़े भाष्य किए, जिससे मालूम होता है कि वे पूर्ण विद्वान थे। उनका स्वाध्याय बड़ा व्यापक था। रोमा रोला ने लिखा है कि, ऋषि दयानन्द उच्चतम् व्यक्तित्व के पुरूष थे। दयानन्द ने अपह्व व अछूतपन के अन्याय को सहन न किया और उससे अधिक उनके अपह्यत अधिकारों का उत्साही समर्थक दूसरा कोई न हुआ। भारत में स्त्रियों की शोचनीय दशा को सुधारने में भी दयानन्द ने बड़ी उदारता व साहस से काम लिया। वास्तव में राष्ट्रीय भावन और जाग्रति के विचार को क्रियात्मक रूप देने से सबसे अधिक प्रबल शक्ति उन्हीं की थी। वह नव-निर्माण और राष्ट्रीय संगठन की जो मशाल जलाई थी, उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कर रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसा, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान। हिन्दू पुनर्जागरण अब पूरे प्रकाश में आ गया था और उनके समझदार लोग यह अनुभव करने लगे कि सच ही पौराणिक धर्म में कोई सार नहीं है। एर्मसन ने लिखा है, यह स्वीकार महत्त्वपूर्ण है। उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तों ने एक बार तो हीनभाव ग्रस्त इस जाति को अपूर्व उत्साह से भर दिया। श्री ए. ओ. ह्यूम ने लिखा है, स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों के विषय में कोई मनुष्य कैसी ही सम्मति स्थिर कर ले, परन्तु वह सबको मान लेना पड़ेगा कि स्वामी दयानन्द अपने देश के लिए गौरव रूप थे। दयानन्द को खोकर भारत को महान् हानि उठानी पड़ी है। वह एक महान और श्रेष्ठ मनुष्य थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है, महर्षि दयानन्द के उपदेशों ने करोड़ों लोगों को नवीजनव, नई चेतना और नया दृष्टिकोण प्रदान किया। उन्हें श्राद्धांजिल अर्पित करते हुए हमें व्रत लेना चाहिए कि उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर हम देश को शान्त और वैभवपूर्ण बनाएँगे। डॉ. राधाकृष्ण ने लिखा है कि, स्वामी दयानन्द एक महान् सुधारक और प्रखर क्रान्तिकार महापुरूष तो थे ही, साथ ही उनेक हृदय में सामाजिक अन्यायों को उखाड़ फेंकने की प्रचण्ड अग्नि भी विद्यमान थी। उनकी शिक्षाओं का हम सबके लिए भारी महत्त्व है। उन्होंने हमे यह महान संदेश दिया हि हम सत्य को कसौटी पर कसकर ही किसी बात को स्वीकार करे।
आर्य समाज के सिद्धान्त
स्वामी दयान्नद सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में आर्य समाज के 10 सिद्धान्तों का वर्ण किया है, जो इस प्रकार हैं-
1. ईश्वर ही ज्ञान का मुख्य कारण है। सभी सत्य, विद्या एवं जो पदार्थ विद्या से जाने जाते है, उन सबका मूल कारण परमेश्वर है।
2. ईश्वर सच्चिदानन्द, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, न्यायकारी, अजन्मा, दयालु, अनादि, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र, सृष्टिकर्ता एवं निर्विकार है। हम सभी को उसकी भक्ति व उपासना करनी चाहिए।
3. वेद ज्ञान के भण्डार हैं। अतः प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है कि वह वेदों को पढ़ें और सुने।
4. असत्य का त्याग करने तथा सत्य को ग्रहण करने हेतु सदैव उद्यथ रहना चाहिए।
5. सबसे धर्मानुसार, प्रेमपूर्वक एवं यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।
6. विद्या का सृजन एवं अविद्या का नाश करना चाहिए।
7. सभी कार्य सत्य एवं असत्य पर विचार करने ही करने चाहिए।
8. समाज का उद्देश्य सभी व्यक्तियों की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए प्रयत्ना करना है।
9. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति से सन्तुष्ट न रहते हुए दूसरों की उन्नति को भी अपनी उन्नति समझना चाहिए।
10. व्यक्तिगत हित सम्बन्धी कार्यों में सभी व्यक्तियों को स्वतन्त्रता होनी चाहिए। किन्तु सार्वजनिक हित सम्बन्धी विषयों पर आपसी मतभेद भुलाकर परस्पर सहयोग से कार्य करना चाहिए।

आर्य समाज के सुधार- आर्य समाज के निम्नलिखित सुधार किए।-
(1)सामाजिक सुधार
स्वामी दयानन्द सरस्वती एक महान् सामाजिक सुधारक थे। उन्होंने बाल विवाह, बहु विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, जाति प्रथा, छुआछुत, अशिक्षा आदि का विरोध करते हुए स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह एवं अन्तर्जातीय विवाह पर बल दिया।
स्वामी जी का मानना था कि लड़को का विवाह 25 वर्ष तथा लड़कियों का विवाह 16 वर्ष की आयु से पहले नहीं करना चाहिए। उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह एवं विधवा विवाह पर बल दिया। वे नियोग प्रथा के भी समर्थक थे, जिसके अनुसार विधवा स्त्री अपने पति के छोटे भाई अथवाछोटा भाई न होने पर परिवार के किसी सदस्य के साथ मिलकर सन्तान उत्पन्न कर सकती थी, जिसके उसे सम्पत्ति में अधिकार मिल जाता था। आर्य समाज ने हजारों विधवाओं का विवाह करवाया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्त्रियों की शिक्षा तथा स्त्रियों को पुरूषों के समान अधिकार दिए जाने पर बल दिया। उनका मानना था कि स्त्रियों को भी वेदों का अध्ययन करने एवं यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा हेतु अनेक पाठशालाओं की स्थापना करवाई।
स्वामी दयानन्द ने वर्ण व्यवस्था, जाति-पाँति एवं ऊँच-नीच का विरोध करते हुए सामाजिक समानता पर बल दिया। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को जन्म के स्थान पर कर्म पर आधिरत माना और कहा कि हमें मनुष्य के जन्म से नही, उसके कर्म से धृणा करनी चाहिए। उन्होंने ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध करते हुए सभी वेदों के अध्ययन का अधिकार दिया। उन्होंने अछूतों के उद्धार के लिए अथक् प्रयास किया, अतः उन्हें समाज में कुछ सम्मान प्राप्त हुआ। दिनकर ने लिखा है कि, उन्होंने धीरे-धीरे पपडियों (सामाजिक कुरीतियों की पपडियाँ) तोड़ने काम न करके उन्हें एक ही चोट के धक कर देने का निश्चय किया।...दयानन्द के अन्य समकालीन सुधारक केवल सुधारक मात्र थे, किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आए।

शुद्धि आन्दोलन
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शुद्धि आन्दोलन चलाया। ऐसे हिन्दू को बलपूर्वक ईसाई अथवा ईस्लाम धर्म में दीक्षित कर दिए गए थे एवं जो पुनः हिन्दू धर्म ग्रहण करना चाहते थे, उन्हे े ं शुद्ध कर हिन्दू धर्म की दीक्षा दी जाती थी। यह आन्दोलन शुद्धि आन्दोलन कहलाया। दिनकर ने लिखा है, यह केवल सुधार की वाणी नहीं थी, जाग्रत हिन्दुत्व का समरनाद था। इसके फलस्वरूप लाखों हिन्दूओं ने, जिन्होंने इस्लाम तथा ईसाई मत धारण कर लिया था, पुनः हिन्दू बन गए। इस प्रकार इन आन्दोलन ने हिन्दू धर्म की रक्षा की। आगे चलकर हिन्दू समाज के उद्धार का कार्य लाल हंसराज तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने किया।
(2) धार्मिक सुधार
दयानन्द ने हिन्दू धर्म में व्याप्त मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बलि प्रथा, प्रचलित मत-मतान्तरों, अवतारवाद, आडम्बरों, अन्धविश्वास आदि की आलोचना करते हुए एकेश्वरवाद, यज्ञ, हवन, मन्त्रपाठ इत्यादि पर बल दिया। उनका माना था कि कोई भी व्यक्ति सत्कर्म, ब्रह्मचर्य एवं ईश्वर की उपासना का सहारा लेकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। स्वामी जी का मानना था कि वैदिक धर्म श्रेष्ठतम् है क्योंकि यह वेदों पर आधारित है, जो ईश्वरीय देन है, उन्होंने ईसाई धर्म तथा इस्लाम के साथ-साथ हिन्दू धर्म की बुराइयों पर भी प्रकाश डाला। मृतकों के श्राद्ध का विरोध करते हुए कहा कि परलोक में मृतक की आत्मा की शान्ति हेतु यहाँ दान देना एवं भोजन करवाना मूर्खता है। इस प्रकार आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में सुधार करते हुए उसकी पुनः श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न किया।
(3) साहित्यिक तथा शैक्षणिक देन
साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में स्वामी जी का योगदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। उन्होंने हिन्दी भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की। वे संस्कृत के महत्त्व को पुनः स्थापित करना चाहते थे तथा स्त्रियों को शिक्षा दिए जाने के प्रबल समर्थक थे। वे प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे, ताकि विद्यार्थी उचित ढंग से शिक्षा प्राप्त कर सके। वे शिक्षण संस्थाओं में सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार किए जाने के समर्थक थे।

स्वामी दयानन्द की मृत्यु के बाद शिक्षा के प्रश्न को लेकर आर्य समाज दो भागों में विभाजित हो गया। एक के नेता लाल हंसराज तथा दूसरे के नेता महात्मा मुन्शीराम थे। लाला हंसराज पर पाश्चात्य शिक्षा का बहुत प्रभाव था। उनके प्रयत्नों से अनेक स्थानों पर डी.ए.वी. (दयानन्द एंग्लो वैदिक) के नाम से स्कूलों एवं कॉलेजों की स्थापना हुई। महात्मा मुन्शीराम प्राचीन गुरूकुल प्रणाली के समर्थक थे। उनके प्रयत्नों से 1900 ई. में गुरूकुल कांगड़ी नामक संस्था की स्थापना हुई, जो आगे चलकर विख्यात विश्वविद्यालय बन गया। महात्मा मुन्शीराम स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से लोकप्रिय हुए। उन्होंने भी शुद्धि आन्दोलन को बहुत लोकप्रिय तथा प्रबल बनाया, अतः एक मुसलमान ने उनकी हत्या कर दी। आर्य समाज ने कई अनाथालयों, गो-शालाओं एवं विधवाश्रमों की स्थापना की, जो आज भी समाज सेवा के कार्य में संलग्न हैं।

(4)राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान
स्वामी
दयानन्द सरस्वती ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके दो प्रमुख नारों भारत भारतीयों का है तथा वैदिक सभ्यता को अपनाइए ने भारतीयों में नवीन उत्साह भर दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया और हिन्दुओं में आत्म-सम्मान की भावना जाग्रत की। उन्होंने हिन्दुओं को यह बताया कि उनकी संस्कृति विश्व की प्राचीन और महान् संस्कृति है। इस पर वे अपनी संस्कृति पर गर्वन करने लगे। आर्य समाज ने नमस्ते शभ्द को प्रचलित किया, जो आज भी भारत तथा विदेशों में लोकप्रियता प्राप्त किए हुए है। स्वामी जी ने भारतवासियों में भी राजनीतिक चेनता जाग्रत की। स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी के एक लेखक ने उनके बारे में लिखा है, दयानन्द का मुख्य लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता था। वास्तव में वह प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिश्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करना सिखाया। वह प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। जयसवाल ने लिखा है, सन्यासी दयानन्द ने हिन्दुओं की आत्मा को उसी प्रकार स्वतन्त्रता प्रदान की, जिस प्रकार लुथर ने यूरोपियन आत्मा को प्रदान की थी और उन्होंने इस स्वतन्त्रता का निर्माण भीतर से अर्थात् हि ्‌नदू साहित्य के आधार पर किया। उन्होंने हिन्दुओं में देशप्रेम की भावना उत्पन्न करते हुए कहा कि विदेशी राज्य कभी स्वराज्य का मुकाबला नहीं कर सकता कर्नल आल्काट ने लिखा है, दयानन्द ने अपने अनुयायियों पर बड़ा भारी राष्ट्रीय प्रभाव डाला। एनीबेसेण्ट ने लिखा है,

दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने लिखा कि भारत भारतीयों के लिए है। स्वामी जी ने हिन्दुओं में स्वाभिमान और स्वदेश प्रेम की भावना जाग्रत की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि अच्छा से अच्छा विदेशी राज्य स्वदेशी राज्य का मुकाबला नहीं कर सकता है। इस प्रकार, स्वामी जी ने भारतीयों में देशभक्ति की भावना का संचार किया और उन्हें अपनी सभ्यता से प्रेम करना सिखाया।
1855 में हरीद्वार में विशाल कुम्भ मेला लगा। स्वामी दयानन्द भी इस मेले में भाग लेने के लिए हरिद्वार पहुँचे। इस समय अंग्रेजों के अत्याचारों के कारण सम्पूर्ण देश की जनता में उनके विरूद्ध भयंकर असंतोष व्याप्त था। नाना साहब अजीमुल्ला खाँ, तात्या टोपे, कुँवरसिंह, महारानी लक्ष्मीबाई आदि मेले में भाग लेने के लिए के लिए हरिद्वार पहुँचे। वहाँ वे स्वामी जी से मिले। स्वामी जी ने उन्हें अंग्रेजों के विरूद्ध कान्ति करने के लिए प्रेरित किया।
1857 की क्रान्ति का पूर्ण नियोजित तथा संगठित थी। क्रान्ति के प्रमुख सेनानायकों ने 31 मई, 1857 की तिथि विद्रोह के लिए तय की थी और इसकी सूचना देश भर की छावनियों में बड़े ही गोपनीय ढंग से पहुँचा दी गई थी, किन्तु दुर्भाग्यवश कुछ घटनाओं के कारण वह क्रान्ति निर्धारित तिथि से पूर्व ही प्रारम्भ हो गई थी। पहली घटना कलकत्त के पाक बैरकपुर छावनी में 23 जनवरी को चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग के विरूद्ध हुई। बैरकपुर के सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। ब्रिटिश अधिकारियों ने इसे अनुशासनहीनता का अपराध समझकर सैनिकों को दण्ड दिया। 29 मार्च, 1857 ई. को एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पाण्डे ने चर्बी वाले कारतूसों की आज्ञा से कुर्द्ध होकर अपने अन्य साथियों के सहयोग से कुछ अंग्रेज सैनिक अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। परिणामस्वरूप मंगल पाण्डे तथा उसके साथियों को फाँसी के तखते पर लटका दिया गया।
मई, 1857 को मेरठ छावनी में कुछ सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। इसलिए उन्हें 9 मई को प्रातः 5-5 वर्ष की कैद की सजा सुनाई। इस पर 10 मई, 1857 ई. को मेरठ के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। जेल खानें में बन्दी सिपाहियों को छुड़ा लिया गया और मैरठ की सेना ने दिल्ली की ओर कूच कर दिया। क्रान्तिकारियों ने दिल्ली पर अधिकार कर बहादुरशाह को पुनः सम्राट घोषित कर दिया।

इसके पश्चात क्रान्ति देश के अन्य भागों में फैलती गई। उत्तर भारत के अनेक राज्यों पर क्रान्तिकारियों ने अधिकार कर लिया। इसी समय लार्ड केनिंग ने एक और हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट पैदा कर दी तथा दूसरी ओर क्रान्ति को कुचलने के लिए पटियाला, नाभा, जीन्द, नेपाल, हैदराबाद और ग्वालियर के शासकों से सहायता प्राप्त की। सिक्खों और गोरखों ने इस क्रान्ति को दबाने हेतु ब्रिटिश सरकार को पूरी-पूरी सहायता दी। फलस्वरूप 24 सितम्बर, 1857 ई. को ब्रिटिश सेना का दिल्ली पर अधिकार हो गया। मुगल सम्राट बहादुरशाह को बन्दी बना लिया गया और उसके दो पुत्रों को नंगा करके मौत के घाट उतार दिया गया तथा उनके सिर काटकर सम्राट के पास भेटं के रूप में भेजे गए। अंग्रेजी सेना ने एक सप्ताह तक दिल्ली में जी भरकर लूटमार की तथा कत्लेआम किया। उत्तर भारत के गाँव के गाँव मशीनगनों से स्वाहा कर दिए गए। बहादुरशाह पर मुकदमा चलाया गया और उसे उम्र कैद की सजा देकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 में उसकी मृत्यु हो गई।
1857 ई. की क्रान्ति का केन्द्रस्थल उत्तर भारत ही रहा। दिल्ली के अतिरिक्त मेरठ, आगरा, इलाहाबाद, अवध, पटना एव रूहेलखण्ड आदि आस-पास के प्रदेशों के क्रान्तिकारियों ने अपनी सरकारों की स्थापना की और कुछ क्षेत्रो में तो थोड़े समय के लिए ब्रिटिश शासन समाप्त ही हो गया। नाना साहब, बहादुरशाह, तात्या टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुँवरसिंह, मौलवी अहमदशाह, बेगम हजरत महल एवं खान बहादुर खाँ आदि नेताओं ने जगह-जहग पर क्रान्ति का नेतृत्व किया। झाँकी रानी लक्ष्मीबाई वीरतापूर्वक लड़ती हुई 18 जून, 1857 ई. में ग्वालियर के युद्ध में शहीद हुई। तात्या टोपे को उसके साथी मानसिंह ने धोखे से अलवर में बन्दी बनवा दिया। अंग्रेज सरकार ने तात्या टोपे को फाँसी पर लटका दिया। मौलवी अहमदशाह की हत्या कर दी गई। इस प्रकार, इस क्रान्ति को अंग्रेजों ने कुचल दिया। इस क्रान्ति में लगभग 30 हजार भारतीय सैनिक और एक लाख नागरिक मारे गए।क्रान्ति को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने क्रान्ति में भाग लेने वाले भारतीयों पर अमानवीय अत्याचार किए। उन्होंने बदला लेने के उद्देश्य से लूटमार तथा कत्लेआम करने की खुले रूप से घोषणा कर दी। इस क्षेत्र में तो उन्होंने नादिरशाह को भी मात कर दिया था।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1857 से 1883 तक के काल में भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने का हर सम्भव प्रयास किया। 1857 की क्रान्ति की असफलता के बारे में स्वामी जी का विचार था कि यदि देशी रियासतों के नरेशों ने भी स्वाधीनता संग्राम में सहयोग दिया होता, तो भारत 1857 में ही स्वतन्त्र हो जाता, परन्तु कुछ देशी रियासतों के शासकों ने क्रान्ति का साथ देने के स्थआन पर क्रान्ति को कुचलने के लिए अंग्रेजों को सहायता दी।
स्वामी दयानन्द सरस्वती 1872 में कलकत्ता पहुँचे। वहाँ उनकी तात्कालीन गवर्नर लार्ड नार्थ बुर्क से भेंट हुए। लार्ड नाथ ब्रुक ने स्वामी जी से कहा कि आप अपने भाषणों में अखण्ड अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना पर बल दिया करें, परन्तु स्वामी जी ने कहा कि मै तो हमेशा भारत की स्वतन्त्रता और अंग्रेजी राज्य की समाप्ति के लिए कहता हूँ। इस प्रकार वार्ता भंग हो गई। इसके पश्चात् लार्ड नार्थ ब्रुक ने स्वामी जी को अंग्रेजों का शत्रु समझकर उनके पीछे गुप्तचर लगा दिए। इस पर स्वामी जी ने अपने प्रचार कार्य जारी रखा। उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि, प्रभो हमारे देश में कभी विधेली राजा का राज न रहे। उन्होंने आगे लिखा कि, कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है...प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय एवं दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

इन भूले बिसरे क्रांतिकारियों के बारे में राष्ट्रीय अभिलेखागारों से जानकारी प्राप्त हुई है। इसके अतिरिक्त शोधकर्ता भी कुछ अज्ञात क्रांतिकारियों को प्रकाश में लाए हैं।
स्वामी जी ने पराधीनता के जुए को उतार फैंकने की बात उस समय की कही, जबकि अंग्रेजी सरकार की ज़डें पाताल तक पहुँच चुकी थी। जब स्वतन्त्रता की माँग करना राजद्रोह माना जाता था। डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी ने स्वामी जी के सम्बन्ध में कहा है कि, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में एक स्वतन्त्र भारत की कल्पना की थी, जिसमें स्वकीय संस्कृति तथा सभ्यता की अमूल्य परम्पराएँ अक्षुण्ण रहे। तिलक ने स्वामी जी को स्वराज्य का प्रथम सन्देश वाहक कहा था और सावरकर ने उन्हें स्वाधीनता संग्राम का सर्वप्रथम यौद्धा।
स्वामी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वधर्म, स्वदेशी, स्वभाषा व स्वसंस्कृति का प्रचार किया। उनका कहना था कि अच्छा से अच्छा विदेशी राज्य स्वराज्य का मुकाबला नहीं कर सकता है। उन दिनों सरकारी कार्यालयों में देशी जूते पहनकर जाने पर प्रतिबन्ध था। स्वामी जी को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में इस सम्बन्ध में एक स्थान पर लिखा है कि, जब इन लोगों को हमारे देश के बने हुए जूतों से भी इतनी घृणा है, तब हमारे देश के मनुष्यों से तो पता नहीं कितनी घृणा इन्हें होगी। अंग्रेजों द्वारा लूटी जा रही भारत की सम्पत्ति के बारे में स्वामी जी ने अनपे ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर लिखा है कि हमने सुना है, पारस पत्थर नाम का कोई पत्थर होता है, जिसके स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, परन्तु आज तक यह पत्थर किसी के देखने में नहीं आया। हमारा तो अनुमान यह कि भारत देश ही वह पारस पत्थर है, जिसमें बाहर से जो भी दरिद्र विदेशी लोहा बनकर आए, वे यहाँ से सोना बनकर ही गए।

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम का एक प्रमुख कारण गाय का प्रश्न था। इस समय सैनिकों को ऐसे कारतूस दिए गए, जिनमें गाय की चर्बी का प्रयोग होता था। बन्दूक भरने से पूर्व सिपाहियों को कारतूस का खोल मुँह से काटना पड़ता था। जब सिपाहियों को यह पता चला कि अंग्रेजों द्वारा (कारतूस में गाय की चर्बी का प्रयोग कर) उनका धर्म भ्रष्ट किया जा रहा है, तो उन्होंने इसका विरोध भी किया, पर उन्हें उपेक्षित सफलता नहीं मिली। स्वामी जीने 1857 के बाद गोकरूणानिधि नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें गाय की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया था। इस पुस्तक में स्वामी जी ने एक स्थान पर तो यहाँ तक लिख दिया था कि, जो गाय के रक्षक नहीं, भक्षक है, वे म्लेच्छ हैं। भारत की पुण्य भूमि में एक क्षण भी म्लेच्छों को रहने का अधिकार नहीं है। स्वामी जी ने उन दिनों गो-वध बन्द करवाने के लिए एक स्मृति पत्र भी महारानी विक्टोरियो को भिजवाया था।
स्वामी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। वे अंग्रेजी से अनभिज्ञ थे। अतः इस सम्बन्ध में केशवचन्द्र सेने ने उनसे कहा कि महाराज, आपने एक बहुत बड़ी भूल की जो अंगेजी नहीं पढ़ी। यदि आप अंग्रेजों जानते, तो वेदों का संदेश अमेरिका, इंग्लैण्ड और जर्मनी में जाकर देते। इस परस्वामी जी ने हँसकर उत्तर दिया कि, केशव बाबू, एक भूल आपसे भी हुई। आपने संस्कृत नहीं पढ़ी। यदि आप संस्कृत जानते, तो पहले हम दोनों मिलकर अपने घर का सुधार करते, बाद में समय रहता तो बाहर भी चलते। सारांश यह कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने लेखों और उपदेशों से जनता में जाग्रति उत्पन्न कर दी थी। इस प्रकार, निःसन्देह वे एक महान् राष्ट्र-निर्माता थे। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने स्वामी जी और उनके आर्य समाज के बारे में ठीक ही लिखा है कि, स्वामी दयानन्द के आर्य समाज की शिक्षाएँ, सार्वभौम हिन्दुत्व के आदेश से चाहे जितनी भिन्न हों, किन्तु वह यह मानना पड़ेगा की आर्य समाज ने ब्रह्म समाज के बुद्धिवादी आन्दोलन की अपेक्षा नई राष्ट्रीय चेतना के विकास में अधिक महत्त्वपूर्ण योग दिया है। आर्य समाज के महान् कार्यों में हम वैदिक धर्म का उद्धार, समाज सुधार, शुद्धि आन्दोलन, जाति भेद, अछूतोद्वार, राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति, हिन्दी का प्रसार और राष्ट्रीय जागरण का उल्लेख कर सकते है।

थियोसोफिकल सोसायटी
थियोसोफिकल सोसायटी भी एक प्रमुख सुधारवादी आन्दोलन था। थियोसोफी शब्द ग्रीक भाषा के थियो व सोफी शब्दों से मिलकर बना है। थियो का अर्थ ईश्वर एवं सोफी शब्द का अर्थ ज्ञान होता है। इसकी स्थापना सर्व प्रथम रूसी महिला ब्लेवाट्स्की एवं अमेरिकन कर्नल एच.एस. आलकाट ने 7 सितम्बर, 1875 ई. को अमेरिका के न्यूयार्क नगर में की। इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे।-
(1) प्रथम उद्देश्य प्रकृति के नियमों की खोज करना एवं जनता में दैवी शक्ति में विश्वास उत्पन्न करना था। इसका मानना था कि देवता हिमालय में निवास करते हैं एवं मनुष्य के भाग्य के निर्माण करते हैं। पुनर्जन्म में भी इनका विश्वास था।
(2) सभी धर्मों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करते हुए उनमें समन्वय स्थापित करना।
(3) प्राचीन धर्म, दर्शन एवं ज्ञान का अध्ययन तथा प्रसार करना।
(4) विश्व बन्धुत्व के सिद्धान्त में विश्वास करना तथा ब्रह्मा को सारी सृष्टि का निर्माता मानना।
(5) पूर्वी देशों के धर्मों एवं दर्शनों का अध्ययन तथा प्रसार करना।

1879 ई. में ब्लेवाट्स्की तथा आर्ल्काट स्वामी दयानन्द के निमन्त्रण पर भारत आए। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म विश्व का श्रेष्ठतम् धर्म है तथा सम्पूर्ण सता इसी में निहित है। कर्नल आर्ल्काट ने अपनी सोसायटी का उद्देश्य भारतीयों को उनकी संस्कृति के गौरव तथा महानता का स्मरण करवाना बताया, ताकि भारत पुनः अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। इस सोसायटी के संस्थापक ने 1879 से 1881 तक स्वामी दयायनन्द के साथ मिलकर भारत में ईसाई धर्म के बढ़ते प्रसार को रकोने का प्रयत्न किया, किन्तु यह प्रयत्न अधिक समय तक न चल सका, क्योंकि जहां दयानंद वेदों को प्रामाणिक तथा ईश्वरीय ज्ञान मानते थे, वहीं थियोसोफिकल सोसायटी के प्रवर्तक इससे सहमत नहीं थे। अतः इन्होंने 1886 ई. में मद्रास के समीप अडयार नामक स्थान पर थियोसोफिकल सोसायटी का केन्द्र स्थापित किया एवं भारत में अपने विचारों का प्रचार करना आरम्भ किया।

श्रीमती एनीबिसेंट
भारत में इस आन्दोलन का नेतृत्व एक अंग्रेज महिला एनीबिसेंट ने किया, जिन पर भारतीय सभ्यता का बहुत प्रभाव था। उनका जन्म 1847 ई. में हुआ था एवं 10 मई, 1889 ई. को वे इस सोसायटी की सदस्या बनी थीं। 16 नवम्बर, 1893 ई. में वे भारत आते ही भारत की सांस्कृतिक पुनर्जागरण में लग गई। उनसे प्रभावित होकर कई विद्वान इस सोसायटी के सदस्य बन गए। 1900 ई. में आल्काट की मृत्यु के पश्चात् वह इस सोसायटी की अध्यक्ष बनी।
एनीबिसेंट का हिन्दू प्रेम
एनीबिसेंट को हिन्दू धर्म से बहुत प्रेम था और उनका मानना था कि हिन्दू धर्म के जागरण से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। एक भाषण में उन्होंने कहा, भारत और हिन्दुत्व की रक्षा भारतवासी और हिन्दू ही कर सकते हैं। हम बाहरी लोग आपकी चाहे कितनी भी प्रशंसा करें, किन्तु आपका उद्धार आप ही के हाथ है। आप किसी प्रकार के भ्रम में न रहें। हिन्तुत्व के बिना भारत के सामने कोई भविष्य नहीं है। हिन्दुत्व ही वह मिट्टी है, जिसमें भारतवर्ष का मूल गड़ा हुआ है। यदि यह मिट्टी हटा ली गई, तो भारत रूपी वृक्ष सूख जाएगा। भारत में आश्रय पाने वाले अेक धर्म हैं, अनेक जातियाँ हैं, परन्तु इसमें से किसी की भी शिक्षा भारत के अतीत तक नहीं पहुँची है। इसमें से किसी ने भी यह दम नहीं है कि भारत को एक राष्ट्र के रूप में जीवित रख सके। इनमें से प्रत्येक भारत में विलीन हो जाए, तब भी भारत, भारत ही रहेगा, किन्तु यदि हिन्दुत्व विलीन हो गया, तो शेष कुछ नहीं बचेगा।
एनीबिसेंट की हिन्दू धर्म के प्रति सेवाएँ
एनीबिसेंट ने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवाएँ की। उन्होंने बहुदेववाद, यज्ञ, मूर्तिपूजा, तीर्थ, व्रत, कर्मवाद, पुनर्जन्म तथा धार्मिक अनुष्ठान आदि हिन्दुओं के विश्वासों एवं कर्मकाण्डों का प्रबल समर्थन किया। इससे हिन्दुओ का अपने धर्म में विश्वास पुनः जाग्रत होने लगा। उनका कर्म एवं पुर्नजन्म के सिद्धान्त में भी विस्वास था। उनका मानना था कि मोक्ष प्राप्ति पर आत्मा जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाती है।

1914 में एनीबिसेंट ने एक भाषण में कहा, विश्व के अनेक धर्मों के 40 वर्षों के अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि मुझे हिन्दुत्व के समान कोई धर्म इतना पूर्ण, वैज्ञानिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक नहीं जचता। जितना अधिक तुमको इसका भान होगा, उतना ही अधिक तुम इससे प्रेम रखोगे। श्रीमती एनीबिसेंट ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मूर्तिपूजा पर बल दिया।

हिन्दुओं में आत्म-सम्मान की भावना जाग्रत करना
एनीबिसेंट के भारत में आने के समय हिन्दुत्व जर्जर हो चुका था एवं शिक्षित लोगों का पाश्चात्य संस्कृति के प्रति झूकाव बढ़ता जा रहा था। वे अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन हो रहे थे। ऐसे समय में एनीबिसेंट ने भारतीय संस्कृति की महानता तथा गौरव को भारतीयों के सम्मुख रखा। एक विदेशी के मुख से अपनी संस्कृति की महानता सुन भारतीयों में एक नया आत्मसम्मान जाग्रत हुआ। सर वेलेन्टाइन शिरोल ने लिखा है कि, जब अतिश्रेष्ठ बौद्धिक शक्तियों तथा अद्भूत वक्तुत्व शक्ति से सुसज्जित यूरोपियन भारत में जाकर भारतवासियों से यह कहें कि उच्चतम् ज्ञान की कुँजी युरोप वालों के पास नहीं है, तुम्हारे पास है, तुम्हारे देवता, तुम्हारे दर्शन तथा तुम्हारी नैतिकता की यूरोप वाले छाया भी नहीं, छू सकते, तब इसमें क्यां आश्चर्य है कि भारतवासी हमारी सभ्यता से पीठ फेर लें। इस सम्बन्ध में श्री प्रकाश ने लिखा है कि, श्रीमती एनीबिसेंट को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने एक उदासनी और सोती हुई जाति को नींद से जगा दिया, उसने अपने आत्म-सम्मान तथा गौरव को पुनजीर्वित कर दिया। उनको (भारतीयों को) विवश कर दिया कि वे अपने कदम टेक सकें एवं संसार के राष्ट्रों में अपना नाम ले सकें।

सामाजिक तथा शैक्षणिक देन
एनीबिसेंट ने 1914 में भारत की राजनीति में प्रवेश किया तथा कॉमनवील व न्यू इण्डिया नामक समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया। उन्होंने 1916 ई. में तिलक के साथ मिलकर स्वराज्य की प्राप्ति हेतू होमरूल आन्दोलन चलाया व भारतीयों में जाग्रति उत्पन्न की। डॉ. जकारिया ने लिखा है कि, उनकी योजना उग्र राष्ट्रीय व्यक्तियों को क्रान्तिकारियों के साथ इकट्ठा होने से रोकने की थी। वे भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वराज्य दिलवाकर संतुष्ट रखना चाहती थी। श्रीमती एनीबिसेंट का कहना था कि, होमरूल भारत का अधिकार है तथा राजभक्ति के पुरस्कार के रूप में इसे प्राप्त करने की बात कहना मूर्खतापूर्ण है। भारत राष्ट्र के रूप में अपना न्यायिक अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य से माँगता है। मद्रास अधिवेशन में उन्होंने कहा था कि, भारत साम्राज्य के शिशु गृह में एक शिशु (छोटे बच्चे) की भाँति बन्द नहीं रहना चाहता। भारत को स्वराज्य देना आवश्यक है।
इस आन्दोनल के सम्बन्ध में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि, देश के वातावरण में बिजली सी दौड़ गई और हम नवयुवक एक अजीब उत्साह तथा स्फूर्ति का अनुभव कर रहे थे, जिसका परिणाम भविष्य में कुछ होगा। के. वी. पुन्निया ने लिखा है कि सारा देश नए विचारों से आन्दोलित हो उठा और ऐसे नवजीवन से भर उठा, जैसा कि इससे पहले कभी नहीं हुआ था। 1917 ई. में एनीबिसेंट को बन्दी बनाने पर जनता ने प्रबल विरोध किया, अतः उन्हें छोड़ना पड़ा। गुरूमुख निहालसिंह ने लिखा है कि, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक विरोध और रोष का तूफान खड़ा कर दिया। सारे देश में श्रीमती एनीबेसण्ट की नजर बन्दी में विरोध में सभाएँ हुईं। वे राष्ट्रीय नेता, जो अब तक होमरूल आन्दोलन में अलग थे, होमरूल लीग के सदस्य हो गए और उन्होंने इसमें उत्तरदायी पदों को सम्भाला। वे कांग्रेस की अध्यक्ष भीं बनीं।
एनीबिसेंट ने विदेशी होते हुए भी भारतीयों की बहुत सेवा की। 20 सितम्बर, 1933 ई. को अडयारप में उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए गाँधी जी ने कहा था कि, जब तक भारतवर्ष जीवित है, एनीबिसेंट की सेवाएँ बी जीवित रहेंगी। उन्होंने भारत को अपनी जन्मभूमि मान लिया था, उनके पास देने योग्य जो कुछ भी था, भारत के चरणों में अर्पित कर दिया था। इसलिए वे भारतवासियों की दृष्टि में इतनी प्यारी और श्रद्धेया हो गईं।

रामकृष्ण मिशन

यह 19वीं सदी का अन्तिम सुधारवादी आन्दोलन था। रामकृष्ण परमहंस ने बंगाल में अपने विचारों का प्रचार किया था। कालान्तर में उनके नाम पर स्वामी विवेकानन्द ने 1887 ई. में बारानगर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.)
रामकृष्ण परमहंस का जन्म 1836 ई. में पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले के कमारप्रकुर नामक गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार मं हुआ था। उनका मूल नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। उनका शिक्षा से विशेष लगाव न था एवं उन्हें साधुओं की संगति पसंद थी। 17 वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु ोहने पर वे कलकत्ता आ गए। अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता के समीप दक्षिणेश्वर में रासमणि द्वारा स्थापित काली के मन्दिर में पुजारी बन गए। वे काली के परम भक्त थे तथा उसे माँ कहकर पुकारते थे। 24 वर्ष की आयु में उनका विवाह 5 वर्षीया शारदामणी से हो गया। विवाह के पश्चात् 12 वर्ष तक रामकृष्ण ने काली मन्दिर में कई प्रकार की तपस्याएँ की। उन्होंने भैरवी नामक सन्यासिन से 2 वर्ष तक तांत्रिक साधना सीखी एवं तोतापुरी नामक साधु से वेदान्त साधना सीखी। उन्होंने वैष्णव धर्म की साधना से कृष्ण के साक्षात् दर्शन किए। उन्होंने इस्लाम तथा ईसाई धर्म की भी साधना की। निरन्तर साधना से वे शुद्ध एवं विरक्त हो चुके थे। दूर-दूर से लोग उनके दर्शनार्थ आते थे। उनकी पत्नी शारदामणी जब उनके पास आईं, तो उन्होंने उसे माँ कहकर पुकारा था। 16 अगस्त, 1886 ई. में कैंसर से उनका देहान्त हो गया।
रामकृष्ण ने किसी नए धर्म का प्रतिपादन नहीं किया। वे स्वयं धर्म के जीते-जागते स्वरूप थे। वे निराकार तथा साकार ईश्वर दोनों की उपासना में विश्वास रखते थे तथा वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण आदि को पवित्र धार्मिक ग्रन्थ मानते थे। उनका मूर्तिपूजा, एकेश्वरवाद तथा बहुदेववाद में भी विश्वास था। श्री दिनकर ने उनके सम्बन्ध में लिखा है कि हिन्दू धर्म में जो गहराई और माधुर्य है, परमहंस रामकृष्ण उनकी प्रतिमा थे।...सिर से पाँव तक वे आत्मी की ज्योति से परिपूर्ण थे। आनन्द, पवित्रता और पुण्य की प्रभा उन्हें घेरे रहती थी। वे दिन-रात परमार्थ चिन्तन में रत रहते थे। सांसारिक सुख, समृद्धि यहाँ तक कि सुयश का भी उनके सामने कोई मुल्य नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएँ
रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
(1) मानव जीवन का मूल्य लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार है।
(2) उनका मानना था कि व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सांसारिकता से दूर रहकर ईश्वर की उपासना द्वारा उसे प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार गृहस्थ जीवन ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाधक नहीं है।
(3) मनुष्य विषय वासना को त्यागने पर ही ईश्वर के दर्शन कर सकता है।
(4) शरीर और आत्मा को अलग-अलग बताते हुए रामकृष्ण ने कहा, कामिनी कंचन की आसक्ति यदि पूर्णरूप से नष्ट हो जाए, तो शरीर अलग है व आत्मा अलग है, यह स्पष्ट दिखने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा नरेटी से खुलकर अलग हो जाता है, खोपरा और नरेटी दोनों अलग-अलग दिखने लगते हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा के बारे में मानना चाहिए।
(5) उनका मानना था कि मूर्तिपूजा, पुनर्जन्म एवं अवतारवाद को लेकर शास्त्रार्थ करना व्यर्थ है। जो कुछ दिखता है, वह ईश्वरमय है एवं ईश्वर शास्त्रार्थ की शक्ति से परे है।
(6) मूर्तिपूजा का समर्थन करते हुए रामकृष्ण ने कहा, जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है, वैसे ही प्रतिमा को देखते ही ईश्वर की याद आती है।
(7) उनका मानना था कि अनुभूति से भी ईश्वर को साक्षात्कार हो सकता है। इससे व्यक्ति को शान्ति मिलती है एवं उसकी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं।
(8) उनका मानना था कि मनुष्य समान हैं तथा उनमें एक ही ईश्वर निवास करता है।
(9) ईश्वर की उपासना का सरल मार्ग बताते हुए रामकृष्ण ने कहा, जब तुम काम करते हो, तो एक हाथ से काम करो औरदूसरे हाथ से भगवान का पाँव पकड़े रहो। जब काम समाप्त हो जाए तो भगवान के चरणों को दोनों हाथों से पकड़ लो।
(10) एक विद्वान को सदाचारी, अनुशासनपूर्ण, नैतिकतापूर्ण एवं विनम्र होना चाहिए।
(11) रामकृष्ण का मानना था कि धर्म ईश्वर तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हैं तथा सभी में सत्य है।
इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि, ईश्वर एक है, लेकिन उसके विभिन्न स्वरूप हैं. जैसे एक घर का मालिक एक के लिए पिता, दूसरे के लिए भाई तथा तीसरे के लिए पति है और विभिन्न व्यक्तियों द्वारा नामों से पुकारा जाता है। उसी प्रकार ईश्वर भी विभिन्न कालों व देशों में भिन्न-भिन्न नामों व भावों से पूजा जाता है। इसलिए धर्मों की अनेकता देखने को मिलती है।
पी. सी. मजूमदार ने लिखा है, श्री रामकृष्ण के दर्शन होने से पूर्व धर्म किसे कहते है, यह कोई समझता भी न था। आडम्बर ही था। धार्मिक जीवन कैसा होता है, यह बात रामकृष्ण की संगति होने पर जान पड़ी।
रामकृष्ण परमहंस की देन
आध्यात्मवाद-रामकृष्ण की प्रथम देन आध्यात्मवाद है। वे आध्यात्मवाद के जीते-जागते स्वरूप थे। उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा वेदों व उपनिषदों के जटिल ज्ञान को सरल बना दिया एवं हिन्दुओं को उनकी संस्कृति के गौरव से परिचित करवाया। उन्होंने विश्व के सम्मुख आध्यात्मिक सत्य को रखा। उनके विचारों से प्रभावित होकर मैक्समूलर, रोम्यां रोला आदि विद्वानों ने उनकी जीवनी लिखी।
विविध धर्मों की एकता में विश्वास
रामकृष्ण का मानना था कि ईश्वर एक है तथा विविध धर्म उसकी प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हैं। व्यक्ति किसी भी मार्ग पर चलकर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार वे विविध धर्मों की एकता के समर्थक थे।
मानव मात्र की भलाई
रामकृष्ण मानव मात्र की सेवा एवं भलाई के समर्थक थे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ईश्वर निवास करता है, अतः मानव सेवा ही ईश्वर की सेवा है। इसी आधार पर उनके शिष्य विवेकानन्द ने आजीवन दरिद्र नारायण की सेवा की। डॉ. सिल्वेन लीवी ने रामकृष्ण के योगदान के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए लिखा है, ...क्योंकि रामकृष्ण का हृदय और मस्तिष्क सभी देशों के लिए था, इसलिए उनका नाम सम्पूर्ण मानव मात्र की सम्पत्ति है।
स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)
स्वामी विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे, जिन्होने सम्पूर्ण विश्व में अपने गुरू के विचारों का प्रसार कर दिया। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 ई. को कलकत्ता में एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने बी.ए. तक अध्ययन किया। वे बड़े प्रतिभावान छात्र थे। उनके सम्बन्ध में एक बार उनके आचार्य ने कहा था, मैने दूर-दूर देशों की यात्रा की, परन्तु मैंने नरेन्द्रनाथ के समान प्रतिभा सम्पन्न युवक नहीं देखा। यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों में भी ऐसा जिज्ञासु युवक नहीं देखा।
नरेन्द्रनाथ व्यायाम में रूची रखते थे। वे जॉन स्टुअर्ट मिल, ह्यूम, हर्बर्ट स्पेन्सर एवं रूसो के दार्शनिक विचारों से बहुत प्रभावित हुए। वे ब्रह्म समाज के सम्पर्क में आए, किन्तु उनकी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। उनके सम्बन्धी ने उन्हें रामकृष्ण परमहंस से मिलने को कहा, अतः वे 1881 ई. में उनसे मिलने दक्षिणेश्वर चले गए।
रामकृष्ण परमहंस से सम्पर्क
जब प्रथम बार नरेन्द्र रामकृष्ण से मिले, तो उनके विचार रामकृष्ण से अलग थे। नरेन्द्र पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव था, किन्तु रामकृष्ण के सम्पर्क ने उनके विचारों में क्रान्ति कारी परिवर्तन कर दिया। नरेन्द्र ने रामकृष्ण से पूछा क्या आपने ईश्वर को देखा है? तो उन्होंने कहा कहा, हाँ, मैं ईश्वर को वैसे ही देखता हूँ, जैसे मैं तुम्है देखता हूँ। तुम भी चाहो तो उसे देख सकते हो। उन्होंने नरेन्द्र से कहा, मैंने ाज तक इस संसार में यह देखा कि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के लिए, कोई अपने पत्नी के लिए, कोई सन्तान के लिए रो रहा है, परन्तु मैने आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं देखा, जो ईश्वर के लिए रो रहा हो। इन विचारों का नरेन्द्र पर बहुत प्रभाव पड़ा। दूसरी मुलाकात के समय रामकृष्ण ने अपना दांया पाँव नरेन्द्र के शरीर पर रखा। इस स्पर्श के सम्बन्ध में नरेन्द्र ने लिखा है, आँखें खुली होने पर भी मैंने दीवारों सहित सारे कमरे को शून्य में विलीन होते देखा। मेरे व्यक्तित्व सहित सारा ब्रह्माण्ड ही एक सर्वव्यापक रहस्यमय शून्य में लुप्त होते हुए दिखाई पड़ा। इसके बाद नरेन्द्र ने रामकृष्ण को अपना गुरू बना लिया। यही नरेन्द्र आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए।

विवेकानन्द के तीन उद्देश्य थे
(1) हिन्दुओं की अपने धर्म में पुनः आस्था उत्पन्न करना।
(2) बुद्धिजीवियों की धर्म में श्रद्धा उत्पन्न करने हेतु धर्म की पुनः स्थापना करना।
(3) भारतीयों को उनकी गौरवशाली संस्कृति से परिचित करवाकर उनमें आत्म-सम्मान की भावना उत्पन्न करना।
विवेकानन्द ने अपनी 39 वर्ष की अल्पायु में ही इन उद्देश्यों को पूरा कर दिखाया था। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम् संस्कृति है।
रामकृष्ण मठ की स्थापना
रामकृष्ण की मृत्यु के पश्चात् विवेकानन्द ने 1887 ई. में काशीपुर के निकट बारा नगर में अपने गुरू के नाम पर रामकृष्ण मठ की स्थापना की। अब विवेकानन्द ने सन्यास ग्रहण किया तथा उनका नाम स्वामी विवेकानन्द रखा गया।

शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन (1893 ई.)
सन्यास
लेने के बाद विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। जब वे कन्याकुमारी में थे, उस समय अमेरिका के शिकागो में सर्वधर्म सम्मेलन हो रहा था। वे निम्न कारणों से इस सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेना चाहते थे-

(1) इस समय हिन्दू समुद्र यात्रा पाप मानते थे एवं उनका मानना था कि विदेशियों के हाथ का छुआ खाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है। स्वामी जी उनके इस अन्धविश्वास को दूर करना चाहते थे।
(2) वे शिक्षित भारतीयों को यह दिखाना चाहते थे कि पाश्चात्य देशों में भारतीय संस्कृति के प्रति कितनी श्रद्धा है।
(3) वे सभी धर्मों को एक ही मानते थे तथा उनमें एकता स्थापित करने के इच्छुक थे।

1893 ई. में शिकागो में स्वामी जी ने सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने अपने भाषण का आरम्भ भाइयों और बहनों के सम्बोधन से किया, तो वहाँ उपस्थित अमेरिकनों ने तालियों की भारी गड़गड़ाहट के साथ इसका स्वागत किया। इसके बाद उन्होंने अपने 10-12 भाषणों द्वारा अमेरिका में हिन्दू धर्म तथा भारतीय संस्कृति की धाम जमा दी। इन भाषणों के सम्बन्ध में द न्यूयार्क हेराल्ड नामक पत्र ने लिखा, धर्मों की पार्लियामेन्ट में सबसे महान् व्यक्तित्व विवेकानन्द है। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म प्रचारक भेजने की बात कितनी बेवकूफी की बात है। शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन की विज्ञान शाखा के अध्यक्ष श्री मार्विनमेरी स्नैल ने कहा था, इस सर्वधर्म सम्मेलन का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि उसने ईसाई जगत को विशेषतः अमेरिका के लोगों को यह पाठ सिखाया कि विश्व में दूसरे धर्म भी है, जो ईसाई धर्म की अपेक्षा कहीं अधिक ठोस, स्वतन्त्र विचार की दृष्टि से कहीं अधिक शक्तिशाली एवं मानवीय सौहार्द्र की दृष्टि से कहीं अधिक शक्तिशाली एवं मानवीय सौहार्द्र की दृष्टि से कहीं अधिक उदार तथा व्यापक हैं। वे पूर्ण कला और सौन्दर्य की दृष्टि से उससे यक्तिचित भी कम नहीं है। निवेदाति ने लिखा है, स्वामी विवेकानन्द भारत का नाम लेकर जीते थे। वे मातृभूमि के अनन्य भक्त थे और उन्होंने भारतीय युवकों को उसकी पूजा करना सिखाया।

विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार
शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन के बाद स्वामी जी ने तीन वर्ष इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में रहकर अपने भाषणों, लेखों, वक्तव्यों एवं कविताओं द्वारा सम्पूर्ण यूरोप में भारतीय संस्कृति का बहुच प्रचार किया। उन्होंने अमेरिका में वेदान्त समाज की स्थापना की। जनवरी 1897 ई. वे भारत लौट गए।
विवेकानन्द ने 1897 ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। 1899 ई. में उन्होंने अपना प्राचीन मठ वेलूर में स्थापित किया। रामकृष्ण मिशन के सदस्य शिक्षित होते थे एवं अकाल, महामारी व बाढ़ के समय जनता की सेवा करते थे। 1897 ई. में मुर्शिदाबाद के अकाल और कलकत्ता में प्लेग के समय इसके सदस्यों ने समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा की। इस मिशन ने कई चिकित्सालयों, अनाथालयों, विद्यालयों, विधवाश्रमों एवं सेवाश्रमों की स्थापना की।
1899 ई. में विवेकानन्द पुनः अमेरिका गए। उन्होंने न्यूयार्क, लांस एंजिल्स, सैन फ्रांसिसकों तथा केलीफिर्निया आदि स्थानों पर वेदान्त समाज की स्थापना की। उन्होंने पेरिस के धार्मिक सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व किया। इस प्रकार स्वामी जी ने हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति की धाक जमाते हुए भारत में ईसाइयो के द्वारा किए जा रहे प्रयासों पर पानी फेर दिया। जब भारतीयों को अपनी संस्कृति की महानता का पता चला, तो उनमें आत्म-गौरव की भावना उत्पन्न हुई। दिनकर ने लिखा है, हिन्दुत्व को जीतने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म और यूरोपीयन बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था, वह विवेकानन्द के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकराकर वापस लौट गया। हिन्दू जाति का धर्म है कि वह जब तक जीवित रहे, विवेकानन्द को उसी श्रद्धा से याद करे, जिस से वह व्यास तथा वाल्मिकि को याद करती है। हेन्स कोहने ने लिखा है, स्वामी विवेकानन्द ने देश को आत्मविश्वास, आत्मशक्ति और स्वामभिमान की शिक्षा दी। उन्होंने नवयुवकों को विदेशी सत्ता का विरोध करने के लिए नवीन उत्साह प्रदान किया। जवाहरलाल नेहरू ने विवेकानन्द के विषय में लिखा है, विवेकानन्द का व्यक्तित्व निराश एवं निरूत्साहित हिन्दू जाति के लिए एक स्फूर्तिवर्द्धक औषधि सिद्ध हुआ। उन्होंने हिन्दू जाति को स्वावलम्बन का सबक दिया एवं इतिहास से प्रेम करने का पाठ पढ़ाया। 4 जुलाई, 1902 ई. को 39 वर्ष की अल्पायु में विवेकानन्द की मृत्यु हो गई।

स्वामी विवेकानन्द के आदर्श
मानव सेवा सम्बन्धी विचार- विवेकानन्द का प्रथम आदर्श मानव सेवा का था। उन्होंने भारतीयांें को मानव सेवा की प्रेरणा दी तथा उसे ही ईश्वर की सच्ची उपासना बताया। उन्होंने यूरोप व अमेरिका के लोगों को संयम की शिक्षा दी। उन्होंने कहा कि, जब पड़ौसी भूखा मरता हो, तो मन्दिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो, तब हवन में धृत मिलाना अमानुषिक कर्म है। उन्होंने गरीबों तथा दुःखियों के लिए दरिद्रनारायण शब्द का प्रयोग करते हुए कहा कि इनकी सेवा करना ही ईश्वर की सच्चा उपासना है। उनका मानना था कि ईश्वर सभी मनुष्यों में निवास करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों के सम्बन्ध में उन्होंने अपने एक साथी को लिखा था, निर्धन, नासमझ, अशिक्षित और असहाय को अपना ईश्वर बनाओ। उनकी सेवा करना ही महानतम् धर्म है। नारियों के सम्बन्ध में उन्होंने भारतवासियों से कहा, यदि तुमने नारियों को ऊपर नहीं उठाया तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई मरा ्‌ग है। संसार की सभी जातियाँ नारियों को सम्मान करके ही महान् हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी। वे आजीवन दरिद्रों तथा मानव मात्र की सेवा में लगे रहे। एक बार उन्होंने कहा था, जब तक कि करोड़ों व्यक्ति मूखे और अज्ञान में रहते हैं, तब तक मैं हर व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्चे पर शिक्षा प्राप्त करता है और उनकी बिल्कुल परवाह नहीं करता।

धार्मिक विचार
विवेकानन्द का सभी धर्मो की एकता में विश्वास था। उनका मानना था कि सभी धर्मो का मूल एक जैसा है, केवल बाहरी साधनों में कुछ अन्तर है। धर्म की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था, धर्म मनुष्य के भीतर निहित देव तत्त्व का विकास है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धान्तों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है। विश्व में अनेक धर्मों के अस्तित्व के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, मनुष्य सर्वत्र अन्न खाता है, किन्तु अन्न से भोजन तैयार करने की विधियाँ संसार में अलग-अलग है। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है, किन्तु अलग-अलग देशों में इसके स्वरूप अलग-अलग हैं, जबकिं सभी धर्मों के लक्ष्यों में एकता है। विवेकानन्द ने कहा, हिन्दू संस्कृति विश्व की प्राचीन और महान् संस्कृतियों में एक है, जो सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् पर आधारित है। हिन्दू राष्ट्र संसार का शिक्षक रहा है। और भविष्य में भी रहेगा। इसलिए प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह अपने धर्म तथा संस्कृति की रक्षा करे।
विवेकानन्द की मान्यता थी कि भारत की आध्यात्मिक विचारधारा तथा पश्चिमी देशों की भौतिकवादी विचारधारा में समन्वय करने से ही भारतीयों को वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है एवं उनकी उन्नति हो सकती है।

राष्ट्रीयता का प्रसार
विवेकानन्द
ने राष्ट्रीयता का भी प्रसार किया। उन्होंने यूरोप तथा अमेरिका में भारतीय संस्कृति तथा हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता स्थापित कर दी एवं भारतीयों में उनके धर्म व संस्कृति के प्रति गौरव की भावना उत्पन्न कर दी। उन्होंने भारतीयों से कहा, अब हमें दासता से मुक्त होकर खुद अपना मालिक बनना है। इस प्रकार उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक स्वाधीनता की प्रेरणा जाग्रत की। स्वामी विवेकानन्द ने यह जयघोष किया, लम्बी से लम्बी रात्रि अब समाप्त हो जान पड़ती है।

हमारी यह मातृभूमि अब गहरी नींद से जाग रही है, कोई भी शक्ति उसे अब उन्नति से नहीं रोक सकती। संसार की कोई भी शक्ति उसे अब पीछे नहीं धकेल सकती, क्योंकि वह अनन्त शक्तिशाली देवी अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था, स्वामी विवेकानन्द का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देना वाला धर्म था। एस.एन. नटराजन ने लिखा है, विवेकानन्द ने अपना जीवन भारत के करोड़ों पीड़ित लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। वह राष्ट्र का पुननिर्माण करना चाहते थे। श्री दिनकर ने लिखा है, स्वामी विवेकानन्द ने अपनी वाणी तथा कर्म से भारतवासियों में यह अभिमान जगाया कि हम अत्यन्त प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे धार्मिक ग्रन्थ सबसे उन्नत तथा इतिहास सबसे प्राचीन है, महान् है। हमारा धर्म ऐसा है कि विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है और विश्व के सभी धर्मों का सार होते हुए भी उन सबसे कुछ अधिक है। स्वामी जी के प्रचार से हिन्दुओं में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि उन्हें किसी के भी सामने सर झुकाने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उतपन्न हुऊ, राजनैतिक राष्ट्रीयता बाद में जन्मी। इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता विवेकानन्द थे। हिन्दू सभ्यता सदैव विवेकानन्द की ऋणी रहेगी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है, यदि को ी भारत को समझना चाहता है, तो उसे विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए। अरविन्द ने लिखा है, पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली, वह इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को नहीं जागा है, वरन् वह विश्व विजय करके दम लेगा। पण्डित नेहरू ने लिखा है, एक बार इस हिन्दू सन्यासी को देख लेने के पश्चात् उसे और उसके संदेश को भूला देना मुश्किल है।
अन्य सुधार आन्दोलन
इसके अतिरिक्त श्री शिव दयाल ने 1861 ई. में आगरा में राधा स्वामी सत्संग की नींव रखी। छठे गुरू के समय दयालबाग आगरा की नींव रखी गई, जिसमें सभी धर्मों को माना जाता है।
पण्डित शिवनारायण अग्निहोत्री ने देव समाज आन्दोलन की स्थापना की, जिसका परमात्मा के स्थान पर प्रकृति में विश्वास था। फीरोजपुर में देव समार्ज गर्ल्स कॉलेज ने स्त्री शिक्षा की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य था। महादेव गोविन्द रानाडे ने शिक्षा के विकास हेतु दक्षिण शिक्षा समाज की संस्था की स्थापना की।
मुस्लिम सुधार आन्दोलन
मुस्लिम धर्म में अनेक आडम्बर तथा रूढ़ियाँ प्रवेश कर चुकी थीं। अतः सर्वप्रथम इस दिशा में आन्दोलन सैयद अहमद बरेवली ने किया। यह आन्दोलन वहाबी आन्दोलन कहलाया। उन्होंने एक अल्लाह की पूजा पर बल देते हुए मुसलमानों की उन्नति का प्रयास किया, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस आन्दोलन को कुचल दिया।
दूसरा आन्दोलन सर सैयद अहमद खाँ (1817-1888 ई.) ने चलाया, जो अलीगढ आन्दोलन कहलाया है। वे पाश्चात्य शिक्षा द्वारा मुसलमानों का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अलीगढ़ में ऐंग्लो मोहम्मडन कॉलेज की स्थापना की, जो आगे चलकर अलीगढ़ विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात हुआ। उन्होंने मुस्लिम समाज में पर्दा तथा अन्य बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने मुसलमान जाति को राजभक्त बना दिया तथा उसे राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक् करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार यह आन्दोलन राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक था।

सुधारवादी आन्दोलनों का राष्ट्रीय आन्दोलनों पर प्रभाव-
इन सुधारवादी आन्दोलनों ने भारतीय समाज के पतन को रोक कर उसकी मानसिक तथा आध्यात्मिक दुर्बलता को दूर कर दिया एवं भारतीयों में एक नई चेतना का संचार किया। इन्होंने भारतीयों को किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसना सिखाया एवं समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों को दूर किया। इन्होंने भारतीय के सम्मुख उनकी प्राचीन गौरवपूर्ण संस्कृति का चित्र प्रस्तुत किया, जिससे उनमें आत्म-सम्मान की नई भावना जाग्रत हुई। इन आन्दोलनों ने एक ऐसी पृष्ठभूमि तैयार कर दी, जिस पर चलकर भारत में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ एवं स्वतन्त्रता प्राप्त कर सका। इन आन्दोलनों ने धर्म तथा समाज में एकता उत्पन्न की।
राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा स्वामी विवेकानन्द आदि सुधारक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत थे तथा उनका मानना था कि स्वतन्त्रता से श्रेष्ठ कुछ नहीं होता। श्री ए.आर. देसाई ने लिखा है, सामाजिक क्षेत्र में जाति प्रथा के सुधार और उसके उन्मूलन, स्त्रियों के लिए समान अधिकार, बाल विवाह के विरूद्ध आन्दोलन, सामाजिक और वैधानिक असमानताओं के विरूद्ध जेहाद किया गया। धार्मिक क्षेत्र में धार्मिक अन्धविश्वासों, मूर्तिपूजा तथा पाखण्डों का खण्डन किया गया। ये आन्दोलन कम अधिक मात्र में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष थे तथा इनका चरम लक्ष्य राष्ट्रवाद था। इन्होंने भारतीयों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। डॉ. जकारिया ने लिखा है, भारत की पुनर्जाग्रति मुख्यतः आध्यात्मिक थी तथा एक राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण करने के पूर्व अनेक धार्मिक तथा सामाजिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया।

 

2. भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के कारण
1857 ई. की क्रान्ति का दमन करने के पश्चात् भारत में कम्पनी के शासन की समाप्ति हुई और ब्रिटिश सरकार ने सुधारों के लिए अनेक कदम उठाकर भारतीय जनता को सन्तुष्ट करने का हर सम्भव प्रयास किया। यह सत्य है कि क्रान्ति की असफलता से राष्ट्रवादी तत्त्वों को गहरा आघात पहुँचा था, फिर भी राष्ट्रीयता की भावना समाप्त नहीं हो पाई और नए परिवेश में निरन्तर विकसित होती जा रही ही थी। इसके अतिरिक्त, वह अभिव्यक्ति का नया साधन तलाश कर रही थी। अन्ततः 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने वह साधन उपलब्ध करा दिया, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलना का जन्म हुआ।
राष्ट्रीय आन्दोलन का जन्म तथा विकास आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण तथा मनोरंजक घटना मानी जाती है। इस आन्दोलन का नेतृत्व क्रांग्रेस ने किया था। इसलिए पट्टाभि सीताभैया का मानना है कि, कांग्रेस का इतिहास ही भारतीय स्वतन्त्रता के संघर्ष का इतिहास है। परन्तु डॉ. आर.सी. मजूमदार इस कथन को ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं मानते हैं, क्योंकि, कांग्रेस की स्थापना के पूर्व और पश्चात् दूसरी अनेक शक्तियों के द्वारा भी इस उद्देश्य से कार्य किया गया था, लेकिन कांग्रेस ने भारतीय स्वतन्त्रता के संघर्ष में सदैव ही केन्द्र का कार्य किया। यह वह धुरी थी, जिसके चारों ओर स्वतन्त्रता की महान गाथा की विविध घटनाएँ घटित हुई।भारतीय जनता ने ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष था, इसलिए देश में राजनीतिक आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। इस आन्दोलन का नेतृत्व राष्ट्रीय कांग्रेस ने किया।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के जन्म तथा विकास के कारण-
भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के जन्म तथा विकास के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे :
1857 ई. का स्वतन्त्रता संग्राम-
1857 ई. का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह से कही अधिक था। यह भारत में इतनी तीव्रगति से फैला कि उसने जन विद्रोह तथा भारतीय स्वतन्त्रता के युद्ध का रूप धारण कर लिया। कुछ कारणों से यह क्रान्ति असफल रही। ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को कुचलने के बाद जिस प्रकार से अमानवीय अत्याचार यहाँ किए, उससे जनता के असंतोष में बहुत अधिक वृद्धि हुई। ब्रिटिश सरकार की अमानुषिक कार्यवाही का वर्णन करते हुए सर चार्ल्स डिल्के ने लिखा है कि, अंग्रेजों ने अपने कैदियों की बिना न्यायिक कार्यवाही के और ऐसे ढंग से हत्या कर दी, वे सभी भारतीयों की दृष्टि में पाशविकता की चरम सीमा थी।...दमन के दौरान गाँव के गाँव जला दिए गए। निर्दोष ग्रामिणों का वह कत्लेआम किया गया कि मुहम्मद तुगलक भी शरमा जाएगा। अंग्रेजो की इस बदले की भावना ने भारतीयों के असंतोष में और वृद्धि की, जैसे-जैसे अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ते गए, वैसे-वैसे भारतीयों में अंग्रेजों के शासन को जडमूल से नष्ट करने की भावना बढ़ती गई। 1857 ई. की क्रान्ति ने अंग्रेजों में भारतीयों के प्रति और भारतीयों को अंग्रेजों के प्रति घृणा की भावना को बहुत अधिक बढ़ा दिया। एडवर्ड थाम्पसन के अनुसार, विद्रोह के बाद भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति भयंकर घृणा की भावना आ गई थी और भारतीयों में विद्रोह का विचार आते ही अंग्रेजों से बदला लेने की भावना बढ़ती ही जाती थी।

धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन- 19वीं शताब्दी में धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुए। उन्होंने एक ओर, धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया, तो दूसरी ओर भारत में राष्ट्रीयता की भाव भूमि तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. रघुवंशी एवं लाल बहादुर ने इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय विकास एवं भारतीय संविधान में लिखा है कि, यह भारतीय नवजागरण का काल था। राजा राममोहन राय इस नवयुग के प्रतीक थे। इनके बाद भारतीय शिक्षित वर्ग में अंग्रेजी साहित्य और विचारधारा का प्रचार एवं प्रसार बढ़ा। अंग्रेजी विद्वानों ने भारतीय साहित्य और संस्कृति की खोज करके भारतीय विद्वानों में उनकी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्रति अनुराग एवं अध्ययन की लग्न पैदा की। परिणामस्वरूप देश में नई जाग्रति की लहर आई और प्रगतिवादी विचारों को प्रेरणा मिली। धार्मिक सुधार आन्दोलन ने भी राष्ट्रीय आत्म-सम्मान व देशभक्ति की भावनाएं उत्पन्न की, जिसका प्रगट रूप हमें राजैनतिक आन्दोलन में दिखाई पड़ता है। विदेशी शासन और विदेशी सभ्यता के प्रगतिशील तत्त्वों ने देश में नई राष्ट्रीय चेतना और स्वाधीनता, दमन और शोषण नीतियों ने हमारी इस चेतना को उस दिशा की ओर मोड़ा, जिसका लक्ष्य अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय आन्दोलन था। डॉ. जकारिया ने इस सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है कि, भारत की पुर्नजागृति मुख्यतया आध्यात्मिक थी तथा एक राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण करने के पूर्व इसने अनेक सामाजिकऔर धार्मिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया। इस प्रकार के आन्दोलनों में ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसके प्रवर्तक क्रमश राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द एवं श्रीमती एनीबेसेन्ट आदि थे। इन सुधारकों ने भारतीयों में आत्म विश्वास जागृत किया तथा उन्हें भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा का ज्ञान कराया, जिससे उन्हें संस्कृति की श्रेष्ठता के बारे में पता चला।
ब्रह्म समाज- इन महान् व्यक्तियों में राजा राममोहनराय को भारतीय राष्ट्रीयता का अग्रदूत कहा जा सकता है, जिन्होंने समाज तथा धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु अगस्त 1828 ई. में ब्रह्म समाज की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा, छुआ-छुत, जाति-भेदभाव एवं मूर्तिपूजा आदि बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उनके प्रयासों के कारण आधुनिक भारत का निर्माण सम्भव हो सका। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि राजाराममोहन राय को बेकन तता मार्टि लूथर जैसे प्रसिद्ध सुधारों की श्रेणी में गिना जा सकता है। एस.सी. सरकार तथा के.के. दत्त का मानना है कि राजा राममोहनराय ने आधुनिक भारतवर्ष में राजनीतिक जागृति एवं धर्म सुधारक का आध्यात्मिक युग प्रारम्भ किया। वे एक युग के प्रवर्तक थे। इसलिए डॉ. जकारिय ने उन्हें सुधारकों का आध्यात्मिक पिका कहा है। बहुत से विद्वान उन्हें आधुनिक भारत का पिता तथा नए युग का अग्रदूत मानते हैं।

राजा राममोहनराय ने भारतीयों के लिए राजनीतिक आधिकारों की माँग की। 1823 ई. में प्रेस ऑडिनेन्स के द्वारा समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इस पर राजा राममोहन राय ने इस ऑडिनेन्स का प्रबल विरोध किया और इसको रद्द करवाने का हरसम्भव प्रयास किया। इसके पश्चात् उन्होंने ज्यूरी एक्ट के विरूद्ध एक आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। डॉ. आर.सी. मजूमदार के शब्दों में, राजा राममोहनराय पहले भारतीय थे, जिन्होंने अपने देशवासियों की कठिनाई तथा शिकायतों को ब्रिटिश सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया और भारतीयों को संगठित होकर राजनीतिक आन्दोलन चलाने का मार्ग दिखलाया। उन्हें आधुनिक आन्दोलन का अग्रदूत होने का श्रेय दिया जा सकता है।
आर्य समाज- राजा राममोहनराय के बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती एकस महान सुधारक हुए, जिन्होंने 1875 ई. में बम्बई में आर्य समाज लकी स्थापना की। आर्य समाज एक साथ ही धार्मिक और राष्ट्रीय नवजागरण का आन्दोलन था। इसने भारत और हिन्दू जाति को नवजीवन प्रदान किया। स्वामी दयानन्द ने न केवल हिन्दू धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराइयों का विरोध किया, अपितु अपने देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार भी किया। उन्होंने इसाई धर्म की कमियों पर प्रकाश डाला और हिन्दुत्व के महत्त्व का बखान कर भारतीयों का ध्यान अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की ओर आकर्षित किया। उन्होंने वैदिक धर्म की श्रेष्ठता को फिर से स्थापित किया और यह बताया कि हमारी संस्कृति विश्व की प्राचीन और महत्त्वपूर्ण संस्कृति है। उनका मानना था कि वेद ज्ञान के भण्डार हैं और संसार में सच्चा हिन्दू धर्म है, जिसके बल पर भारत विश्व में अपनी प्रतिष्ठा फिर से स्थापित कर गुरू बन सकता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में निर्भींकता पूर्वक लिखा है, विदेशी राज्य चाहे वह कितनी ही अच्छा क्यों न हो, स्वदेशी राज्य की तुलना में कभी अच्छा नहीं हो सकता। एच.बी. शारदा ने लिखा है कि, राजनीतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति स्वामी दयानन्द का मुख्य उद्देश्य था। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया और अपने देशवासियों को विदेशी माल के प्रयोग के स्थान पर स्वेदशी माल के प्रयोग की प्रेरणा दी। उन्होंने सबसे पहले हिन्दी को राष्ट्रीय बाषा स्वीकार किया। श्रीमती ऐनीबेसेण्ट ने लिखा है, स्वामी दयानन्द सरस्वती पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सबसे पहले यह नारा लगाया था कि भारत भारतीयों के लिए है।
ग्रिफिथ्स के शब्दों में, हिन्दुत्व पर पाश्चात्य विचारधारा के प्रभाव के परिणामस्वरूप भारत में दो प्रमुख विचारधाराओं की उत्पत्ति हुई, जिनके संयोग से कालान्तर में भारतीय राष्ट्रवाद रूपी विचारधारा स्थापित हुई। ब्रह्म समाज ने बहुत से भारतीय नेताओं को प्रजातन्त्र एवं स्वतन्त्रता के नए विचार ग्रहण करने के सिखाए तथा आर्य समाज एवं सत्य धर्मावलम्बी हिन्दुओं के पुनरूद्धार से उनमें शौर्य का संचार हुआ। वास्तव में इससे हिन्दू भारत में प्रथम बार वास्तविक एकता स्थापित हुई तथा जागरूक एवं वीरतापूर्ण राष्ट्रीयता की भावना का निर्माण हुआ।

रामकृष्ण मिशन- स्वामी विवेकानन्द ने यूरोप और अमेरिका में भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। उन्होंने अंग्रेजों को यह बता दिया कि भारतीय संस्कृति पश्चिमी संस्कृति से महान् है और वे बहुत कुछ भारतीय संस्कृति से सीख सकते है। इस प्रकार, उन्होंने भारत में सांस्कृतिक चेतना जागृत की तथा यहाँ के लोगों को सांस्कृतिक विजय प्राप्त करने की प्रेरणा दी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारत का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। इस प्रकार, उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक स्वाधीनता का समर्थन किया, जिससे राष्ट्रीय भावनाओं को असाधारण बल मिला। निवेदिता के अनुसार, स्वामी विवेकानन्द भारत का नाम लेकर जीते थे। वे मातृभूमि के अनन्य भक्त थे और उन्होंने भारतीय युवकों को उसकी पूजा करना सिखाया।
थियोसोफिकल सोसाइटी सोसायटी की नेता श्रीमती एनीबेसण्ट ने भी भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। श्रीमती एनीबेसेण्ट एक विदेशी महिला थीं, जब उसके मुँह से भारतीयों ने हिन्दू धर्म की प्रशंसा सुनी, तो वे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके, जब उन्हें अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ, तो उन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध स्वाधीनता की प्राप्ति हेतु आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया।

श्रीमती एनीबेसण्ट ने हिन्दुओ को बताया कि, तुम्हारे पास सर्वोत्कृष्ट ज्ञान की कुँजी है और तुम्हारे देवी-देवता, दर्शन एवं चरित्र के स्तर को पहुँचने में पश्चिम को अभी बहुत समय लगेगा। के.सी. व्यास ने लिखा है थियोसोफिकल सोसाइटी की गतिविधियों से भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को पर्याप्त प्रेरणा मिली। एनीबेसेण्ट ने इस सम्बन्ध में लिखा है, इस आन्दोनल में एनीबेसण्ट ने जितना संगठन एवं पुष्टीकरण सम्बन्धी कार्य किया है, उतना किसी हिन्दू ने नहीं किया होगा।सारांश यह है कि 19वीं शताब्दी के सुधारकों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न की। उन्होंने ऐसा वातावरण तैयार किया,जिसके कारण भारत स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त कर सका।
जी.एन. सिंह के अनुसार, राष्ट्रीय आन्दोलन के पूर्वगामी एवं प्रेरक धार्मिक सुधार आन्दोलन मुख्यतः धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन के साथ ही राष्ट्रीय भी थे। इन्होंने भारतवासियों को अपने महान् उत्तराधिकार के प्रति सचेत किया और उनमें राष्ट्रीय भावना जागृत की। माइकल एर्डवर्डस ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में धर्म के योगदान का वर्णन करते हुए लिखा है, धार्मिक राष्ट्रीय का बड़ा ही व्यापाक प्रभाव पड़ा। इसने ब्राह्मणों को, जो हिन्दू समाज में सर्वोच्च वर्ण के थे तथा उसके स्वाभाविक नेता थे, उत्तेजित किया क्योंकि ब्रिटिश शासन में उनके परम्परागत अधिकारों को चुनौती दी गई थी, इसने मध्य श्रेणी के लोगों को भी अपने बेकारी के असंतोष के प्रकट करने का तथा अपने समाज में पुनः आकर सक्रिय कार्य करने का अवसर प्रदान किया, जिससे वे अलग हो गए थे। इसने कृषकों को भी राष्ट्रीय आन्दोलन में कूदने के लिए उत्प्रेरित किया और इसने नवयुवकों को भाषण से हटाकर व्यावहारिता की ओर अग्रसर किया। ए.आर.देसाई ने इस सम्बन्ध में लिखा है, ये आन्दोलन कम अधिक मात्रा में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष थे और इनका लक्ष्य राष्ट्रवाद था।

भारतकीराजनीतिकएकताः- 1707 ई. के बाद भारत में राजनीतिक एकता का लोप हो चुका था, किन्तु अंग्रेजों के समय लगभग सम्पूर्ण भारत में प्रशासन एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत आ गया था। समस्त साम्राज्य में एक जैसे कानून एवं नियम लागू किए गए। सम्पूर्ण भारत में ब्रिटिश सरकार का शासन होने से भारत एकता के सूत्र में बंध गया। इस प्रकार, देश में राजनीतिक एकता स्थापित हुई। यातायात के साधनों तथा अंग्रेजी शिक्षा ने इस एकता की नींव को और अधिक ठोस बना दिया, जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। इस प्रकार, राजनीतिक दृष्टि से भारत का एकरूप हो गया। भारतीय लेखक पुन्निया के शब्दों मे, हिमालय से कुमारी अन्तरीप तक सम्पूर्ण भारत एक सरकार के अधीन आ गया और इसने जनता में राजनीतिक एकता की भावना को जन्म दिया।
नेहरू के शब्दों में, ब्रिटिश सासन द्वारा स्थापित भारत की राजनीतिक एकता सामान्य अधीनता की एकता थी, लेकिन उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को नज्म दिया।
प्रो. मून ने ठीक ही लिखा है, ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने कई अनेकताओं के बावजूद भारत को एक तीसरे दल के अधीन राजनैतिक एकता प्रदान की।
ऐतिहासिकअनुसंधान-विदेशी विद्वानों की ऐतिहासिक खोजों ने भी भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया। सर विलियम जोन्स, मैक्समूलर जैकोबी, कोल ब्रुक, रौथ, ए.बी. कीथ, बुर्नफ आदि विदेशी विद्वानों ने भारत के संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध ऐतिहासाकि ग्रन्थों का अध्ययन किया ओर उनका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। अंग्रेजों द्वारा संस्कृत साहित्य को प्रोत्साहन देने से संस्कृत भाषा का पुनर्द्धार हुआ। इसके अतिरिक्त, पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय ग्रन्थों का अनुवाद करने के पश्चात् यह बताया कि ये ग्रन्थ संसार की सभ्यता की अमूल्य निधियाँ हैं। पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन कलाकृतियों की खोज करने के पश्चात् यह मत व्यक्ति किया कि भारत की सभ्यता और संस्कृति विश्व की प्राचीन और श्रेष्ठ संस्कृति है। इससे विश्व के समक्ष प्राचीन भारतीय गौरव उपस्थित हुआ। जब भारतीयों को यह पता लगा कि पश्चिम के विद्वान भारतीय संस्कृति को इतना श्रेष्ठ बताते हैं, तो उनके मन में आत्महीनता के स्थान पर आत्मविश्वास की भावनाएँ जागृत हुई तथा उन्होंने उसकी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न किया। राजा राममोहनराय, स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा स्वामी विवेकानन्द ने भी भारतीयों को उनकी संस्कृति की महानता के ज्ञान से अवगत कराया।

इन अनुसंधानों ने भारतीयों के मन में एक नया उत्साह और आत्मविश्वास जागृत किया। इससे उनके मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि फिर हम पराधीन क्यों है? डॉ.आर.सी. मजूमदार के अनुसरा, यह खोज भारतीयों के हृदय में चेतना की भावना व देशभक्ति से भर गये। श्री के.एम. पन्निकर लिखते हैं कि इन ऐतिहासिक अनुसन्धानों ने भारतीयों में आत्मविश्वास जागृत किया और उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखलाया। इन खोजों से अपने भविष्य के सम्बन्ध में भारतीय आशावादी बन गए।

पश्चिमीशिक्षाकाप्रभाव-भारतीय राष्ट्रीय धारा में पश्चिमी शिक्षा के सराहनीय योग दिया। 1835 ई. में लार्ड मैकाले के सुझाव पर भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को निश्चित कर दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य भारत की राष्ट्रीय चेतना को जड़मूल से नष्ट करना था।
मैकाल ने कहा था, भारतीयों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया जाए, जो अपने वंश रंग की दृष्टि से तो भारतीय हो, पर रूचि विचारों, आदर्शों एवं समझ-बूझ में पूर्णतः अंग्रेज हो। एलफिन्स्टन ने लिखा है, अन्य अंग्रेज भी यह समझते थे कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भारतीय जनता सहर्ष अंग्रेजी राज्य स्वीकार कर लेगी। दत्त ने सही लिखा है कि, भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा पाश्चात्य शिक्षा प्रारम्भ किए जाने का उद्देश्य यह था कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्णरूप से लोप हो जाए ौर एक ऐसे वर्ग का निर्माण हो, जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हो, किन्तु रूचि, विचार, शब्द और बुद्धि से अंग्रेज हो जाए। इस उद्देश्य में अंग्रेजों का काफी सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई, क्योंकि कुछ शिक्षित भारतीय लोग अपनी संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का गुणगान करने लगे, परन्तु पाश्चात्य शिक्षा के भारत को हानी के अपेक्षा लाभ अधिक हुआ। इससे भारत में राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई। अतः इस दृष्टि से पाश्चात्य शिक्षा भारत के लिए एक वरदान सिद्ध हुई।
अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण भारतीय विद्वानों ने पश्चिमी देशों के साहित्य का अध्ययन किया। जब उन्हें मिल्टन, बर्क, हरबर्ट स्पेन्सर, जान स्टुअर्ट मिल आदि विचारकों की कृतियों का ज्ञान प्राप्त हुआ, तो उनमें स्वतन्त्रता की भावना जागृत हुई।
मेक्डॉनल्ड के अनुसार, स्पेन्सर का व्यक्तिवाद तथा मार्ले का उदारवाद वह शस्त्र है, जिन्हें भारत ने हमसे छीनकर हमारे ही विरूद्ध प्रयुक्त करना शुरू कर दिया।
डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, पश्चिम के राजनीतिशास्त्र विशेषज्ञ लॉक, स्पेन्सर, मैकाले, मिल औ बर्क के लेखों ने केवल भारतीयों के विचारों को ही प्रभावित नहीं किया, अपितु राष्ट्रीय आन्दोलन की रूपरेखा और संचालन पर गहरा प्रभाव डाला।

भारतीयों पर पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव का वर्णन करते हुए ए.आर. देसाई लिखते हैं कि, शिक्षित भारतीयों ने अमेरिका, इटली और आयरलैण्ड के स्वतन्त्रता संग्रामों के सम्बन्ध में पढ़ा। उन्होंने ऐसे लेखकों की रचनाओं का अनुशीलन किया, जिन्होंने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीता के सिद्धान्तों का प्रचार किया है, ये शिक्षित भारतीय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के रानजीति और बौद्धिक नेता हो गए।
रवीन्द्रनाथ टैगोरने लिखा है, हमको इंग्लैण्ड का परिचय उसके गौरवमय इतिहास से मिला, जिसने हमारे नवयुवकों में एक नवीन स्फूर्ति तथा प्रेरणा को उत्पन्न किया। अंग्रेज लेखकों की रचनाएँ मानव प्रेम, स्वतन्त्रता तथा न्याय से परिपूर्ण थीं। इन्हें पढ़कर भारतीयों में नया उत्साह उत्पन्न हुआ।
रोनाल्ड के शब्दों में, पश्चिमी शिक्षा की नवीन शराब से भारतीय युवक झूम उठे। उन्होंने इसका पान स्वतन्त्रता तथा राष्ट्रवाद के साधनों से किया। इससे उनके विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गया।

प्रो. विजयलक्ष्मी ने लिखा है, ब्रिटिश साम्राज्यवादी तो भारतीयों को इस उद्देश्य से शिक्षा दे रहे थे कि ब्रिटिश प्रशासन और व्यापारिक फर्मों की र्क्लकों की आवश्यकता पूरी हो सके, किन्तु जब उन्हें वाल्तेयर, रूसो, मेजिनी, मिल्टन, शैली और वायरन जैसे साहित्यकारों के साथ-साथ उन लोगों केविचारों के अध्ययन का मौका मिला, जो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की निरंकुशता के विरूद्ध थे, तो उनमें राष्ट्रीयता के भाव उत्पन्न हो गए ौर उनमें साम्राज्यवादियों से लड़ने का दृढ़ संकल्प पैदा हुआ। रजनी पामदत्त ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, भारत में पाश्चात्य शिक्षा प्रारम्भ किए जाने का उद्देश्य यह था कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का पूर्णरूप से विनाश हो जाए और एक ऐसे वर्ग का अविर्भाव हो सके, जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हो,

किन्तु जो विचार और बुद्धि से अंग्रेज हो। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि राजा राममोहनराय, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, वोमेशचन्द्र बनर्जी आदि नेता अंग्रेजी शिक्षा की ही देन थे। अंग्रेजी शिक्षा के कारण भारतीय नेताओं के दृष्टिकोण का विकास हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक भारतीय इंग्लैण्ड गए और वहाँ के स्वतन्त्र वातावरण से बहुत प्रभावित हुए। भारत में आने के पश्चात् उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रोत्साहन दिया, क्योंकि वे यूरोपियन देशों की भाँति अपने देश में भी स्वतन्त्रता चाहते थे। श्री गुरूमुख निहाल सिंह लिकथे हैं कि, इंग्लैण्ड में रहने से उन्हें स्वतन्त्र राजनीतिक संस्थाओं की कार्यविधि का घनिष्ठ ज्ञान प्राप्त हो जाता था, वे स्वतन्त्रता और स्वाधीनता का मूल्य समझ जाते थे तथा उनके मन में जमी हुई दासता की मनोवृत्ति घट जाती थी।
अंग्रेजी भाषा लागू होने से पूर्व भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोली जाती थी। इसलिए वे एक-दूसरे के विचारों को नहीं समझ सकते थे। सम्पूर्ण भारत के लिए एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता थी, जिसे अंग्रेज सरकार ने अंग्रेजी भाषा को लागू कर पूरा कर दिया। अब विभिन्न प्रान्तों के निवासी आपस में विचार-विनिमय करने लगे और इसने उन्हें राष्ट्र के लिए मिलकर कार्य करने की प्रेरणा दी। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। सर हेनरी कॉटन के अनुसार, अंग्रेजी माध्यम से और पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर शिक्षा ने ही भारतीय लोगों को विभिन्नताओं के होते हुए भी एकता के सूत्र में आबद्ध करने का कार्य किया। एकता पैदा करने वाला अन्य कोई तत्त्व सम्भव नहीं था, क्योंकि बोली का भ्रम एक अविछिन्न बाधा थी। श्री के.एम. पन्निकर ने लिखते हैं कि, सारे देश की शिक्षा पद्धति और शिक्षा का णआध्य एक होने से भारतीयों की मनोदशा पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनके विचारों, भावनाओं और अनुभूतियों से एकरसता होनी कठिन न रही। परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीयता की भावना दिन-प्रतिदिन प्रबल होती गई।

सारांश यह है कि पाश्चात्य शिक्षा भारत के लिए वरदान सिद्ध हुई। डॉ. जकारियाने ठीक ही लिखा है कि, अंग्रेजों ने 125 वर्ष पूर्व भारत में शिक्षा का जो कार्य आरम्भ किया था, उससे अधिक हितकर और कोई कार्य उन्होंने भारतवर्ष में नहीं किया।
रवीन्द्रनाथ टेगोर ने लिखा है कि, अंग्रेजी लेखकों की रचनाएँ मानव प्रेम, न्याय और स्वतन्त्रता की भावनाओं से परिपूर्ण थीं। उनके अध्ययन से हमें क्रान्ति युग को बढ़ाने वाली महान साहित्यिक परम्परा का ज्ञान हुआ। वर्ड्सवर्थ की मानव स्वतन्त्रता सम्बन्धी कविताओं में हमकों इस शक्ति का आभास प्राप्त हुआ। शैली की कुछ रचनाओं ने भारतीयों की कल्पना को उत्तेजित किया। हमें विश्वास हो गया कि विदेशी सत्ता के विरूद्ध विद्रोह के लिए पश्चिम का सहयोग आवश्यक है। हमने अनुभव किया कि इंग्लैण्ड भी स्वतन्त्रता के प्रश्न पर हमारे साथ है। इसीलिए प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रीयता की भावना पश्चिमी शिक्षा का पोष्य शिशु था।
इस प्रकार, पश्चिमी शिक्षा ने भारतीय राष्ट्रीय चेतना में नवजीवन का संचार किया। लार्ड मैकाले ने 1833 ई. में कहा था कि, अंग्रेजी इतिहास में यह गर्वर् का दिन होगा, जब पाश्चात्य शिक्षा में शिक्षित होकर भारतीय पाश्चात्य संस्थाओं की माँग करेंगे। उसका वह स्वप्न इतना जल्दी साकार हो जाएगा, इसकी कल्पना भी उसने कभी न की होगी।

भारतीयसमाचार-पत्रतथासाहित्य-मुनरो ने लिखा है कि, एक स्वतन्त्र प्रेस और विदेशी राज एक-दूसरे के विरूद्ध है और ये दोनों एक साथ नहीं चल सकते। भारतीय समाचार-पत्रों पर यह बात पूरी उतरती है। राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति तथा विकास में भारतीय साहित्य तथा समाचार पत्रों का भी काफी हाथ था। इनके माध्यम से राष्ट्रवादी तत्त्वों को सतत् प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता रहा। उन दिनों भारत में विभिन्न भाषाओं में समाचार-पत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें राजनीतिक अधिकारों की माँग की जाती थी। इसके अतिरिक्त उनमें ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति की कड़ी आलोचना की जाती थीं। उस समय के प्रसिद्ध समाचार-पत्रो में संवाद कौमुदी, बाम्बे समाचार (1882), बंगदूत (1831), रास्त गुफ्तार (1851), अमृत बाजार पत्रिका (1868), ट्रिब्यून (1877), इण्डियन मिरर, हिन्दू, पैट्रियट, बंग्लौर, सोम प्रकाश, कामरेड, न्यू इण्डियन

केसरी, आर्यदर्शन एवं बन्धवा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। फिलिप्स के अनुसार, 1877 में देशी भाषाओं में बम्बई प्रेसीडेन्सी और उत्तर भारत में 62 तथा बंगाल और दक्षिण भारत में क्रमशः 28 और 20 समाचार-पत्र प्रकाशित होते थे, जिनके नियमित पाठकों की संख्या एक लाख थी। 1877 ई. तक देश में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों की संख्या 644 तक जा पहुँची थी, जिनमें अधिकतर देशीय भाषाओं के थे। इन समाचार-पत्रों में ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीति की कड़ी आलोचना की जाती थी। ताकि जनसाधारण में ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा एवं असंतोष की भावना उत्पन्न हो। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिलता था। इन समाचार-पत्रों के बढते हुए प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1878 ई. में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया, जिसके द्वारा भारतीय समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को बिल्कुल नष्ट कर दिया गया। इस एक्टने भी राष्ट्रीय आन्दोलन की लहर को तेज कर दिया।

भारतीय साहित्यकारों ने भी देश प्रेम की भावना को जागृत करने में महत्त्वपूर्ण योग दिया। श्री बंकिम चन्द्र चटर्जी ने वन्दे मातरम् के रूप में देशवासियों को राष्ट्रीय गीत दिया। इससे भारतीयों में देश प्रेम की भावना जागृत हुई। मराठी साहित्य में शिवाजी का मुगलों के विरूद्ध संघर्ष विदेशी सत्ता के विरूद्ध संघर्ष बताया गया। श्री हेमचन्द्र बन्रजी ने अपनी राष्ट्रीय गीतों द्वार स्वाधीनता की भावना को प्रोत्साहन दिया। श्री विपिनचन्द्र पाल लिखते हैं कि, राष्ट्रीय प्रेम तथा जातीय स्वाभिमान को जागृत करने में श्री हेमचन्द्र द्वारा रचित कविताएँ अन्य कवियों की एसी कविताओं से कहीं अधिक प्रभावोत्पादक थी। इसी प्रकार, केशवचन्द्र सेन, रवीन्द्रनाथ टेगोर, आर.सी.दत्त, रानाडे, दादाभाई नौरोजी आदि ने अपने विद्वता पूर्ण साहित्य के माध्यम से भारत में राष्ट्रीय भावना को जागृत किया। इन्द्र विद्या वाचस्पति के अनुसार, इसी समय माइकेल मधुसूदन दत्त ने बंगाल में, भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में, नर्मद ने गुजराती में, चिपलूणकर ने मराठी में, भारती ने तमिल में तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया। इन साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार व जागृति की अपूर्व उमंग उत्पन्न कर दी।

भारतकाआर्थिकशोषणः-मि. गैरेटने के अनुसार, राष्ट्रीयता में शिक्षित वर्ग का अनुराग हमेशा ही कुछ हद तक धार्मिक और कुछ हद तक आर्थिक कारणओं से हुआ है। भारतीय राष्ट्रीयता पर यह बात पूरी उतरती है। ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने भारतीय उद्योगों को बिल्कुल नष्ट कर दिया था। यहाँ के व्यापार पर अंग्रेजों का पूर्ण अधिकार हो गया था। भारतीय वस्तुओं पर, जो बाहर जाती थीं, भारी कर लगा दिया गया और भारत में आने वाले माल पर ब्रिटिश सरकार ने आयात कर में बहुत छुट दे दी। इसके अतिरिक्त अंग्रेज भारत में कच्चा माल ले जाते तथा इंग्लैण्ड से मशीनों द्वारा निर्मित माल भारत में भेजते थे, जो लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों के निर्मित माल से बहुत सस्ता होता था। परिणामस्वरूप भारतीय बाजार यूरोपियन माल से भर गए एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन हो जाने से करोड़ों की संख्या में लोग बेरोजगार हो गए। भारत का धन विदेशों में जा रहा था। अतः भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होता गया।
आर्थिक शोषण की नीति का भारतीय कवि भारतेन्दु हरिशचन्द्र जी ने बड़े रोचक शब्दों में वर्णन किया हैः- अंग्रेज राज सुख साज सारे महा भारी।
पै धन विदेश चलि जाए यह है दुःख भारी।।
डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, खद्दर जो ईश्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा निर्यात किया जाता था, लंकाशायर के कपड़े के आयात के साथ समाप्त होने लगा। इस प्रकार ग्रामीण दस्तकारों को मिलने वाला धन बन्द हो गया। लंकाशायर से आयात होने वाले धन का मूल्य 1803 में तीन लाख रूपए था, जो 1919 ई. तक बढ़कर 72 करोड़ रूपए तक जा पहुँचा, जिसके परिणामस्वरूप बीस लाख भारतीय जुलाहे आजीविका से वंचित हो गए तथा तीन करोड़ सूत कातने वाले बर्बाद हो गए। अन्य शिल्पाकरों की भी यही स्थिति हो गई।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है, भारत का आर्थिक ढाँचा भी 1813 के बाद ही निश्चित तौर पर उस समय टूटा, जब इंग्लैण्ड के औद्योगिक सामान ने भारतीय बाजार पर धावा बोल दिया। भारत के आर्थिक ढाँचे को टूटने का प्रभाव 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध पर क्या पड़ा, इसका विवरण मार्क्स ने ठोस तथ्यों के साथ पेश किया है। 1780 से 1850 के बीच भारत में ब्रिटेन से जो माल आया उसकी कीमत 3,86,152 पौण्ड से बढ़कर 80,24,000 पौण्ड हो गई अर्थात् ब्रिटेन द्वारा अन्य देशों के निर्यात किए गए कुछ माल का 32वां भाग पहले भारत से आता था, पर अब कुल निर्यात का आठवाँ हिस्सा भारत पहुँचने लगा। 1850 में ब्रिटेन के सूती कपड़ा उद्योग का जो माल विदेशों को निर्यात किया जाता था, उसका चौथाई हिस्सा अकेले भारत पहुँचता था। उस समय ब्रिटेन की आबादी का आठवाँ हिस्सा इस उद्योग में लगा हुआ था और इस उद्योग से ब्रिटेन की कुल राष्ट्रीय आय का बारहवाँ हिस्सा मिलता था।
कार्य मार्क्स ने लिखा है, 1818 से 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन ने भारत को धागे का जो निर्यात किया उसकी वृद्धि का अनुपात 1 और 5,200 का था। 1824 में ब्रिटेन ने भारत को मुश्किल से 60,00,000 गज मलमल भेजा था पर 1837 में इसने 6,40,00,000 गज से भी अधिक मलमल का निर्यात किया। लेकिन इसके साथ ही ढाका की आबादी 1,50,000 से घटकर 20,000 हो गई। इसका सबसे बुरा परिणाम उन नगरों का पतन था जो अपने कपड़ो के लिए सुविख्यात थे। ब्रिटश भाप और विज्ञान के समूचे हिन्दुस्तान में कृषि उद्योगो की एकता को जड़ से उखाड़ फेंका।

कार्ल मार्क्स ने आगे लिखा है कि, सूती कपड़ों के निर्माण के लिए ब्रिटेन ने जो प्रणाली संगठित की उसका भारत पर बहुत गम्भीर असर पड़ा। 1834-35 में गर्वनर जनरल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इनका दुःख-दर्द व्यापार के समूचे इतिहास में अतुलनीय है। कपड़ा बुनकरों की अस्थियों से भारत की धरती सफेद हो गई है। इसलिए 1900 ई. में सर विलियम डिग्वी ने लिखा था कि, करीब दस करड़ो मनुष्य ब्रिटिश भारत में ऐसे हैं,

जिन्हें किसी समय भी भरपेट अन्य नहीं मिलता, इस अधःपतन की दूसरी मिलास इस समय किसी सभ्य और उन्नतिशील देश में कहीं भी दिखाई नहीं दे सकती।
हण्टरने लिखा है, 1773 ई. में सचमुच करोड़ों भारतीयों को ठीक से भोजन भी नहीं मिलता था। भारतीयों की आर्थिक दशा के बार में आर्गल के ड्यूक ने जो 1875-76 तक भारत के सचिव थे, लिखा है कि, भारत की जनता में जितनी दरिद्रता है तथा उसके रहन-सहन के स्तर जिस तेजी से गिरता जा रहा है, इसका उदाहरण पश्चिमी जगत में नहीं मिलता है।
उद्योगों एवं दस्तकारी के पतन के कारण इनमें कार्यरत व्यक्ति कृषि की ओर झुके, जिससे भूमि पर दबाव बहुत अधकि बढ गया। परन्तु सरकार ने कृषि के वैज्ञानिक ढंग की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण किसानों की दशा इतनी खराब हो गई कि 75 प्रतिशत के अधिक व्यक्तियों को पेट भरकर खाना भी नसीब नहीं होता था। अचानक फूड पड़ने वाले अकालों ने उनकी स्थिति को और अधिक दयनीय बना दिया। आर्थिक असन्तोष ने राष्ट्रीय आन्दोलन की आधारभूमि के रूप में जो भूमिका निभाई वह डॉ. ताराचन्द के अनुक्रमशः तीन सोपानों मे विकसित हुईः
पहले सोपान में शिक्षित मध्य वर्ग, ब्रिटिश शासन को एक दैवी वरदान समझता था। उसकी दृष्टि में अंग्रेजो ने जो अमन-चैन और कानून का राज्य स्थापित किया था, वह ऐसा वरदान था, जो भारत के लिए एक शताब्दी से दुर्लभ था और जान-माल की रक्षा के साथ ही कल्याण और प्रगति के लिए यह अनिवार्य था। इस कारण वह वर्ग ब्रिटिश शासन का प्रशंसक था। शिक्षा और सामाजिक तथा नैतिक सुधार के लिए नई सुविधाएँ पैदा हुई, राष्ट्रीय उत्थान के लिए नया मार्ग खुल था और इस तरह यह समझ जाता था कि भगवान ने अंग्रेजो को, एक प्राचीन जाति को नवजीवन देने के लिए भारत भेजा है।
दूसरे सोपान में शान्ति और व्यवस्था को लोग साधारण बात समझने लगे। इसके अलावा विदेशी कानून पद्धति, मजिस्ट्रेटों और जजों के प्रशासन के कारण, अंग्रेजी शासन के प्रति प्रारम्भ में जो प्रशंसा का भाव था वह मद्धिम पड़ गया। अंग्रेजो की संस्कृति, विज्ञान और ब्रिटिश प्रशासन के व्यावहारिक पहलू से अब लोग उस प्रकार से आश्चर्यान्वित नहीं होते थे, जैसे कि पहले-पहले हुए थे। कई बार जब-तक किसानों का असंतोष दंगो में फूट पड़ता था और ऐसे में एलबर्ट बिल जैसे राजनीतिक विवादों में अंग्रेजी राज के प्रति भ्रम भी शुरू हो गया। पर 1885 तक आलोचना और आन्दोलन के साथ राजभक्ति भी मिली हुई थी।

तीसरे सोपान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से राजनैतिक आन्दोलन अखिल भारतीय पैमाने पर संगठित हो गया। प्रारम्भ में कांग्रेस को यह आशा बनी रही कि जनता जिन कष्टों से पड़ित है, सरकार उन्हें हटाएगी। इस आस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया। जब यह आशा चकनाचूर हो गई, तब भारत में अंग्रेज अफसरों की जगह लोगों में इंग्लैण्ड के मालिकों पर आशा उत्पन्न हुई। अब भारतीय शिष्टमण्डल इंग्लैण्ड जाने लगे और लोग ब्रिटिश नेताओ और भारत के प्रति सहानुभूति रखने वाले अंग्रेज संसद सदस्यों से जाकर मिले और उसका सहयोग माँग। इंग्लैण्ड के पत्रों पर प्रभाव डाला गया और वहाँ भारतीय दृष्टिकोण का प्रचार करने के लिए सभा-सोसाइटियों की स्थापना की गई। यह भी 1905 तक चला। भारतीय राष्ट्रीयता की आर्थिक पृष्ढभूमि के अपने सम्पूर्ण विवेचान का उपसंहार डॉ. ताराचन्द ने इस प्रकार प्रस्तुत किया हैंः
1858 से 1905 तक ब्रिटिश सम्राट के प्रत्यक्ष 50 साल के शासन के फलस्वरूप संचार और परिवहन के सधानों में विस्तार हुआ, भारत के विदेश व्यापार में बहुत वृद्धि हुई और भारतीय अर्थव्यवस्था आधुनिकरण हुआ। भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में खिंच गया और अब एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक इकाई समझा जाने लगा। इस समय आधुनिक उद्योग-धन्धों और खान उद्योग की भी नींव पड़ी। पटसन और सूत कपड़ा, कोयला, मैगझीन और अभ्रक के उद्योग भी इस दौरान काफी प्रगति करते रहे। जब कांग्रेस ने स्वदेशी आन्दोलन शुरू किया, तो टाटा कम्पनी के समाने एक आधुनिक स्पात का कारखाना शुरू करने की योजना प्रस्तुत की। इन आर्थिक परिवर्तनों के कारण व्यापारी वर्ग, जमींदारों, साहूकारों की स्थिति में काफी उन्नति हुई। दाम बढ गई और इस प्रकार मुनाफा भी बढ़ गया। नतीजा यह हुआ कि भारतीय पूँजीवाद अब यूरोपीयन ढंग का व्यापार संगठन विकसित करने लगा। जवाइण्ट स्टॉक कम्पनिनयों की संख्या और उनकी पूँजी में बहुत वृद्धि हुई।

बहुत से ऐसे घटक थे, जिनसे ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध उत्पन्न हुआ, पर आर्थिक असन्तोष और कठिनाई उनमें सबसे प्रमुख थी। भारत की ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध उत्पन्न हुआ, पर आर्थिक असन्तोष और कठिनाई उनमें सबसे प्रमुख थी। भारत की ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था ने ब्रिटिश हितों को आगे बढ़ाया, पर उसने औद्योगीकरण का गला घोटं दिया। इसी के साथ साथ पाश्चात्य शिक्षा का विस्तार, आधुनिक राजनैतिक चिन्तन का प्रभाव, आधुनिक विज्ञान और शिल्प तथा मध्यम वर्ग की वृद्धिने राजैनितक क्रान्ति के लिए आधार और साधन प्रस्तुत कर दिए। स्वतन्त्रता और समानता के विचार तथा अंग्रेज उग्रपंथियों से सीखे हुए ये विचार कि कोई भी बिना प्रतिनिधित्व के न दिया जाए, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के साथ नहीं चल सकते थे। भारतीय समाज पर ब्रिटिश प्रभाव के फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीयता का उदय हो चुका था। अब उसे जनता की गीरीब से, जिससे असन्तोष पैदा होता था और बढ़ता था, गतिशील प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।
इस गरीबी, इस कमरतोड़ कर भारत, इस भारी खर्च और धन के विदेश जाने की जड़ में एक ही तथ्य था कि भारत स्वतन्त्र और स्वशासित राष्ट्र नहीं था। 17वीं कांग्रेस के अध्यक्ष पद के भाषण देते हुए डी.एन. वाचा ने कहा, तथ्य यह है कि भारत अपनी सरकार को चुनने के लिए स्वतन्त्र नहीं है। यदि भारत इसके लिए स्वतन्त्र होता, तो क्या इसमें जरा भी सन्देह है कि पूरा प्रशासनिक तन्त्र देशी होता, जो अपना सारा धन देश में ही खर्च करता और यहीं रहता।

विलियम हण्टरने लिखा है कि, ब्रिटिश साम्राज्य में रैयत ही सबसे अधिक दयनीय है, क्योंकि उनके मालिक ही उसके प्रति अन्यायी हैं। फिशर के शब्दों में, लाखों भारतीय आधा पेट भोजन कर जीवन बसर कर रहे हैं। भारतीयों के शोषण के बारे में डी.ई.वाचा ने लिखा है कि, भारतीयों की आर्थिक स्थित ब्रिटिश शासन काल में अधिक बिगड़ी थी। चार करोड़ भारतीयों को केवल दिन में एक बार खाना खाकर संतुष्ट रहना पड़ता था। इसका एक मात्र कारण वह था कि इंग्लैण्ड भूखे किसानों से भी कर प्राप्त करता था तथा वहाँ पर अपना माल भेजकर लाभ कमाता था। डब्ल्यू टी. थार्नटन ने 1880 में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, भारतीय लोग इंग्लैण्ड को, जो वार्षिक कर देते है, उसके कारण भारत का अपना सारा रूधिर चुस गया है तथा उसकी औद्योगिक स्थिति के मुख्य स्रोत सूख चूके हैं।
सारांश यह है कि अग्रेजों के आर्थिक शोषण के विरूद्ध भारतीय जनता में असंतोष था। वह इस शोषण से मुक्त होना चाहती थी। इसलिए भारतीयों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने प्रारम्भ कर दिया। गुरूमुख निहालसिंह के शब्दों में, इस तथ्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि बिगड़ती आर्थिक दशा तथा सरकार की राष्ट्र विरोधी आर्थिक नीति का अंग्रेज विरोधी विचारधारा तथा राष्ट्रीय चेतना को जगाने में काफी हाथ था।

गैरेंट ने भी इस मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि, सरकार की राष्ट्र विरोधी आर्थिक नीति तथा भारतीयों को बड़े-बड़े पदों से वंचित रखने की नीति ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध भारतीयों की भावनाओं को भड़काया और राष्ट्रवाद को जन्म दिया। संक्षेप में भारतीयों ने इस सत्य को समझ लिया था कि उनकी इन हीन स्थिति का दोष विदेशी शासन पर है और उसका अन्त करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
जाति-विभेदनीति-1857 ई. के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासकों ने जातिविभेद की नीति अपनाई। इस नीति के अनुसार वे भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। गुरूमुख निहाल सिंह के अनुसार, विद्रोह के बाद भारत में आने वाले अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारतीयों के बारे में विचित्र धारणाएँ होती थीं। वे मंच के तत्कालीन हास्य चित्रों के अनुसार भारतीयों को ऐसा जन्तु समझते थे, जो आधा वनमानुष और आधा नीग्रो था, जिसे केवल भय द्वारा ही समझाया जा सकता था और जिसके लिए जनरल नील तथा उनके साथियों का धृणा और आतंक का व्यवहार ही उपयुक्त है। 1857 ई. के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों से सम्पर्क कम कर दिया। उनके निवास स्थान भारतीयों के निवास स्थान से बिल्कुल अलग थे। वे भारतीयों को काले लोग समझकर उनसे धृणा करते थे। होटल, क्लब, पार्क आदि स्थानों पर अंग्रेज भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। अंग्रेज अधिकारी भारतीयों के साथ रेलगाड़ी में बैठना तक पसन्द नहीं करते थे। इस कारण, अंग्रेजों ने रंग भेद नीति के आधार पर भारतीयों पर अनेक अत्याचार किए। गैंरेट ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, यूरोपियनों की जाति-विभेद नीति तीन महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों पर आधारित थी। प्रथम, एक यूरोपियन का जीवन अनेक भारतीयों के बराबर है, द्वितीय, भारतीय केवल भय एवं दंड की बाषा को ही समझ सकते है एवं तृतीय, यूरोपियन भारत में लोकहित के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ की सिद्धि हेतु आए थे।
न्याय के मामलों भी जाति-विभेद को स्थान दिया जाता था। एक ही अपराध के लिए भारतीयों व अंग्रेजों के लिए अलग-अलग दण्ड निर्धारित थे। अंग्रेजों ने अनेक भारतीयों की हत्याएँ कर डालीं, किन्तु उन्हें कोई दण्ड नहीं दिया गया। इस सम्बन्ध में मॉरिसन ने लिखा है कि, यह एक महासत्य है, जिसे छिपाया नहीं जा सकता कि अंग्रेजों द्वारा भारतीयों की हत्या की जाने की घटना एक-दो नहीं हैं। अमृत बाजार पत्रिका के ऐक (11 अगस्त, 1882) में ऐसी तीन घटनाओं का जिक्र है, जिनमें हत्यारों को पूरी कानूनी सजा नहीं मिली। यूरोपियनों के मुकदमों में शहरों से जूरी बुलाए जाते हैं। उनमें विजेता जाति का होने का अहंकर सबसे ज्यादा है, उनकी नैतिक भावना इस बात की अनुमति नहीं देती कि एक अंग्रेज को किसी भारतीय की हत्या के अपराध में अपनी जान देनी पडे।

उदाहरणार्थ, एक बार एक अंग्रेजी सैनिक ने भारतीय रसोइए को इसलिए मार डाला क्योंकि वह उसके लिए भारतीय स्त्री नहीं ला सका। अंग्रेजों ने बिना किसी कारण के अनेक भारतीयों की हत्याएँ की, परन्तु उन्हें दण्ड नहीं दिया गया। हेनरी कॉचन ने इस विषय में लिखा है, यदि चाय के रोपक पर किसी असहाय कुली को निर्दयतापूर्वक पीटने का अभियोग चलाया जाता, तो उसका निर्णय करने के लिए चाय के रोपकों की जूरी बनाई जाती थी। यह जूरी स्वाभाविक रूप से अभियुक्त के पक्ष में होती थी। यदि किसी कारण से दोष सिद्ध हो जाता, तो अंग्रेजों का सार जनमत उस निर्णय की निन्दा करता। आंग्ल-भारतीय समाचार-पत्र इस विरोध कर प्रकट करते थे। अपराधी के लिए चन्दा एकत्रित करते थे। प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा स्मरण-पत्र तैयार किए जाते तथा उनमें अपराधी के छुटकारे के लिए निवेदन किया जाता था।
अंग्रेजो की इस जाति भेदभाव का भारतीयों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। अब उनके हृदय में ब्रिटिश शासन के प्रति विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इस तथ्य से राष्ट्रीयता की भावना का तीव्रगति से संचार हुआ। गैरेट ने सही लिखा है कि, भारतीय राष्ट्रीयता की बढ़ोतरी में उपरोक्त कटुका की भावना एक बहुत बड़ा कारण थी।
सरकारीनौकरियोंमेंभारतीयोंकेसाथपक्षपात- 1833 ई. के चार्टर अधिनयिम और 1858 ई. की महारानी विक्टोरिया की घोषणा में यह कहा गया था कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति केवल योग्यता के आधार पर ही की जाएगी। भारतीयों तथा यूरोपियों की बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरता जाएगा, लेकिन व्यवहार में इस नीति का पालन करने के स्थान पर इसे भंग ही कर दिया गया।

अंग्रेजी शिक्षा के कारण वकील, डॉक्टर और अध्यापक तथा नौकरी करने वालों का एक नया वर्ग उत्पन्न हुआ। 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार का भारतीयों पर से विश्वास समाप्त हो चुका था। अतः वह पढ़े-लिखे भारतीयों को सरकार में नौकरी नहीं देना चाहती थी, इसलिए उसमें असन्तोष बढ़ा। भारतीयों को उच्च पदों विशेषतया भारतीय नागरिक सेवा से अलग रखने के लिए विधिवत् प्रयास किया गए। इस सेवा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष धी। इसकी परीक्ष इंग्लैण्ड में अंग्रेजी भाषा में होती थी। किसी भी भारतीय द्वारा ऐसी परीक्षा को पाक करना अत्यन्त कठिन था। इसके बावजूद भी अगर कोई भारतीय सफल हो जाता था, तो उसे किसी न किसी बहाने से नौकरी में नहीं लिया जाता था। उदाहरणार्थ, 1869 ईं. में श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने आई.सी.एस. की परीक्षा पास कर ली, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने सेवा में प्रवेश करने के बाद मामूली-सी गलती पर उन्हें नौकरी से हटा दिया था। इस प्रकार, 1877 ई. में अरविन्द घोष ने इस परीक्षा को पास कर लिया, परन्तु उनकी नियुक्ति नहीं की गई, क्योंकि वे घोड़े की सवारियों में प्रवीण नहीं थे। ब्रिटिश अधिकारी भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखने के लिए नए-नए बहाने ढूढते थे।
सन् 1877 ई. में आई.सी.एस. के प्रवेश की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी गई, ताकि भारतीय इस प्रतियोगिता में भाग न ले सके। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने ब्रिटिश अन्याय का विरोध करने के लिए 1876 में इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना की, जिसे कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्था कहा जा सकता है। बनर्जी ने इस कार्य का विरोध करने के लिए एवं राष्ट्रीय जनमत को जागृत करने हेतु सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया। इससे अंग्रेज विरोधी आन्दोलन को प्रोत्साहन मिला। श्री बनर्जी ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि, मेरे मामले में भारतीयों के हृदय में भारी क्षोभ उत्पन्न कर दिया, उनमें यह विचार फैल गया कि यदि मैं भारतयी न होता, तो मुझे इतनी कठिनाइयाँ नहीं उठानी पड़तीं।

यातायाततथासंचारकेसाधनोंकाविकास-यातायात तथा संचार के साधनों के विकास में भी राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रिटिश सरकार ने देश में रेलों तथा सड़कों का जाल बिछा दिया। डाक, तार, टेलिफोन आदि की भी व्यवस्था हुई। इसके पीछे अंग्रेज सरकार का मुख्य उद्देश्य यह था कि विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सेनाएँ शीघ्रता से भेजी जा सकेंगी, एवं दूर-दूर के प्रान्तों की सूचना शीघ्र प्राप्त हो जाएगी। इस विकास से भारतीय को काफी लाभ हुआ। अब उनके लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना सुगम हो गया। देश के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले लोगों के बीच दूरी कम हो गई, वे एक-दूसरे के निकट आने लगे। उनका आपसी सम्पर्क बढ़ा और दृष्टिकोण व्यापक हुआ। समाचार-पत्र देश के दूर-दूर भागों में पहुँचने लगे। राष्ट्रवादियों का मिलना तथा पत्र व्यवहार करना भी आसान हो गया। अब वे एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण कर आन्दोलन को और अधिक उग्र बनाने लगे, जिससे जनसाधरण में जाग्रति आई। परिणामस्वरूप एकता की भावना प्रबल हुई और राष्ट्रीय आन्दोलनों को बल प्राप्त हुआ। गुरूमुख निहालसिंह के शब्दों मे, संचार के इन साधनों ने सारे देश को गूंथकर एक कर दिया और भौगोलिक एकता को एक मूर्तरूप वास्तविकता में बदल दिया।
विदेशीआन्दोलनकाप्रभाव-डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि 19वीं शताब्दी में यूरोप में जो स्वाधीनता संग्राम लड़े गए, उन्होने भी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को काफी प्रभावित किया। फ्रांस की 1830 ई. एवं 1848 ई. की क्रान्ति ने भारतीयों में बलिदान की भावन जाग्रत की। इटली तथा यूनानी की स्वाधीनता ने उनके उत्साह में असाधारण वृद्धि की। आयरलैण्ड भी अंग्रेजों की पराधीनता ने उनके उत्साह में असाधारण वृद्धि की। आयरलैण्ड भी अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त होने का प्रयास कर रहा था, इससे भी भारतीय जनता काफी प्रभावित हुई। इटली, जर्मन, रूमानिया और सर्बिया के राजनीतिक आन्दोलन, इंग्लैण्ड में सुधार कानूनों का पारित होना एवं अमेरिका का स्वतन्त्रता संग्राम आदि ने भारतीयों को उत्साहित किया तथा उनमें साहस पैदा किया। परिणामस्वरूप, वे स्वाधीनता प्राप्त करने के संघर्ष में जुट गए। सारांश यह है कि विदेशी आन्दोलनों ने भातीयों में देश भक्ति और देश प्रेम की भावना को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदायन दिया।

लार्डलिटनकीअन्यायपूर्णनीति-लार्ड लिटन (1876-1880) की प्रतिक्रियावादी नीति के कारण राष्ट्रीय असन्तोष प्रारम्भ हुआ। परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीयता की भावना का जन्म हुआ। इस तथ्य की पुष्टि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के इस कथन से होता है, कभी-कभी बुरे शासक भी राजनीतिक नीति के विकास में सहायक सिद्ध होते हैं। लार्ड लिटन ने शिक्षित समुदाय में उस सीमा तक नए जीवन की लहर भूंक दी, जो कि कई वर्षों के आन्दोलन से सम्भव नहीं थी। लार्ड लिटन ने भारत में निम्न अत्चाचार किए।
भारतीयलोकसेवाकीआयुमेंकमी(1876)- 1876 ई. में ब्रिटिश सरकार ने इण्डियन सिविल सर्विस में सम्मिलित होने की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी, ताकि भारतीय इस परीक्षा में सम्मिलित नहीं हो सकें। इसके विरूद्ध भारतीय में तीव्रगति से असन्तोष फैला। सुरेन्द्र बनर्जी ने इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना की, जिसने इसके विरूद्ध जोरदार आन्दोलन चलाया। अतन्तः सरकार को मजबूर होकर आयु सीमा पूर्ववत् करनी पड़ी।
दक्षिणमेंअकालऔरशाहीदरबार(1877)- लार्ड लिटन ने जिस समय दिल्ली में एक विशाल दरबार का आयोजन किया, उस समय दक्षिण भारतवर्ष में भयानक अकाल पड़ जाने से हजारों मनुष्य मौत के मुँह में जा रहे थे, किन्तु लिटेन ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत उसने महारानी विक्टोरिय के भारत साम्राज्ञी की उपाधि धारण करने के उपलक्ष में दिल्ली में एक शानदार दरबार का आयोजन किया। इस शान-शौकत पर पानी की तरह पैसा बहाया गया। इस आयोजन ने भारतीयों के असन्तोष की आग में घी का कार्य किया। भारत के समाचार-पत्रों में इसकी कटु आलोचना की गई। कलकत्ते में एक समाचार-पत्र ने इस समारोह की आलोचना करते हुए यहाँ तक लिख दिया कि, जब रोम जल रहा था, तब नीरो अपनी बांसुरी बजा रहा था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एक प्रतिनिधि की हैसियत से इस समारोह में भाग लिया था। इसी तरह उनके मस्तिष्क में यह भावना जाग्रत हुई कि, यदि एक स्वेच्छाचारी वायसराय की प्रशंसा के लिए देश के राजा तथा अमीर-उमरावों को एकत्र किया जा सकता है, तो देशवासियों को न्यायसंगत ढंग से, स्वेच्छाचारिता को रोकने के लिए क्यों नहीं संगठित किया जा सकता। इस समय भारतीय लोग अन्न के अभाव में मृत्यु ग्रास बन रहे थे और ब्रिटिश सरकार ने भारत से 80 लाख पौण्ड गेहू इंग्लैण्ड को निर्यात किए। इससे अधिक भारतीयों को पीड़ा पहुँचाने के लिए वे और कर ही क्या सकते थे?

अफगानिस्तानपरआक्रमण- लार्ड लिटन ने साम्राज्यवादी नीति पर चलते हुए अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य को कोई फायदा नहीं हुआ। इस युद्ध में दो करड़ो स्टर्लिंग व्यय हुआ, जो भारत की निर्धन जनता से वसूल किया गया। भारतीयों नें लिटन की इस नीति के विरूद्ध काफी असन्तोष फैला।
शस्त्रअधिनियम(1878 ई.)- लार्ड लिटन ने 1878 ई. में एक शस्त्र अधिनियम पारित किया, जिसाके अनुसार भारतीयों को हथियार रखने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था, परन्तु अंग्रेजो के लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। इस अधिनियम ने भारतीयों को अधिक उत्तेजित कर दिया। लिटन के आर्म्स एक्ट ने भारतीयों को बिना लाइसेन्नस हथियार रखना, धारण करना या उसके साथ यात्रा करना अपराध घोषित कर दिया। जो सुरेन्द्रनाथ के विचार से उनमें अविश्वास और संदेश का प्रारम्भ था।
वर्नाक्यूलरप्रेसएक्ट(1878)- लार्ड लिटन की अन्यायपूर्ण नीति का समाचार-पत्रों ने कड़ा विरोध किया। इससे परेशान होकर उसने 1878 ई. में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित कर दिया, जिससे भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर कठोर नियन्त्रण स्थापित हो गया। दूसरे शब्दों में इस अधिनियम में समाचार-पत्रों की स्वाधीनता को नष्ट कर दिया गया। अब किसी भी समाचार को प्रकाशित करने से पूर्व ब्रिटिश सरकारी की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। इस अधिनियम की इंग्लैण्ड की संसद में भारी आलोचना हुई और भारत में भी सर्वत्र हुई। वी. लोवेट के अनुसार, वर्नाक्यूलर एक्ट ने सरकार और यूरोपीयन अधिकारियों के प्रति घृणा की भावना का जागरम किया तथा शासितों के बीच एक तीव्र विरोध की भावना को जन्म दे दिया। बढ़ते हुए आन्दोलन से बाध्य होकर लार्ड रिपन ने इस कानून को रद्द कर दिया।

इल्बर्टबिलपरविवाद- 1880 ई. में लार्ड लिटन के स्थान पर उदारवादी लार्ड रिपर भारत के गवर्नर जनरल बनकर आए। उन्होंने प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रो में अनेक सुधार किए। इसके पश्चात् न्याय व्यवस्था में सुधार करने का निश्चय किया। इस समय न्याय के क्षेत्र में जाति-विभेद विद्यामान था। भारतीय न्यायाधीशों को यूरोपियन अपराधियों के अभियोग की सुनवाई का अधिकार प्राप्त नहीं था, जबकि अंग्रेज न्यायाधीशों को यह अधिकार प्राप्त था। इसलिए रिपन ने अपनी कौंसिल के विधि सदस्य मि. सी.पी. इल्बर्ट ने एक बिल पेश किया, इसे इल्बर्ट बिल कहते हैं। इससे भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियननों के विरूद्ध अभियोग की सुनवाई करने और दण्डित करने का अधिकार देने की व्यवस्था थी लेकिन, यह विधेयक एक भीषण विवाद का कारण बन गया।
भारत में रहने वाले अंग्रेजों ने इल्बर्ट विधेयक को अपना जातीय अपमान समझा। परिणामस्वरूप सम्पूर्ण भारत और इंग्लैण्ड में अंग्रेजों ने संगठित होकर इसका विरोध किया तथा इसके विरूद्ध आन्दोलन चलाया। उन्होंने कहा कि, काले लोग गोरों को लम्बी-लम्बी सजाएँ देंगे तथा उनकी स्त्रियों को अपने घर में रखेंगे। यूरोपियनों ने इस विधेयक के विरूद्ध संगठितरूप से आन्दोलन चलाने के लिए यूरोपियन रक्षा संघ की स्थापना की और लगभग एक लाख पचास हजार रूपयों का चन्दा दिया। विधेयक की निन्दा करने हेतु विविध स्थानों पर सभाएँ आयोजित की गईं। विधेयक का विरोध चरम सीमा पर पहुँ गया। सर हेनरी कॉटन ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, कलकत्ते में कुछ अंग्रेजों ने सराकीर भवन के सन्तरियों को वश में करके लार्ड रिपन को बांधकर वापिस इंग्लैण्ड भेजने का षड्यन्त्र रचा और यह सब बंगाल के गर्वनर तथा पुलिस कमिश्नर की जानकारी में हुआ। अंग्रेजों के संगठित आन्दोलन के समक्ष रिपन को झुकना पड़ा और उसे इस विधेयक में संशोधन करना पड़ा। इसके अनुसार अब यह निश्चित किया गया कि भारतीय न्यायाधीश और सेशन जज यूरोपियन अधिकारियों के मुकदमों पर अपना निर्णय दे सकेंगे, किन्तु ये यूरोपियन अधिकारी अपने मुकदमें जूरी बैठाने की माँग कर सकेंगे, जिससे कम से कम सदस्य यूरोपियन होंगे। इस संशोधन से इस विधेयक की मूल भावना ही समाप्त हो गई।

इस घटना ने भारतीय जनता को बहुत अधिक प्रभावित किया। गुरूमुख निहालसिंह के अनुसार, इस विवाद ने भारतीयों की आँखें खोल दीं। उन्होंने यह अनुभव किया कि यूरोपियनों के विशेषाधिकारों एवं स्थापित स्वार्थों का जहाँ तक सम्बन्ध है, वहाँ न्याय की आशा नहीं की जा सकती। अपने समानताधिकारों को प्राप्त करने के लिए लम्बे संघर्ष के लिए तैयार रहना पड़ेगा। इस विवाद ने भारतीयों को संगठित आन्दोलन का महत्त्व एवं मूल्य प्रदर्शित कर दिया था। एक अन्य स्थान पर उन्होंने इस सम्बन्ध में आगे लिखा है, इल्बर्ट बिल विधेयक के सम्बन्ध में आंग्ल-भारतीय आन्दोलन इनकी संकीर्णता तथा स्वार्थपरता, जाति-विद्वेष और शासक वर्ग के अभिमान की नींव पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के शब्दों में, कोई भी स्वाभिमानी भारतीय अब आँख मूंद कर सुस्त नहीं बैठा रह सकता था। जो इल्बर्ट विवाद के महत्त्व को समझते थे, उनके लिए वह देश भक्ति का महान् पुकार थी। वास्तव में इल्बर्ट बिल के विरोधी आन्दोलन ने भारतीयों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया। सर हेनरी कॉटन के शब्दों में, इस विधेयक के विरोध में किए गए यूरोपियन आन्दोलन ने भारत की राष्ट्रीय विचाराधार को जितनी एकता प्रदान की, उतनी तो विधेयक पारित होकर भी नहीं कर सकता था। यूरोपियनों के आन्दोलन से प्रभावित होकर भारतीयों ने भी राष्ट्रीय संस्था के गठन का निश्चय किया। परिणामस्वरूप कांग्रेस की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। भारतीयों ने महसूस किया कि यदि हम भी अंग्रेजों की भाँति संगठित होकर ब्रिटिश सरकार का विरोध करें, तो हमें स्वाधीनता प्राप्त हो सकती है। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। श्री ए.सी. मजूमदार लिखते हैं कि, इस आन्दोलन ने भारतीयों को यह भी अनुभव करा दिया कि यदि राजनीतिक प्रगति वांछनीय है, तो केवल एक राष्ट्रीय सभा द्वारा सम्भव है। इस सभा का सम्बन्ध विभिन्न प्रान्तों की स्वतन्त्र राजनीति से न होकर देश की एक व्यापक राजनीति से ही होना चाहिए।
गुरूमुख निहालसिंह के अनुसार, इस विवाद ने भारतीयों की आँखे खोल दीं। उन्होंने यह अनुभव किया कि यूरोपियनों के विशेषाधिकारों एवं स्थापित स्वार्थों का जहाँ तक सम्बन्ध है, वहाँ न्याय की आशा नहीं की जा सकती। अपने समानाधिकारों को प्राप्त करने के लिए एक लम्बे संघर्ष के लिए तैयार रहना पड़ेगा। प्रो. डोडवेल ने अपनी पुस्तक ए स्केच ऑफ द हिस्ट्री ऑफ इण्डिया (1858-1918) में लिखा है, इस बिल के विरोध ने भारतीयों को एक ऐसे संगठन की आवश्यकता अनुभव करा दी, जो अखिल भारतीय हो और राजनीतिक उद्देश्य रखता हो।
इस विवाद ने भारतीयों को संगठित आन्दोलन का महत्त्व एवं मूल्य प्रदर्शित कर दिया था। अन्य कारणों में इल्बर्ट विवाद भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का अनिवार्य कारण था।

3. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

भारत में कांग्रेस की स्थापना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि पूर्व में विभिन्न संस्थाओं की स्थापना हो चुकी थीं तथा इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। जब भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई, तो वे राजनीतिक संगठन की आवश्यकता अनुभव करने लगे। अतः ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन, बाम्बे एसोसियेशन, पूना की सार्वजनिक सभा, इण्डिया लीग तथा इण्डियन एसोसियेशन आदि संस्थाएं स्थापित हुई। अगर इन संस्थाओं को कांग्रेस की पूर्वगामी संस्थाएँ कहा जाए तो गलत नहीं होगा। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है, इण्डियन नेशनल कांग्रेस का उद्भव कोई आकस्मिक घटना नहीं थी और न ही इसके तौर-तरीकों में कोई नयापन था। सन् 1883 और 1885 में होने वाली नेशनल कांन्फ्रेंस अपनी मौलिक रूप-रेखा में काफी सीमा तक इसके अनुरूप थी। इन प्रारम्भिक राजनीतिक संस्थाओं के योगदान का विवरण प्रख्यात इतिहासकार डॉ. ताराचन्द ने दिया है, जो उन्हीं के शब्दों में पठनीय है।
राजनीतिक जाग्रति राममोहन राय के समय में ही अभिव्यक्त हो चुकी थी। उनके कार्य को उदारवादी तथा अपरिवर्तनवादी तरह के भारतीयों ने जारी रखा। हाँ, गरम या नरम सुधारक लोग दूसरों से ज्यादा सक्रिय थे। उन्होंने 1828 में विधानचर्च संस्थाएँ स्थापित की थी, जो धार्मिक तथा नैतिक प्रश्नों के अतिरिक्त सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर वाद-विवाद करती थीं। 1838 में एक संस्था स्थापित हुई, जिसका नाम साधारण ज्ञान सभा (सोसायटी फॉर एक्वीजीयन ऑफ जनरल नॉलेज) था। वहाँ ऐसे विषयों पर विचार-विनियम होता था जैसे जूरी द्वारा मुकदमें का निर्णय, समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता, सरकारी विभागों में बेगार। इसके बाद 1842 में द्वारकानाथ ठाकुर, इंग्लैण्ड से जॉर्ज टामसन को ले आए कि वह राजनैतिक आन्दोलन संगठित करे, टामसन ने इंग्लैण्ड से दासता के विरूद्ध आन्दोलन संगठित करने में प्रमुख भाग लिया था। कलकत्ता पहुँचने पर वह सभाएँ करने लगे और उनके प्रयासों के फलस्वरूप सन् 1843 में बंगाल की ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी की स्थापना हुई। उसका उद्देश्य लोगों की स्थिति, देश के कानूनों, संस्थाओं और साधनों के विषय में सूचनाएँ एकत्र करने और उन्हें प्रचारित करने और ऐसे अहिंसात्मक तथा वैध तरीके अपनाना था, जिसमें देश का भला हो, सब वर्गों के अधिकारों का विस्तार हो और भारतीय प्रजा के सभी वर्गो के हितों की आगे बढ़ाया जाए। कांग्रेस की स्थापना का अध्ययन करने से पहले उसकी पूर्वगामी संस्थाओं का जानना उपयुक्त होगा।


ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन (1851)

यह संस्था, अक्टूबर, 1851 ई. में कलकत्ता में स्थापित की गई थी, किन्तु देश के अन्य भागों में इसकी शाखाएँ स्थापित न हो सकीं। राजेन्द्रलाल मित्र, गोपालपाल घोष, प्यारेचन्द्र मित्र एवं हरिश्चन्द्र मुखर्जी इस संस्था के प्रमुख नेता थे। इस संस्था ने सर्वप्रथम भारतीयों के लिए राजनीतिक अधिकारों की माँग करते हुए 1852 ई. में ब्रिटिश संसद को एक स्मृति-पत्र भेजा, जिसमें विधायी परिषदों में भारतीयों को शामिल करने, भारत में प्रतियोगिता परीक्षा आयोजित करने एवं प्रान्तीय सरकार को आन्तरिक स्वतन्त्रता दी जाए आदि माँगे रखी गई थी। ब्रिटिश संसद ने 1853 के चार्टर एक्ट द्वारा इन माँगों को पूरा करने का प्रयास किया। इससे भारतीयों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई।


इण्डिया लीग (1875)

भारत में राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देने के उद्देश्य से 1875 ई. में बंगाल में इण्डिया लीग की स्थापना की गई। कलकत्ता के एक अंग्रेजी दैनिक पत्र ने लिखा है, यह संस्था भारत में राजनीतिक चेतना का प्रथम प्रमुख चिन्ह है। बाद में इसका नाम इण्डियन एसोसियेशन ने ले लिया।


इण्डियन एसोसियेशन (1876)
इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने 26 जुलाई, 1876 ई. को कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल की ऐक सार्वजनिक सभा में की। इसके उद्देश्य इस प्रकार थे। 1. देश में सशक्त जनमत तैयार करना।
2. हिन्दू मुस्लिम समन्वय स्थापित करना।
3. जनसाधारण के हितों के आधार पर भारतीयों में एकता स्थापित करने का प्रयास करना।
4. जन आन्दोलनों में अधिक से अधिक जनता को शामिल करना।
1876 ई. में इण्डियन सिविल सेवा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर देने का इस संस्था ने प्रबल विरोध किया। श्री बनर्जी ने देशभर में घूमकर इसके विरूद्ध जनता में चेतना पैदा की। प्रो. हीरालाल सिंह ने लिखा है, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का राजनीतिक जीवन इण्डियन सिविल सर्विस आन्दोलन के साथ प्रारम्भ हुआ तथा इण्डियन नेशनल कांग्रेस जैसे अधिक व्यापक राजनीतिक आन्दोलन का अग्रसर बना। इस संस्था ने सरकार के विभिन्न अनुचित कार्यों की आलोचना कर एक प्रकार से कांग्रेस की नींव रख।

बाम्बे प्रेसीडेन्सी एसोसियेशन

19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बोम्बे एसोसियेशन की स्थापना हुई, किन्तु वह विफल रही। इस एसोसियशन के सदस्यों एवं बम्बई प्रान्त के दूसेर निवासियों ने पार्लियामेन्ट के सदस्यों के समक्ष अपना विनम्र प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया था, वर्तमान समय में इस देश के निवासी, चाहे वे कितनी प्रतिष्ठित, विश्वसनीय और शिक्षित क्यों न हो, न्याय और राजस्व विभागों के ऊँचे पदो पर नियुक्त नहीं किए जाते और न ही उन्हें चिकित्सा सेवा में ही लिया जाता है, जिससे इंग्लैण्ड से सीधे भेजे गए यूरोपीयन व्यक्तियों की ही नियुक्ति होती है।...आपके प्रार्थी बड़े आदर के साथ अपनी यह प्रार्थना फिर से दोहराते हैं कि...भारत निवासियों को उन सभी पदों पर नियुक्त किया जाए, जिसके लिए वे योग्य हों। इसको व्यावहारिक उपाय रूप देने से...एक बहुत बड़ा असन्तोष दूर किया जा सकेगा। इसके बाद फिरोजशाह मेहता एवं बदरूदीन तैयब ने बम्बई प्रेसीडेन्सी एसोसियेशन स्थापित की, जिसने विभिन्न साधनों द्वारा जन जागरण का कार्य किया।


पूना सार्वजनिक सभा (1867)

महादेव गोविन्द रानाडे ने महाराष्ट्र में समाज सुधार हेतु एवं वहाँ की जनता में राजनीतिक चेनता उत्पन्न करने के लिए पूना में सार्वजनिक सभा की स्थापना की। इसने महाराष्ट्र की जनता में एक नई चेतना उत्पन्न की।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885)

ए.ओ.ह्यूम ने 1885 ई. में भारतीयों में बढ़ते हुए असन्तोष को रोकने तथा भारत में ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। ह्यूम एक सेवानिवृत्त आई.सी.एस. अधिकारी थे। लाल लाजपतराय ने लिखा है, इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना का मुख्य कारण यह था कि ह्यूम ब्रिटिश साम्राज्य की इन संकटों से रक्षा करना और उसे छिन्न-भिन्न होने से बनाचा चाहते थे। इस उद्देश्य से ह्यूम ने 1 मार्च, 1883 ई. को कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने 50 निःस्वार्थ, स्वतन्त्र प्रेमी तथा नैतिक साहस रखने वाले युवकों की माँग की। पत्र में ह्यूम ने लिखा था, इस स्मरणीय पत्र के कुछ अंश नीचे उद्धत किए जा रहे हैं ः

"यदि पचास आदमी भी आगे आएँ, तो सच्चे और सच्चमित्र हों, तो इस संस्था को निर्माण किया जा सकता है और बाद में इस संस्था का विकास भी सुगम एवं सहज हो सकता हैं। इस संस्था का संविधान लोकतान्त्रिक होगा। इसमें व्यक्तिगत महत्त्वकांक्षा की कोई गुंजाईश नहीं होगी और इस संस्था में नेतृत्व का यह सिद्धान्त लागू होगा कि जो तुम लोगों में सबसे बड़ा हो वह तुम्हारा सेवक होगा। अगर देश सेवा के लिए पचास आदमी भी आपने व्यक्तिगत सुख एवं आराम को तिलांजलि नहीं दे सकते हैं, तब यह तय है कि अभी भारत को विकास की कोई आशा नहीं करनी चाहिए, इसके साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारत के लोग न तो बेहतर शासन की इच्छा रखते हैं और न उसकी योग्यता ही रखते हैं। अगर इस देश के शिक्षित एवं जागरूक लोग इतने

आरामपसन्द हैं कि वे अपने देश के लिए कुछ भी त्याग नहीं कर सकते हैं, तब यह मुनासिब ही है कि वे गुलाम हैं और पैरों से कुचले जाते हैं, क्योंकि उनमें बेहतर राजनीतिक जीवन की योग्यता नहीं है। प्रत्येक राष्ट्र को उसकी योग्यता के अनुसार ही सरकार मिलती है। जब इस देश का सबसे शिक्षित एवं प्रबुद्ध वर्ग अपवने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थों एवं सुविधाओं के ऊपर नहीं उठ सकता है और अपने आप के लिए तथा अपने देश के लिए अधिक स्वतन्त्रता पाने के लिए जमकर संघर्ष नहीम कर सकता है, अधिक निष्पक्ष शासन एवं इस देश के प्रशासन में अधिक साझेदारी प्राप्त करने के लिए जूझ नहीं सकता है, तब मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि हम लोग जो तुमन्हारे दोस्त हैं, गलत हैं और जो तुम्हारे शत्रु हैं, वे सही हैं। तुम्हारी भलाई के लिए लार्ड रिपन की जो उदात्त आकांक्षाएँ हैं, वे सब व्यर्थ एवं काल्पनिक हैं, क कोयंकि जब तुम स्वयं अपना उद्धार नहीं कर सकते हो, तब तुम्हारे शुभचिन्तक कहाँ तक तुम्हारी मदद कर सकते हैं। अगर तुम देश सेवा के लिए अपनी सुख-सुविधाओं को छोड़ नहीं सकते, तब तुम अंग्रेजी शासन के विरूद्ध अपनी शिकायत बन्द कर दो कि तुम्हे बच्चों की तरह संरक्षण में रखा जाता है और तुम्हें दबाया जाता है, क्योंति तुम अपने व्यवहार से अपनी कमजोरी का प्रदर्शन कर रहे हो। अब तुम्हें यह कहने की कोई गुंजाईश नहीं रह जाती है कि सरकारी पदों पर अंग्रेजों को तरजीह दी जाती है, क्योंकि तुममें त्याग एवं देश प्रेम की भावना नहीं हैं, जिस देश की भावना ने अंग्रेजों को इतना बड़ा राष्ट्र बना दिया है। जिस राष्ट्र ने जब त्याग एवं देश प्रेम की भावना आती है, तो वहाँ के लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को छोड़कर सार्वजनिक हित में लग जाते हैं। इसी गुण ने अंग्रेजों को इतना बड़ा राष्ट्र बनाया है, और इन्हीं गुणों के आधार पर वे तुम पर शासन कर रहे हैं। यदि तुम्हारा यही हाल रहा, तो अंग्रेज तुम्हारे शासन एवं मालिक बने रहेंगे और उनके शासन का जुआ तुम्हारे कन्धों को तब तक कुरेदता रहेगा, जब तक तुम्हें इस सत्या का ज्ञान न हो जाए कि स्वार्थ त्याग के बिना किसी भी राष्ट्र को स्वतन्त्रता एवं सुख नहीं मिल सकता है।"

"यहि आप लोग, जो जेष की आशाओं के केन्द्र है तथा उच्च शिक्षा प्राप्त किए है, अपने सुख-चेन तथा स्वार्थ को त्याग कर स्वाधीनता प्राप्त करने के काम में नही लगा सकते, तब कहना होगा कि उन्नति की सब आसाएँ व्यर्थ हैं तथा भारत उसी प्रकार के शासन के योग्य हैं, जो उसे मिला हुआ है। पत्र के अन्त में ह्यूम ने लिखा है, आपके कन्धों पर रखा हुआ जुड़ा तब तक विद्यामान रहेगा, जब तक आप इस ध्रुव सत्य को समझकर उसके अनुसार कार्य करने को उद्यन न होंगे कि आत्म बलिदान तथा निःस्वार्थ कर्म ही स्थायी सुख तथा स्वतन्त्रता के अचूक पथ प्रदर्शक हैं।"
लार्ड डफरिन ने ह्यूम द्वारा प्रस्तावित संगठन पर अपनी स्वीकृति देते हुए कहा था, भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं, जो इंग्लैण्ड के विरोधी दल की भाँति यहाँ भी कार्य कर सके और सरकार को यह बता सके कि शासन में क्या त्रुटियाँ हैं तथा उनको कैसे दूर किया जा सकता है। लार्ड डफरिन ने यह भी कहा था, गवर्नर को भी ऐसी संस्थाओं की अध्यक्षता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गर्वनर की उपस्थिति में लोग अपने विचार स्वतन्त्रापूर्वक प्रकट नहीं कर सकेंगे। ह्यूम समाज सुधार के इच्छुक थे, अतः उन्होंने कहा था, यह बहुत अच्छा होगा कि यदि भारत के मुख्य राजनीतिक एक स्थान पर इक्टेट हों, सामाजिक मामलों पर विचार करें और एक-दूसरे के मित्र बनें वह नहीं चाहता था कि ये लोग इकट्ठे होकर राजनीतिक मामलों पर बहस करें। कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष उमेशचन्द्र बनर्जी ने लिखा, ह्यूम का विचार था कि भारत के प्रमुख व्यक्ति वर्ष में एक बार एकत्र होकर सामाजिक विषयों पर चर्चा कर लिया करें। वे नहीं चाहते थे कि उनकी चर्चा का विषय राजनीति रहे, क्योंकि मद्रास, कलकत्ता और बम्बई में पहले से ही राजनैतिक संस्थाएं विद्यामान थीं। लार्ड डफरिन ने ह्यूम के विचारों को राजनैतिक दिशा प्रदान की। उन्होंने कहा कि इच्छा व्यक्त की कि यहां की रानीतिज्ञ प्रतिवर्ष सम्मेलन में मिलें और सरकार को बताए कि शासन में क्या-क्या कमियाँ हैं, और उनमें क्या-क्या सुधार करने चाहिएँ। ह्यूम ने रिपन, डलहौजी, जॉन ब्राइट, क्लेम आदि से इंग्लैण्ड में जाकर भावी संगठन के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। उन्होंने इंग्लैण्ड में भारत संसदीय समिति का गठन किया। इसका उद्देश्य ब्रिटिश सांसदों में भारतीय मामलों के प्रति रूचि उत्पन्न करना था।

कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन
ह्यूम कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 25 से 28 दिसम्बर, 1885 ई. में बुलाना चाहते थे, किन्तु पूना में हैजा फैल जाने पर इस अधिवेशन का स्थान बदलकर बम्बई कर दिया गया। कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर, 1885 ई. को बम्बई के तेजपाल संस्कृत भवन में प्रारम्भ हुआ। इसमें 72 प्रतिनिधि शामिल हुए, जिसमें दादा भाई नौरोजी, फीरोजशाह मेहता, दीनशा एदलची वाचा, काशीनाथ तैलंग, एन जी चन्द्रवरकर, बी. राधावचार्या, एस. सुब्रहण्यम आदि प्रमुख थे। इसके अध्यक्ष विख्यात बैरिस्टर उमेशचन्द्र बनर्जी थे। इसमें कई सरकारी अधिकारी भी सम्मिलित हुए। अधिवेशन के अन्त में कांग्रेस के सदस्यों ने महारानी विक्टोरिया की जय के नारे लगाए। कूपलैण्ड ने लिखा है, भारतीय राष्ट्रीयता ब्रिटिश राज की शिशु थी। ब्रिटिश अधिकारियों ने उसके पालन को आशीर्वाद दिया। डॉ. ताराचन्द ने कांग्रेस के जन्म के सम्बन्ध में लिखा है, कांग्रेस का जन्म भारत के राजनीतिक इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इसके एक नवयुग के आगमन की घोषणा की। राष्ट्रीय एकता के युग की घोषणा, जो ऊपर से नहीं लादी गई थी, बल्कि जनता के संकल्प की अभिव्यक्ति थी। काग्रेंस उस नए समाज की प्रवक्ता थी, जो प्लासी के बाद 1 साल के दौरान हुए आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप विकसित हुआ था। यह उस प्रक्रिया की पूर्णता थी, जिससे सभी भारतीयों का वैयक्तिक रूप से और साथ ही सामूहिक रूप से सम्बन्ध था। पर 1885 में यह बताना कठिन था कि कांग्रेस का क्या भविष्य होगा। इस तरह की सभी संस्थाओं की तरह इसे बहुत पुरे समय से यानी जनता की उदासीनता और सरकार की नाराजगी के युगों से गुजरना पड़ा। इन मंदिलों से गुजर कर ही वह ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति को चुनौती देने का एक शक्तिशाली औजार बन सकी। इस प्रकार कांग्रेस की स्थापवना सरकार की शुभकामनाओं से हुई।

कलकत्ता में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में बोलते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा कि, स्वायत्त शासन प्राकृतिक व्यवस्था और परमपिता परमेश्वर की इचछा के समान है। प्रत्येक राष्ट्र स्वयं अनपे भाग्य का निर्माता बने...यह स्वयंसिद्ध प्राकृतिक नियम है। दादा भाई नौरोजी ने सयुक्त राज्य अथवा उसके उपनिवेशों के समान स्वायत्त शासन या स्वराज्य की चर्चा की। फीरोजशाह मेहता ने 1890 में घोषणा की, मुझे विश्वास है कि अन्ततः ब्रिटिश राजनीतिज्ञ हमारी बात मान लेगें। मुझे अंग्रेजी सभ्यता और अंग्रेजी संस्कृति के जीवन और सफलता के सिद्धान्तों में अट्टू विश्वास है। स्वागत समिति के अध्यक्ष सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 1893 के काग्रेंस के अध्यक्ष आनन्दमोहन बोस ने कहा, शिक्षित वर्ग अंग्रेजों के शत्रु नहीं, मित्र हैं। इस प्रकार अम्बिकाचरण मजूमदार ने कहा, भारत में प्रत्येक हृदय ब्रिटिश शासन के प्रति समानरूप से श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक धड़कता है तथा ब्रिटिश राजनीतिज्ञता के प्रति नव जागृत विश्वास एवं आभार की भावना से ओत-प्रोत है...हममें से कुछ का, हमारी परीक्षा और विप्लव की बुरी से बुरी घड़ियों में भी, यह अडिग विश्वास रहा है कि अन्ततः विजय ब्रिटिश न्यायप्रियता की होगी और सब उस पर विश्वास करने लगेंगे। 1896 में 12वें अधिवेशन के सभापति मोहम्मद रहीमतुल्ला सयानी ने तो यहाँ तक कह डाला, इस आकाश के नीचे अंग्रेजी राष्ट्र के अधिक ईमानदार एवं सुदृढ राष्ट्र विद्यामान नहीं है।

कांग्रेस के उद्देश्य-
कांग्रेस
के प्रथम सभापति उमेशचन्द्र बनर्जी ने कांग्रेस के निन्न उद्देश्य बताए थे।
1. भारतीयों के हितों के इच्छुक विभिन्न कार्यकर्ताओं में, जो देश के विभिन्न भागों में रहते हैं, सम्पर्क स्थापित करना।
2. देश में वंश, धर्म एवं प्रान्त सम्बन्धी संकीर्णता को समाप्त कर राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न करना।
3. महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्याओं के बारे में भारत के शिक्षित लोगों में भली-भाँति विचार-विमर्श करने के पश्चात् प्राप्त परिपक्व सम्मतियाँ का संग्रह करना।
4. भारत के राजनीतिज्ञों के लिए देशहित के अनुसार नीति निर्धारित करना।

इस अधिवेशन में अनेक प्रस्ताव पारित हुए, जिनमें भारतीय शासन के निरीक्षण हेतु शाही आयोग की नियुक्ति, इण्डिया कौंसिल की समाप्ति तथा परिषद् में मनोनीत सदस्यों के स्थान पर निर्वाचित सदस्य शामिल करना आदि प्रमुख हैं।
कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्य सम्बन्धी विवाद
कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्य के सम्बन्ध में विद्वानों में भारी विवाद है। इस सम्बन्ध में दो धारणाएँ हैं। पहली धारणा के अनुसार कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए तथा दूसरी के अनुसार भारतीयों के हितों की रक्षा के लिए हुई थी।
(1) सुरक्षा वाल्व दृष्टिकोण
प्रथम धारणा के अनुसार ह्यूम एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी तथा तथा उसे भय था कि कहीं अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीयों का असंतोष विद्रोह का रूप धारण न कर ले। श्री वेडरवर्न ने लिखा है, भारत के विभिन्न भागों से ब्रिटिश साम्राज्य के हितेषियों से ह्यूम को ब्रिटिश सरकार तथा भारत के भविष्य के लिए खतरे की चेतावनी मिल गई थी, क्योंकि जनता के कष्ट बढ़ गए थेऔर बुद्धिजीवी सरकार के विरूद्ध हो गए थे। उसने आगे लिखा है, दक्षिण बारत के दंगे कुछ गिरोहों की छुट-पुट डकैतियों से प्रारम्भ हुए...यहाँ तक कि बाद में डाकुओं के जत्थे इकट्ठे मिल गए और पुलिस के लिए अत्यन्त शक्तिशाली सिद्ध हुए और पूना की सारी सेना को उसके विरूद्ध लड़ना पड़ा।...उनमें से एक वर्ग के नेता ने अपने को शिवाजी द्वितीय कहना प्रारम्भ कर दिया। उसने सरकार की शक्ति को ललकारा अथवा चुनौती दी। बम्बई के राज्यपाल मिस्टर रिचर्ड टेम्पल के सर को काटकर लाने के लिए 500 रूपये का पुरस्कार घोषित किया गया और इस प्रकार राष्ट्रीय आधार पर विद्रोह करने का दावा किया, जिस तरह कि मूलपूप से छत्रपति शिवाजी के समय मराठा शक्ति की नींव रख दीं गई थी।
प्रथम धारणा के अनुसार ह्यूम एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी तथा तथा उसे भय था कि कहीं अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीयों का असंतोष विद्रोह का रूप धारण न कर ले। श्री वेडरवर्न ने लिखा है, भारत के विभिन्न भागों से ब्रिटिश साम्राज्य के हितेषियों से ह्यूम को ब्रिटिश सरकार तथा भारत के भविष्य के लिए खतरे की चेतावनी मिल गई थी, क्योंकि जनता के कष्ट बढ़ गए थेऔर बुद्धिजीवी सरकार के विरूद्ध हो गए थे। उसने आगे लिखा है, दक्षिण बारत के दंगे कुछ गिरोहों की छुट-पुट डकैतियों से प्रारम्भ हुए...यहाँ तक कि बाद में डाकुओं के जत्थे इकट्ठे मिल गए और पुलिस के लिए अत्यन्त शक्तिशाली सिद्ध हुए और पूना की सारी सेना को उसके विरूद्ध लड़ना पड़ा।...उनमें से एक वर्ग के नेता ने अपने को शिवाजी द्वितीय कहना प्रारम्भ कर दिया। उसने सरकार की शक्ति को ललकारा अथवा चुनौती दी। बम्बई के राज्यपाल मिस्टर रिचर्ड टेम्पल के सर को काटकर लाने के लिए 500 रूपये का पुरस्कार घोषित किया गया और इस प्रकार राष्ट्रीय आधार पर विद्रोह करने का दावा किया, जिस तरह कि मूलपूप से छत्रपति शिवाजी के समय मराठा शक्ति की नींव रख दीं गई थी।

एनीबेसेण्ट ने लिखा है, ह्मयू यह अच्छी तरह जानता था कि लाखों भारतीय अत्यन्त दुःखी होकर भूखों मर रहे थे और इतना होने पर भी वे थोड़े से शासक वर्क के लिए सब प्रकार का भोग साधन और विलास की सामग्री उत्पन्न कर रहे थे। उनको पुलिस की गुप्त रिपोर्ट पढ़ने का अवसर मिला था और वह अन्दरूनी असन्तोष की कहानी को जानता था तथा उसे भूमिगत षड्यन्त्र गतिविधियों और सार्वजनिक असंतोष की लहर का आभास था, जो 1877 के अकाल के पश्चात् एक बुहत बड़ा खतरा बन गया था।
इस समय भारतीयों में गहरा असन्तोष था। ह्यूम जानता था कि भारतीयों में यदि राष्ट्रीयता को रोका नहीं गया, तो यह घातक हो सकती है। ह्मयू ने कहा, जिन्होंने इस आन्दोलन (कांग्रेस की स्थापना) को प्राम्भिक वेग (गति) प्रदान की, उनके सामने कोई विकल्प नहीं रह गया था। पश्चिमी शिक्षा, आविष्कारों तथा यन्त्रों से उत्पन्न हुई उत्तेजना बहुत तेजी से अपना काम कर रही थी और यह परम महत्त्व की बात की गई उस असन्तोष तथा उत्तेजना को अन्दर ही अन्दर फैलने देने बजाय संवैधानिक ढंग से प्रकट करने के लिए कोई मार्ग ढूंढा जाए।
इस प्रकार कांग्रेस का निर्माण जनता के असन्तोष को रोकने के उद्देश्य से भय के रूप में हुआ। सर विलियम वेडरबर्न ने एक बार ह्यूम से कहा था, भारत में असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक अभय दीप की आवश्यकता है और कांग्रेस आन्दोलन से बढ़कर अभय दीप दूसरी चीज नहीं हो सकती। लाला लाजपतराय तथा नन्दलाल चटर्जी ने इस मत की पुष्टि की है। ह्यूम ने कुछ समय पश्चात् कहा था, हमारे कार्यों के परिणामस्वरूप उत्पन्न असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचाव के लिए सुरक्षा साधन की आवश्यकता थी, जिसकी रचना हमने इण्डियन नेशनल कांग्रेस के रूप में की। इससे अधिक प्रभावशाली सुरक्षा साधन का आयोजन असम्भव था। लाला लाजपतराय ने लिखा है, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मुख्य कारण यह था कि इसके संस्थापकों की उतकंठा ब्रिटिश साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाना था। लाला लाजपतराय ने यंग इण्डिया में लिखा है, राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य अंग्रेजी साम्राजय को खतरे से बचाना था। भारत की राजनैतिक स्वतन्त्र के लिए प्रयास करना नहीं, अंग्रेजी साम्राज्य के हितों की पुष्टि करना था, और इस सत्य से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस ने इसका पालन नहीं किया। मि. वेडरबर्न ने लिखा है, ह्यूम साहब की यह योजना क्रान्ति का भय दूर करने तथा भारतीयों मं उमड़ती राष्ट्रीयता की भावना को रोकने के उद्देश्य से बनाई गई थी।
डॉ. अयोध्या सिंह लिखते हैं, कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि भारतीय क्रान्ति को रोकने का अस्त्र बनाने के लिए पैदा की गई। ब्रिटिश शासको ने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए ऐसा अस्त्र पैदा करना जरूरी समझा था।

डॉ. नन्दलाल चटर्जी के अनुसार, मि. ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना का विचार उस समय देशवासियों के सम्‌ुख प्रस्तुत किया, जबकि भारत पर रूसी आक्रमण का विशेष भय था। अतः यह स्पष्ट है कि उनका उद्देश्य भारतीय आान्दोलन को ठीक दिशा में परिवर्तित कर देना तथा इस देश में रूसियों के हथकण्डे तथा शरारतें रोक देना था। जब रूस के आक्रमण का भय समाप्त हो गया, तो भारत सरकार का व्यवहार कांग्रेस के प्रति एकदम बदल गया। रजनीपम दत्त ने लिखा है, कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सरकार की एक पूर्व निश्चित गुप्त योजना के अनुसार की गई थी। अयोध्या सिंह लिखते हैं, कांग्रेस का जन्म इसलिए हुआ कि ब्रिटिश शासक और उनके पैरोकार इसकी जरूरत समझते थे। वह राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वाभाविक विकास नहीं, राष्ट्रीय आन्दोलन में साम्राज्यवादियों और उपनिवेशवादियों के हस्तक्षेप का परिणाम था।
इस प्रकार कांग्रेस शिक्षित भारतीयों के असन्तोष का अभिव्यक्त करने का शान्तिपूर्ण माध्यम बन गई। 1889 की कांग्रेस की रिपोर्ट में कहा गया था, कांग्रेस आन्दोलन की यह महत्ता है कि उसने भारत में फैली हुई छोटी-मोटी क्रांतिकारी संस्थाओं को दबा दिया और राजनीतिक असन्तोष को वैधानिक उपायों द्वारा व्यक्त करने का साधन उपस्थित किया।
2. भारतीय हितों की रक्षा करने वाली संस्था के रूप में
दूसरे मत के समर्थकों के अनुसार अनेक भारतीयों ने भी कांग्रेस की स्थापना में भाग लिया। एनीबेसेण्ट ने लिखा है, राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म मातृभूमि की रक्षा के हित में 17 प्रमुख भारतीयों तथा ह्यूम के द्वारा हुआ था। श्री गुरूमुख निहालसिंह ने लिखा है, यह सम्भव है कि ब्रिटिश साम्राज्य को बचाने तथा कांग्रेस का प्रयोग एक अभय दीप की तरह करने के विचार ह्यूम तथा वेडरबर्न के हृदयों में थे, किन्तु इस बात पर विश्वास करना असम्भव है कि दादाभाई नौरोजी, सुरेन्दनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता था रानाडे जैसे भारतीय नेता उनके हाथो के साधन मात्र थे या वे भी ब्रिटिश साम्राज्य को क्रान्ति के खतरे से बचाने का विचार रखते थे। डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है, राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारतीयों के हित की दृष्टि से की गई थी।

ह्यूम एक उदारवादी एवं स्वतन्त्रता प्रेमी व्यक्ति थे तथा अंग्रेजी की शोषण की नीति से क्षुब्ध थे। उन्होंने अपने जीवन भारतीयों के कल्याण हेतु समर्पित कर दिया था तथा वे ब्रिटिश शासन के अधीन भारत को ऊँचा उठाने के इच्छुक थे। लाला लाजपतराय ने लिखा है कि, ह्यूम स्वतन्त्रता के पुजारी थे तथा उनका हृदय भारत की निर्धनता तथा दुर्दशा पर रोता था। वे इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि कोई भी शासन, चाहे वह देशी हो या विदेशी, बिना किसी दबाव के जनता की माँगों को पूरा नहीं कर सकता। इसलिए वे यह चाहते थे कि भारतीयों के द्वारा स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए। इस दिशा में प्रथम स्थान संगठित होना था, इसलिए उनके द्वारा संगठन का परामर्श किया गया। ह्यूम ने भारतीयों को ब्रिटिश शासन के विरूद्ध वैधानिक आन्दोल करने के लिए प्रेरित करते हुए 1889 के कांग्रेस अधिवेशन में कहा था, हमारे शिक्षित भारतीयों ने पृथक्-पृथक् रूप से तथा हमारे अखबारों ने व्यापक रूप से हमारी राष्ट्रीय महासभा के समस्त प्रतिनिधियों ने एक स्वर से सरकार को समझाने की चेष्टा की है, किन्तु सरकार ने, जैसा कि प्रत्येक स्वेच्छाचारी का रवैया होता है, समझने से इन्कार कर दिया। अब हमारा काम है कि देश में अलख जगाएँ, ताकि हर भारतीय, जिसने भारत माता की छाती का दूध पिया है, हमारा साथी, सहयोगी तथा सहायक बन जाए और यदि आवश्यकता पड़े तो काबडेन और उसके बहादुर साथियों की तरह आजादी, न्याय तथा अपने अधिकारों के लिए जो महासंग्राम हम छेड़ने जा रहे हैं, उनका सैनिक बन जाए।
इस सम्बन्ध में डॉ. जकारिय ने कहा हैं, भारतीय एवं ब्रिटिश समर्थकों के संयुक्त प्रयत्नों के परिणामस्वरूप इस महान् राष्ट्रीय संस्था का जन्म हुआ। इस कार्य में इन्हें प्रमुख प्रेरणा की संकीर्ण राष्ट्रीय भावों से नहीं, अपितु सत्य और न्याय के उदात्त विचारों के प्रति सच्ची लगन और भक्ति से मिली, जिनके समर्थकों को वे अपने देश के लिए गौरव की बात मानते थे और जो पिछली शताब्दी के दोनों देशों केपारस्परिक सहयोग से किए गए कार्यों का सुखद परिणाम था।

निष्कर्षः
कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्य के सम्बन्ध में ऊपर दिए गए दोनों मत आंशिक रूप में ही सत्य हैं। वस्तुतः कांग्रेस की स्थापना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए की गई थी, किन्तु इसके साथ ही कांग्रेस की स्थापना के मूल में भारतीयों के हित का विचार और भारतीयता की भावना विद्यमान थी। भारतीय राजनीति में उस समय दो प्रकार की विचारधाराओं में विश्वास करने वाले लोग थे। पहले मत के लोग हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना चाहते थे। दूसरे मत के लोग ब्रिटिश राज्य का अन्त धीरे-धीरे करना चाहते थे। वे भारतीय प्रशासन में भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व चाहते थे, ताकि स्वशासन प्राप्त हो सके। मि. ह्यूम तथा उनके अन्य सहयोगी भारतीय राजनीति की दूसरी विचारधार से सम्बद्ध थे। कांग्रेस की स्थापना इसलिए की गई थी, ताकि देश वैधानिक प्रगति के मार्ग पर बढ़ सके।
कांग्रेस का स्वरूप
कांग्रेस एक राष्ट्रीय संस्था थी, जिसकी स्थापना एवं विका में सभी जातियों व वर्गों का हाथ रहा था। इसके प्रथम सभापति उमेशचन्द्र बनर्जी भारतीय ईसाई, द्वितीय सभापति दादाभाई नौरोजी पारसी, तृतीय सभापति बदरूद्दीन तैयब जी मुसलमान, चौथे तथा पाँचवे सभापति जार्ज यूल एवं सर विलियम वेडरबर्न अंग्रेज थे। इसका जन्मदाता ह्यूम भी अंग्रेज था।

कांग्रेस के राष्ट्रीय स्वरूप के सम्बन्ध में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, जिस प्रकार एक बड़ी नदी का मूल एक छोटे से सोते में होता है, उसी प्रकार महान् संस्थाओ का आरम्भ भी बहुत मामूली होता है। जीवन की शुरूआत में वे बड़ी तेजी से दौड़ती है, किन्तु ज्यों-ज्यों व्यापक नदियाँ मिलती जाती है और उसको अधिकाधिक सम्पन्न बनाती जाती है। यह उदाहरण हमारी कांग्रेस के विकास पर भी लागू होता है। उसे अपना विकास बड़ी-बड़ी बाधाओं से तय करना था, इसलिए आरम्भ में उसने अनपे सामने छोटे आदर्श रखे, परन्तु ज्यों ही उसने समस्त भारतवासियों के हार्दिक प्रेम का सहारा लिया, उसने अपना मार्ग विस्तृत कर दिया और अपने उदर में देश की अनेक सामाजिक नैतिक हलचलों का भी समावेश कर लिया। प्रारम्भिक अवस्थाओं में उसके कार्यों में एक किस्म की हिचकिचाहट और शंकाएँ-कुशंकाएँ दिखाई देती थी, परन्तु जैसे-जैसे वह बालिग होती गई, वैसे-वैसे उसे अपने बल और क्षमता का ज्ञान होता चला गया और उसकी दृष्टि व्यापक बनती गई। अनुनय-विनय की नीति को छोड़कर उसने आत्म तेज और आत्मावलम्बन की नीति ग्रहण की। इधर लोकमत को शिक्षत करने के लिए जोर-शरो से प्रचार कार्य होने लगे, जिससे

देशव्यापी संगठन बन गया। यहाँ तक कि सीधे हमले तक का कार्यक्रम बनाना पड़ा। शिकायतों और अपने दुःख-दर्दों को दूर कनरे के उद्देश्य से शुरूआत करके कांग्रेस एक ऐसी मान्य संस्था के रूप में परिणित हो गई, जो बड़े स्वाभिमान के साथ अपनी माँग भी पेश करने लगी। शीघ्र ही वह भारतवासियों की तमाम राजनैतिक महत्त्वकांक्षाओं को एक जबरदस्त और सत्तापूर्ण प्रतिपादक बन गई। उसका दरवाजा जब श्रेणियों और जब जातियों के लिए खोल दिया गया। यद्यपि आरम्भ में वह उन प्रश्नों को हाथ में लेती हुई संकोच करती थी, जो सामाजिक कहे जाते थे, किन्तु उचित समय आते ही उसने इस बात को माने से इन्कार कर दिया कि जीवन अलग-अलग टुकडों में बंटा हुआ है और इस प्राचीन परम्परागत विचार के आगे जाकर, जो जीवन के प्रश्नों को सामाजिक और राजनैतिक सीमाओं में बांध देता है, उसने एक ऐसा सर्वव्यापी आदर्श अपने सामने प्रस्तुत किया, जिसमें कि सारा जीवन, यहाँ से वहाँ तक और अविभाज्य है। इस तरह कांग्रेस एक ऐसी राजनीतिक संस्था होगी, जिसमें न ब्रिटिश भारत और देशी राज्यों का भेद था और न एक प्रान्त और दूसरे प्रान्त का। उसमें न उच्च वर्ग और जनता का भेद था।, न शहर और गाँव का, न गरीब-अमीर का भेद था, न किसान-मजदूर का और न जात-पांत का तथा मजहबों का। प्रो. हीरालाल सिंह लिखते है, कांग्रेस में एक भी बात ऐसी न थी कि जिसके विरूद्ध कोई अंगुली उठा सकता।

गाँधीजी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में फ्रेडरल स्ट्रक्चर समिति के समक्ष कांग्रेस के सम्बन्ध में कहा था, यदि मैं गलती नहीं करता हूँ, तो कांग्रेस भारतवर्ष की सबसे बड़ी संस्था है। उसकी अवस्था 50 वर्ष की है और इस अर्सें में वह बिना किसी रूकावट के बराबर अपने वार्षिक अधिवेश करती है सच्चे अर्थों में वह राष्ट्रीय है, वह किसी खास जाति वर्ग या हित की प्रतिनिधि नही ंहै वह सर्वमान्य भारतीय हितों और सब वर्गों की प्रतिनिधि होने का दावा करती है। मेरे लिए यह बताना बड़ी खुशी की बात है कि इसकी उपज आरम्भ में एक अंग्रेज मस्तिष्क में हुई। एलेन ओक्टोवियन ह्यूम को कांग्रेस के पिता के रूप में हम

जानते हैं। दो महान फारसियों-दादभाई नौरोजी और फीरोजशाह मेहता, जिन्हें सारा भारत वृद्ध पितामाह कहने में गर्व का अनुबव करता है, ने उसका पोषण किया, आरम्भ से ही कांग्रेस में मुसलमान, ईसाई, गोरे आदि शामिल थे, बल्कि मुझे यों कहना चाहिए कि उसमें सब धर्म, सम्प्रदाय और हितों का थोडी बहुत पूर्णता के साथ प्रतिनिधित्व होता है। मैं जानता हूँ कि कभी-कभी वह इस दावे को कायम रखने में असफल नही ंहुई है, किन्तु मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि यदि आप कांग्रेस का इतिहास देखें, तो आपको मालूम होगा कि असफल होने की अपेक्षा वह सफल ही अधिक हुई है और प्रगति के साथ सफल हुई है। सबसे अधिक कांग्रेस मूल रूप में देश के एक कोने से दूसरे कोने तक 7,00,000 गाँवो में बिखरे हुए करोड़ों मूक, अर्द्धनग्न और भूखे प्राणियों की प्रतिनिधि है, ये बात गौण है कि वे ब्रिटिश भारत के नाम से पुकार जाने वाले प्रदेश के हैं अथवा देशी राज्यों के, इसलिए कांग्रेस के मत में प्रत्येक हित, जो रक्षा के योग्य हैं, इन लाखों मूक प्राणियों के हित का साधन होना चाहिए। हाँ, आप समय-समय पर इन विभिन्न हितों में प्रत्यक्ष विरोध देखते हैं। परन्तु वस्तुतः यदि कोई वास्तविक विरोध हो, तो कांग्रेस की ओर से बिना किसी संकोच के बता देना चाहता हूँ कि इन लाखों मूक प्राणियों के हित के लिए कांग्रेस प्रत्येक हित का बलिदान कर देगी। इसलिए वह आवश्यक रूप से किसानों की संस्था है और वह अधिकाधिक उनकी बनती जा रही है। आपको और कदाचित् इस समिति के भारतीय सदस्यों को भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि कांग्रेस ने आज अपनी अखिल भारतीय चरखा संघ नामक संस्था द्वारा करीब 2,000 गाँव की लगभग 50,00 हजार स्त्रियों को रोजगार में लगा रखा है और इनमें सम्भवतः 50 प्रतिशत मुसलमान स्त्रियाँ है। इनमें हजारों अचूथ कहलाने वाली जातियों की भी हैं। इस तरह हम इस रचनात्मक कार्य के रूप में इन गाँवों में प्रवेश कर चुक हैं और 7,00,000 गाँवों में से प्रत्येक गाँव में प्रवेश करने का प्रयत्न किया जा रहा है। यह काम यद्यपि मनुष्य की शक्ति से बार का है। फिर भी यदि मनुष्य के प्रयत्न से हो सकता है, तो आप कांग्रेस को इन सब गाँवों में फैली हुई और इन्हें चरखे का संदेश सुनाती हुई देखेंगे।

श्री मदनमोहन मालवीय ने कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में कहा था, भारतीय जनता को इस महान् संस्था के द्वारा अब एक जिह्वा मिल गई है, जिसके द्वारा हम इंग्लैण्ड से कहते है कि वह हमारे राजनैतिक अधिकारों को स्वीकार करे। कांग्रेस के कार्यों के फलस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन को बप्रबल जनमत का समर्थन प्राप्त हुआ। हेनरी कॉटन ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, कांग्रेस के सदस्य किसी भी दशा में सरकारी नीति में परिवर्तन लाने में सफल नहीं हुए, लेकि अपने देश के इतिहास के विकास में और देशवासियों के चरित्र निर्माण में निश्चित रूप से इन्होंने सफलता प्राप्त की है। कांग्रेस के कार्यों के फलस्वरूप प्रबल जनमत का विकास सम्भव हुआ।
कुछ इतिहासकार कांग्रेस को एक राष्ट्रीय संस्था इसलिए भी मानते है कि इसके अधिकांश सदस्य और पदाधिकारी हिन्दू थे। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत की अधिकांश जनता हिन्दू है। कांग्रेस ने मुसलमानों की संख्या इसलिए कम रही कि सैयद अहमद खाँ और कुछ अन्य मुसलमान नेता अपने सहधर्मियों को कांग्रेस के बाहर रखने का पूरा प्रयत्न कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस ने सदैव मुसलमानों सहित सभी वर्गों के हितों की रक्षा का पूरा प्रयास किया। उसकी गतिविधियों और कार्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि वह सदैव एक राष्ट्रीय संगठन के रूप में कार्य करती रही। महात्मा गाँधी ने दूसरी गोलमेज कोंफ्रेस के समय फेडरल स्ट्रक्टर समिति के सम्मुख कांग्रेस के एक राष्ट्रीय संगठन होने का दावा सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि, कांग्रेस...भारत का सबसे पुराना राष्ट्रीय संगठन है...यह अपने नाम के अनुरूप राष्ट्रीय है। यह किसी विशिष्ट समुदाय, वर्ग अथवा हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। यह तो सारे भारतीय हितों तता सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करती है...आरम्भ से ही कांग्रेस में मुसलमान, इसाई एवं एंग्लो-इण्डियन हैं...तथा सभी धर्मो, विश्वासों को इसमें न्यूनाधिक पूर्ण प्रतिनिधित्व प्राप्त है।

राष्ट्रीय आन्दोलन एवं कांग्रेस
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि क्रांगेस एक राष्ट्रीय संस्था थी, जो सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करती थी। इतना ही नहीं, उसे ब्रिटिश सरकार का समर्थन भी प्राप्त था। आरम्भ में यह संस्था सरकार के समक्ष राष्ट्रीय समस्याओं पर अपना पक्ष प्रस्तुत करती थी और इसकी भक्ति ब्रिटिश सरकार के प्रति थी। इसलिए यह संस्था भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना, भारतीयों के लिए हितकारी समझती थी। कांग्रेस के सम्मेलनों में अंग्रेज अधिकार भाग लेते ते और सरकार बी कांग्रेस के प्रतिनिधियों का सम्मान करती थी। धीरे-धीरे कांग्रेस के उद्देश्यों में परिवर्तन होता गया। नौकरियों की माँग से आरम्भ होकर उनकी माँग स्वराज्य में परिणित हो गई। अब कांग्रेस प्रतिनिधि सरकार की आलोचना करने लगे। अंग्रेज कांग्रेस के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण उसके विरोधी बन गई। अब कांग्रेस ने सरकार में विश्वास करना व उसके साथ सहयोग करना छोड़ दिया और संघर्ष के माध्यम से स्वराज्य प्राप्त करने का प्रयास किया। कांग्रेस ने आरम्भ से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया।

पट्टाभि सीतामैया ने कांग्रेस के इतिहास को भारतीय स्वन्त्रता का इतिहास माना है। इस बात को पूरी तरह सन्य न मानते हुए भई इस बात को इन्कार नहीं किया जा सकता हि राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस की भूमिका सबसे प्रभावी रही। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है, कांग्रेस की स्थापना के पूर्व और पश्चात् दूसरी अनेक शक्तियों द्वारा भी इस उद्देश्य से कार्य किया था, लेकिन कांग्रेस ने भारतीय स्वतन्त्रता के संघर्ष में सदैव ही केन्द्र का कार्य किया। यह वह धुरी थी, जिसके चारों ओर स्वतन्त्रता की महान् गाथा की विविध घटनाएँ घटित हुईं। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में बाँटा जाता हैं।-

(1) उदारवादी राष्ट्रीयता का युग (1885-1905 ई. तक)
(2) उग्रवादी राष्ट्रीयता का युग (1905-1919 ई. तक)
(3) गाँधीवादी युग (1919-1947 ई. तक)
राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में ए.ओ. ह्यूम का योगदान
ए.ओ. ह्यूम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक कहे जाते हैं। वे स्कॉटलैंण्ड के निवासी थे। उनके पिता एक विख्यात राजनीतिक थे। ह्यूम इण्डियन सिविल सेवा में कई वर्षों तक महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे। उन्होंने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के साथ मलिकर 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन बुलाया। वे 1885 ई. में कांग्रेस के मंत्री बने तथा 1907 तक इस पद पर रहे। ह्यूम को कांग्रेस के प्रति योगदान के कारण राष्ट्रीय कांग्रेस का पिता कहा जाता है। उन्हें भारतीयों से काफी सहानुभूति थी। वेडरबर्न ने लिखा है, मि. ह्यूम को जब यह पता चाल कि भारतीयों के असन्तोष के कारण एक भयानक विद्रोह होने की सम्भावना है, तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। इसलिए उन्होंने 1883 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को सार्वजनिक सेवा हेतु आमंत्रित करते हुए खुला पत्र लिखा था, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थी, आपके कन्धों पर रखा हुआ जुँआ तब तक विद्यामान रहेगा, जब तक आप इस ध्रुंव सत्य को समझकर इसके अनुसार कार्य करने को उद्यत न होंगे कि आत्म बलिदान और निःस्वार्थ कर्म ही स्थायी सुख और स्वन्त्रता के अचूक मार्गदर्शक हैं।
ह्यूम का मानना था कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों के प्रति अपने दायित्व को उचित प्रकार से निभा नहीं रही है, अतः वे उसकी आलोचना करते थे। उनका मानना था कि भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों के लिए उपोयगी है, किन्तु ब्रिटिश सरकार को अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना चाहिए। ह्यूम ने अपने प्रशासनिक सेवा काल के दौरान भारतीयों की अत्यधिक सेवा की थी। जिला अधिकारी पद पर रहते हुए ह्मूम ने प्रशासन में सुधार के अनेक प्रयास किए थे। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, इस पद पर रहते हुए उन्होंने साधराण जनता में शिक्षा का प्रसार, पुलिस, मदिरा निषेध, देशी भाषाओं के समाचार-पत्रों की उन्नति तथा बाल अपराधियों के सुधार हेतु अनेक कार्य किए। वे पुलिस अधिकारियों को न्यायिक शक्तियों देने के विरूद्ध थे एवं आबकारी की या को पाप की कमाई मानते थे। उन्होंने कहा था, अगर आबकारी से एक रूपए की आमदनी होती है, तो उससे उत्पन्न अपराधों के दमन में सरकार को दो रूपए खर्च करने पड़ते हैं। 1859 ई. में उन्होने लोकमित्र नामक समाचार पत्र के प्रकाशन में सहयोग दिया। 1879 में उन्होंने किसानों की दशा में सुधार हेतु एक योजना प्रस्तुत करते हुए कहा कि ग्रामीणों के ऋणों के मुकदमों के शीघ्र निर्णय हेतु न्यायाधीशों को गाँव-गाँव चाकर उनकी सुनवाई करनी चाहिए।

ह्यमू 1870 से 1879 ई. तक भारत सरकार के मन्त्री रहे, किन्तु उनकी ईमानदार प्रकृति के कारण उन्हें पदच्युत कर दिया गया। भारत की सेवा करने के उद्देश्य से उन्होंने लेफ्टिनेन्ट गवर्नर पद भी ठुकरा दिया। उनकी गृह सचिव बनने की इच्छा को इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री लार्ड सेलिसबरी ने ठुकरा दिया, अतः 1882 ई. में नौकरी से त्याग-पत्र देकर वे सार्वजनिक सेवा में लग गए। 1857 के पश्चात् भारत में बढ़ते हुए असन्तोष को रोकने व आक्रोश की भावनाओं को दबाने के लिए ह्मूम ने लार्ड डफरिन के कहने पर कांग्रेस की स्थापना की थी। डॉ. रघुवंशी का माना है कि, ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को बचाना था। लाला लाजपतराय ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लिखा था, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मुख्य कारण यह था कि ह्यूम अंग्रेजी साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाना चाहते थे।
इस प्रकार अनेक इतिहासकार मानते हैं कि ह्यूम ने ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से कांग्रेस की स्थापना की थी, किन्तु इस पूर्णतः सत्य नहीं माना जा सकता। कांग्रेस की स्थापना में उनका भारतीय हित का दृष्टिकोण प्रमुख रहा था, अतः लाल लाजपतराय ने इसे अभय दीप कहा है। लालाजी ने लिखा है, ह्यमू स्वतन्त्रता के पुजारी थे तथा उनका हृदय भारत की निर्धनता तथा दुर्दशा पर रोता था। ह्यूम कांग्रेस के माध्यम से भारतीयों को ब्रिटिश शासन के विरूद्ध वैधानिक ढंग से संगठित करना चाहते थे। 1888 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कहा था, हमारे शिक्षित भारतीयों ने पृथक्-पृथक् रूप से, हमारे अखबरों ने व्यापक रूप से तथा हमारी राष्ट्रीय महासभा के समस्त प्रतिनिधियों ने एक स्वर से सरकार को समझाने की चेष्टा की है, किन्तु सरकार ने, जैसा कि प्रत्येक स्वेच्छाचारी सरकार का रवैया होता है, समझाने से इन्कार कर दिया है। अब हमारा काम है कि हम इस देश में अलख जगाए, ताकि हर भारतवासी, जिसने भारत माता की छाती का दूध पीया है, हमारा साथी, सहयोगी और सहायक बन जाए तथा यदि आवश्यकता पड़े, तो काब्डेन और उसके बहादुर साथियों की तरह आजादी, न्याय और अपने अधिकारों के लिए, जो महासंग्राम हम छेड़ने जा रहे हैं, उसका वह सैनिक बन जाए।

इस प्रकार ह्यूम ने अपने देशवासियों की इच्छा के विरूद्ध भी भारतीयों का साथ दिया। उसकी धारण थी कि भारतीय इंग्लैण्ड में प्रचार करके अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। 1903 ई. में उन्होंने लिखा था, भारतीयों को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेषतः इंग्लैण्ड में प्रचार करना चाहिए और अपनी माँगो के प्रति दृढ रहना चाहिए।ष कांग्रेस के शिष्टमण्डल में ह्यूम इंग्लैण्ड भी गए थे।
ह्यूम बड़े निष्पक्ष व न्यायप्रिय थे। ऑकलैण्ड द्वारा द्रारा कांग्रेस की आलोचना करते हुए ह्यूम ने कहा, आप व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस के विरूद्ध हैं तथा कांग्रेस विरोधी तत्त्वों का संरक्षण करना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त आप उन सब व्यक्तियों को, जो कांग्रेस की गतिविधियों में रूचि लेते हैं, नष्ट करना चाहते हैं। ह्यूम के स्थान पर यदि कोई ओर कांग्रेस की स्थापना का प्रयत्ना करता, तो निश्चित रूप से विफल रहता। ह्यूम स्वतन्त्रता प्रेमी थे तथ कांग्रेस के इतिहास में उनका नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाता रहेगा। अगस्त, 1913 ई. में ह्यूम स्मारक सभा में भाषण देते हुए उदारवादी नेता गोखले ने कहा था, कोई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना नहीं कर सकता था। यह बात अगर छोड़ भी दी जाए कि इतने बड़े कार्य के लिए ह्यूम जैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, अगर किसी भारतीय का ऐसा व्यक्तित्व होता भी और वह आन्दोलन चलाने के लिए आगे भी आ जाता, तो शासक उसे ऐसी संस्था न बनाने देते। राजनीतिक आन्दोलन उन दिनों ऐसी संशय की निगाह से देखे जाते थे कि कांग्रेस का जन्मदाता इतना महान और प्रमुख गैर सरकारी व्यक्ति न होता, तो शासन इन आन्दोलन के दमन के लिए कोई न कोई तरीका अवश्य ही ढूँढ निकालता।

4. उदारवादी राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1905 ई.)

1885 ई. में इण्डियन नेशनल क्रांगेस की स्थापना हुई, जो कि राष्ट्रीय संस्था थी। इस सम्बन्ध में पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा था कि, भारत ने अपनी आवाज इस महान संस्था में पाई। कांग्रेस की स्थापना के समय उदारवादी राष्ट्रीय नेताओं ने इसकी बागड़ोर अपने हाथ में ले ली। आरम्भिक 20 वर्षों तक कांग्रेस की नीति अत्यन्त उदार रही। इसलिए इस युग को इतिहास में उदारवादी राष्ट्रीय आन्दोलन का युग (1885-1905) के नाम से पुकारा जाता है। इस युग में उदारपंथी नेता इण्डियन नेशनल कांग्रेस के द्वारा संचालित राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका मानना था कि संवैधानिक तरीकों से भारत की स्वन्त्रता प्राप्त की जा सकती है। वे अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास करते थे। ब्रिटिश सरकार भी उन्हें भारत के प्रभावशाली नेता मानती थी। उदारवादी नेताओं में दादाभाई नौरोजी, महादेव गोविन्द रानाडे, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, पं. मदनमोहन मालवीय एवं उमेशचंद्र आदि प्रमुख थे।
उदारवादी नेताओं पर ब्रिटिश विचारधारा, साहित्य एवं सभ्यता का बहुत अधिक प्रभाव था। वे इंग्लैण्ड की संस्थाओं के प्रशंसक थे और अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास रखते थे। उनका यह मानना था कि ब्रिटिश शासन भारतवर्ष के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसने भारत में शिक्षा एवं संचार के साधनों को विकसित किया है। न्याय व्यवस्था को कुशल बनाया है। वे ब्रिटिश शासन को भारत के लिए वरदान मानते थे। इस प्रकार, वे अंग्रेज सरकार के अन्धे भक्त थे। उनका यह विश्वास था कि यदि वे प्रार्थना-पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी माँगे प्रस्तुत करेंगे, तो वह उन्हें स्वीकार कर लेगी, क्योंकि उसे भारत तथा इसमें रहने वाले लोगों के प्रति विशेष सहानुभूति है। अतः इस युग में कांग्रेस ने सुधारवादी कार्यक्रम को अपनाया। उसने नजता की माँगों को प्रार्थना-पत्रों, स्मृति-पत्रों तथा प्रतिनिधि मण्डलों के द्वारा सरकार तक पहुँचाया तथा प्रशासन में सुधार सम्बन्धी अनेक प्रस्ताव पास किए। जी.आर. प्रधान के अनुसार, कांग्रेस के प्रारम्भिक दिनों के प्रस्तावों में हम उत्पन्त उदार माँगे पाते हैं। कांग्रेस के संस्थापक आकाश में उड़ने वाले आदर्शवादी नहीं थे, बल्कि वे व्यावहारिक सुधारक थे तथा उदारवाद की भावनाओं और सिद्धान्तों से ओत-प्रोत थे। वे स्वतन्त्रता की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाना चाहते थे। इसलिए उनकी माँगे बहुत ऊँची नहीं थी। उन्होंने सुधार के ऐसे प्रस्तावों को रखा, जिसका कम से कम विरोध हो। कांग्रेस के नेताओं ने इस उदारवादी काल में नरम नीति अपनाई थी। वे प्रार्थना-पत्रों, प्रतिवेदनों, स्मरण-पत्रों एवं शिष्ट मण्डलों के माध्यम से सरकार के समक्ष अपनी माँगे रखते थे। उनकी भाषा बड़ी नरम और संयत होती थी। इसलिए उग्रवादियों ने इसे राजनीतिक भिक्षावृत्ति की संज्ञा दी है।

कांग्रेस की लोकप्रियता
1885
ई. में कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन हुआ, जिसमें केवल 72 प्रतिनिधि शामिल हुए थे, क्योंकि उस समय ये केवल बुद्धिजीवियों की संस्था थी। इसके अतिरिक्त वह जनसाधारण का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। परन्तु धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता बढ़ी और देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था का रूप ग्रहण कर लिया। परिणामस्वरूप उसकी शक्ति में निरन्तर वृद्धि होती गई। यही कारण था कि इसके अधिवेशन में भाग लेने वालों की संख्या 1886 में 406, 1887 में 600 तथा 1888 में 1248 हो गई। यह प्रगति निरन्तर जारी रही, क्योंकि इसने एक अखिल भारतीय रूप धारण कर लिया था। 1906 ई. में यह कहा जा सकता था कि कांग्रेस भारत के भारी बहुमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। कांग्रेस की प्रगति के सम्बन्ध में पट्टाभि सीतामैया का मत है कि, जिस प्रकार एक बड़ी नदी का मूल एक छोटे से सोते से होता है, उसी प्रकार महान संस्थाओं का प्रारम्भ भी बहुत साधारण होता है। जीवन के प्रारम्भ में वे अत्यन्त वेग के साथ दौड़ती है, परन्तु ज्यों-ज्यों व्यापक होती है, त्यों-त्यों उनकी गति बन्द किन्तु स्थिर होती जाती है। ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ती जाती हैं, त्यों-त्यों उनमें सहायक नदियाँ मिल जाती हैं तथा वे उसको अधिकाधिक सम्पन्न बनाती जाती हैं। यह उदाहरण हमारी कांग्रेस पर भी लागू होता है।
कांग्रेस के प्रति सरकार का दृष्टिकोण
1885
ई. में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, तो उसे भारतीय गर्वनर जनरल लार्ड डफरिन का आशीर्वाद प्राप्त था। इसका जन्मदाता भी एक अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम था। इसलिए इसके प्रथम अधिवेशन में कई सरकारी अधिकारियों ने भाग लिया। दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। इस अवसर पर भारत के गर्वनर जनरल लार्ड डफरिन ने इसमें सम्मिलित होने वाले प्रतिनिधियों को राजकीय भवन में एक भोज दिया। इसका तीसरा अधिवेशन 1887 ई. में मद्रास में हुआ। इस अवसर पर मद्रास के गवर्नर ने कांग्रेस के प्रतिनिधियों को राजकीय भवन में एक प्रीतिभोज में आमंत्रित किया। मद्रास के तीसरे कांग्रेस अधिवेशन (1887 ई.) में विलियम इवार्ट ग्लैडस्टोन ने कहा, मैं समझता हूँ कि इस प्रश्न का अन्तिम निर्णय करने में कि भारत में हमारी सत्ता रहे या न रहे, वहाँ के 24 करोड़ निवासियों की इच्छा ही प्रमुख तत्त्व होगी। इस प्रकार, आरम्भ के तीन वर्षों में अंग्रेज सरकार की नीति कांग्रेस के प्रति उदारता एवं सहानुभूति की रही। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास को बड़ा प्रोत्साहन मिला।
परन्तु जैसे-जैसे कांग्रेस की शक्ति में वृद्धि होती गई और कांग्रेस के द्वारा प्रशासनिक सुधारों की माँग प्रबल की जाने लगी। अब कांग्रेस ने सरकार के कार्यों की आलोचना करनी प्रारम्भ कर दी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने अपना समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया। लार्ड डफरिन भी कांग्रेस का कटु आलोचक बन गया, क्योंकि वह भारतीयों की समानता की माँग स्वीकार करना नहीं चाहता था। अब अंग्रेज सरकार को भारत में अपना शत्रु मानती थी और उसको किसी प्रकार का प्रोत्साहन देने के पक्ष में नहीं थी।

लार्ड डफरिन ने कांग्रेस को राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया था, इसके कार्यों को शंका की दृष्टि से देखने लगा। उसने कांग्रेस की निन्दा करते हुए कहा कि, मुझे उनका भारतीय जनता के प्रतिनिधित्व का दावा बेबुनियाद लगता है। कांग्रेस तो एक ऐसे नगण्य अल्पमत का प्रतिनिधित्व करती है, जिसको एक शानदार और विभिन्न रूपों वाले साम्राज्य के शासन की बागडोर हर्जिग नहीं दी जा सकती। इस सम्बन्ध में आंग्ल भारतीय समाचार-पत्रों ने यहाँ तक लिखा था कि, यह तो छिपे वेश में एक ऐसी राजद्रोही संस्था है, जिसे न तो जनता का प्रतिनिधित्व प्राप्त है और नही जिसका कोई मूल्य है। लार्ड कर्जन ने 1900 मे कहा कि, कांग्रेस अपनी मौत की घड़ियाँ गिन रही है। भारत में रहते हुए मेरी एक सबसे बड़ी इच्छा यह है कि उसे शान्तिपूर्वक मरने में मदद दे सकूं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ह्यूम के अतिरिक्त और कोई व्यक्ति कांग्रेस की स्थापना नहीं कर सकता था। गोपालकृष्ण गोखले के शब्दों में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कोई भारतीय कर ही नहीं सकता था। यदि ऐसा अखिल भारतीय आन्दोलन प्रारन्भ करने के लिए कोई भारतीय आगे आता, तो अधिकारी उसे अस्तित्व में आने ही नहीं देते। यदि कांग्रेस के संस्थापक एक महान अंग्रेज और अवकाश प्राप्त विशिष्ट अधिकारी न होते, तो चूँकि उन दिनों राजनैतिक आन्दोलन सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था, सरकार ने कोई न कोई बहाना तलाश कर इस आन्दोलन को दबा दिया होता।

कांग्रेस के प्रथम तीन अधिवेशनों में ब्रिटिश सरकार ने पूर्णरूप से सहयोग दिया था, किन्तु 1888 ई. से सरकार ने कांग्रेस के मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करना प्रारम्भ कर दिया। 1888 ई. में इलाहाबाद में कांग्रेस के अधिवेशन के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार ने उचित स्थान देने से इन्कार कर दिया, लेकिन दरभंगा नरेश ने लौदर कौंसिल हाऊस खरीदकर अधिवेशन के लिए कांग्रेस दे दिया। उस पश्चिमी सीमा प्रान्त के गवर्नर जनरल सर लाककैण्ड ने एक आदेश-पत्र द्वारा अंग्रेजों और सरकारी कर्मचारियों का कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेना निषिद्ध कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने देशी नरेशों तथा मुसलमानों से भी कांग्रेस से दूर रहने के लिए कहा। 1890 ई. में बंगाल सरकार के एक आदेश में कहा गया था कि भारत सरकार के आदेशों के अधीन कांग्रेस की बैठकों, दर्शक के रूप में सरकारी अधिकारियो की उपस्थिति वांछनीय नहीं है और इस प्रकार की बैठकों में उनके भाग लेने को निषेध किया जाता है।
ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को निर्बल बनाने के लिए मुसलमानों को उसके विरोध में संगठित होने की प्रेरणा दी। सन् 1888 के कांग्रेस के अधिवेशन में शेख रजा हुसैन खाँ ने इस सम्बन्ध में कहा था कि, ये मुसलमान नहीं, वरन् उनके सरकारी आका है, जो कांग्रेस का विरोध करते हैं। 1895 ई. के बाद अंग्रेज सरकार का कांग्रेस के प्रति रूख निरन्तर कठोर होता गया। कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के कार्यों की आलोचना करती थी। इसलिए सरकार ने इस संस्था का दमन करने का हर सम्भव प्रयास किया। ब्रिटिश सरकार ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के मुसलमानों को कांग्रेस के आन्दोलन से पृथक् रहने के लिए उकसाया और शिक्थि हिन्दुओं में भी मतभेद करने का प्रयास किया। भारत मन्त्री लार्ड हेमिल्टन के निर्देशन में लार्ड कर्जन की सरकार ने धनी भारतीयों पर कांग्रेस से दूर रहने के लिए दबाव डाला और कांग्रेस के विरोधी तत्वों को उपहार तथा उपाधियां दी। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने कांग्रेस की शक्ति को क्षीण करने के लिए हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विकास को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने 1888 ई. में सर सैयद अहमद खाँ से एंग्लो मुस्लिम डिफेंस एसोसियेशन की स्थापना इसलिए करवाई, ताकि कांग्रेस को निर्बल बनाया जा सके। अंग्रेजों ने कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था कहकर मुसलमानों को अपने हितों की रक्षा करने के लिए पृथक् संगठन बनाने की आवश्यकता पर जोर देकर उक्त संस्था बनवाई। इस प्रकार, अंग्रेजों ने भारत में फूट डाला और राज करो की नीति अपनाई। फिर भी कांग्रेस एक राष्ट्रीय संस्था बनी रही। अनेक राष्ट्रवादी मुसलमानों ने कांग्रेस का ही साथ दिया। इस प्रकार, कांग्रेस के प्रति ब्रिटिश सरकार का दृष्टिकोण प्रारम्भ में सहानुभूति पूर्ण था, परन्तु कुछ समय बाद ही उसने शत्रुता का रूप ग्रहण कर लिया। रैम्जे मैकडॉनल्ड के शब्दों में, प्रारम्भ में यह मित्रतापुरूण थी, लेकिन बाद में इसने कटु विरोध का रूप ग्रहण कर लिया। ब्रिटिश सराकार ने कांग्रेस का दमन करने का हर सम्भव प्रयास किया, परन्तु उसकी शक्ति में, कमी होने के बजाय वृद्धि होती गई। इसका प्रमुख कारण यह था कि कांग्रेस को मध्यम वर्ग के लोगों का सहयोग प्राप्त था। इसलिए ब्रिटिश सरकार को अपने उद्देश्य में असफलता ही हाथ लगी। डॉ. आर.सी. मजूमदार लिखते हैं कि, ब्रिटिश सरकार तथा नौकरशाही के कांग्रेस विरोधी षड्यन्त्र अपने उद्देश्य की पूर्ति में इसलिए सफल न हुए, क्योंकि वे यह बात जानने में असमर्थ रहे कि कांग्रेस की शक्ति का मूल आधार मध्यम वर्ग है, धनी-दानी लोग नहीं। कूपलैण्ड ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, कांग्रेस का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन के शत्रु के रूप में नहीं अपितु मित्र के रूप में हुआ था। यह तो बाद के कटु अनुभवों का फल था कि राष्ट्रीय शक्तियों ने अहिंसात्मक आन्दोलन का संगठन करके ब्रिटिश शासकों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया।

कांग्रेस के सम्बन्ध में सरकारी प्रतिक्रिय के बारे में डॉ. ताराचन्द ने लिखा है कि, सरकार की प्रतिक्रिया क्या रही। ब्रिटिश साम्राज्य की इमारत ताश की दीवार नहीं थी कि कांग्रेस का बिगुल बजते ही ढह जाए। 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में साम्राज्य अपनी शक्ति और सम्मान के सर्वोच्च शिखर पर था। ब्रिटेन में जो लगो इस मत के थे कि इंग्लैण्ड की अपने ही देश तक सीमित रहना चाहिए, वे कमजोर पड़ चुके थे तथा लिबरलों का एक प्रमुख गुट भी साम्राज्यवाद का पैरोकार हो चुका था। भारत सचिव सर्वशक्तिमान हो चुका था। उसके हाथों में अधिकार की सारी बागडोर आ गई थी और भारत सरकार महज लन्दन में लिए हुए फैसलों को क्रियान्वित करने का एक औजार मात्र हो गई थी। भारत सरकार ने, जो भारत सचिव को यहाँ के प्रतिनिधियों के लिए कलकत्ता में एक स्वागत समारोह किया। मद्रास के अगले वाले अधिवेशन में वहाँ के गवर्नर ने भी इसी प्रकार का शिष्टाचार किया। सरकारी अफसरों ने इन अधिवेशनों मे जाने दिया जाता था। पर 1888 तक रूख सम्पूर्ण रूप से बदल चुका था। जिन प्रस्तावो में जिम्मेदार सरकार की माँग की जाती थी तथा सरकारी कार्यों की आलोचना करते हुए व्याख्यान दिए जाते थे, विशेषकर साम्राज्य विस्तार नीति और युद्धों की निन्दा के प्रस्ताव, वे ब्रिटिश शासकों को बहुत अखरते थे। इससे भी अधिक नाराज वे उन पुस्तिकाओं पर हुए, जिनमें भारतीयों की शिकायतों का ब्यौरा था। कहना होगा कि पुस्तिकाओ का प्रकाशन लगातार राजनीतिक आन्दोलनों कीय जोना का एक अंश था। यह गतिविधि बढ़ते हुए तनाव तथा आन्दोलन की पूर्व सूचना थी एवं आयरलैण्ड के होमरूल आन्दोलन के साथ इसकी समता की जा सकती है।

इन सब बातों की डफरिन को कांग्रेस सचिव ह्यूम पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने सर हैनरीमैन को पत्र में लिखा, ह्यूम नाम का एक दृष्टि व्यक्ति है, जिसे लार्ड रिपन ने बहुत सिर पर चढ़ाया था और जिसके सम्बन्ध में यह मालूम होता है कि वह भारतीय होमरूल आनोदलन के मुख्य भड़काने वालों में है, यह बहुत ही चालक, पर कुछ सिरफिरा, अहंकारी और नैतिकता हीन व्यक्ति है, जिसे सत्य की कोई परवाह नहीं है। इस बात से सहमत सर हैनरीमैन ने डफरीन को लिखा, एक दुःखद बात यह है कि जिस आदर्श की तरफ भारत के शिक्षित लोग लपर रहे हैं, वह ब्लिकुल ही अपर्याप्त हैं। यह कैसे हो सकता है कि 18 करोड़ लोग अपना शासन करें। जिम्मेदारी और प्रतिनिधि ऐसे शब्द, इतने बड़े समुह पर लागू किए जाने पर बिल्कुल अपना अर्थ खो देते हैं। यद्यपि शिक्षित भारतीयों ने हमारी लोकतान्त्रिक भाषा का प्रयोग करना सीख लिया है, वे वाकई एक अल्पतर्न्त लागू करना चाहते हैं। में सम्झता हूँ कि कुल मिलाकर विश्वविद्यालयों में पढ़े हुए भारतीयों की संख्या 5,000 से अधिक नहीं होगी। पर कोई भी ऐसा तन्त्र, जिसमें 5000 व्यक्ति 18 करोड़ लोगों पर शासन कर सकते हो, लोकतन्त्र नहीं, अल्पतन्त्र हैं, जो न शक्ति शाली है और न जनता का प्रतिनिधि और न सामाजिक सुधारों का इच्छुक ही। इसके अलावा वह किसी सामाजिक सुधार के प्रति मित्रतापूर्ण रूख नहीं रखता है।

डफरिन ने नार्थब्रुक को सूचना दी, मैने बहुत प्रयत्न के साथ लोगों में उग्र परिवर्तनों की इच्छा की रोकथाम की है और मैंने ऐसी आशाओं तथा आकांक्षाओं को भी नहीं पनपने दिया, जिन्हें शायद पूरा करना सम्भव न हो। बंगाल के उग्र वर्ग के सम्बन्ध में गवर्नर जनरल ने महारानी को लिखा, यह ऐसा वर्ग है, जो बराबर पूर्ण शक्तियुक्त विधायक संस्थाओं के लिए हल्ला मचा रहा है। फिर उन्होंने कहा, एक छोटा-सा गुट...इसका प्रभाव इतना कम है और इसकी संख्या इतनी थोड़ी है कि वे कुछ भी नहीं कर पाएँ। इसके बाद भी उन्होंने जुबली के अवसर पर जनता को बहलाने हेतु कहा, हम जिस युग पर विचार कर रहै हैं, उसमें शिक्षा ने अपना कार्य किया है और हमारे चारों ओर ऐसे योग्य तथा बुद्धिमान भ्रद देशी पुरूष हैं, जिसनी हार्दिक राजभक्ति और सच्चे सहयोग से हमें बहुत लाभ हो सकता है। वास्तव में हमारे प्रशासन के विशिष्ट रूप को देखते हुए उनकी सलाह, सहायता और मेल हमारे कार्यों के लिए बहुत आवश्यक है। उन लोगों में जो यह स्वाभाविक आकांक्षा है कि वे अपने घरेलु मामलों के प्रशासन में अपने अंग्रेज शासकों के साथ अधिकाधिक संयुक्त किया जाए, उसे में अवश्य स्वीकार करता हूँ और मुझे आनन्द तथा खुशी होगी यदि मेरे भारत निवास के दौरान ऐसी स्थित उत्पन्न हो कि लार्ड हैलीफैक्स ने एक पुश्त पहले प्रभावशाली, बुद्धिमान तता देशवासियों के विश्वासपात्र भारतीयों को कौंसिलों में लेकर जो राजनैतिक रूतबा दिया था, उसमें ओर वृद्धि हो सके।

इस भाषण के एक माह पश्चात् उन्होंने भारत सचिव से कहा कि, इसके अलावा आपको यह समझना चाहिए कि न केवल बंगाली बाबू यह हल्ला मचा रहे हैं, बल्कि सारे शिक्षित भारतीय, जिसमें मुसलमान भी शामिल है, यह चाहते हैं कि अपने घरेलु मामलों के सम्बन्ध में उन्हें और आवाज मिले, पर अंग्रेजों का अधिकार सर्वोपरि रखने में वे बहुत जोरों से विश्वास रखते हैं। उन्होंने कहा, अवश्य मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि भारतीय जनता की भलाई वस्तुतः ब्रिटिश न्याय तथा ब्रिटश प्रशासनिक कुशलता से होती है, इसलिए इन दोनों तत्त्वों की प्रधानता हर हाल में बनाई रखी जाए। उन्होंने राष्ट्रीय कांग्रेस को निम्न संज्ञाएँ दी, बचकाना, इटन और हैरों की वाद-विवाद सभा, पागलों की सभा, जिसमें जो सबसे गरम और मूर्खतापूर्ण बात करे, उसी की तूती बोलती है, बाबओं की संसद, खूर्दबीन से देखी जाने वाली अल्प संख्या।
लैंसडाउन ने 1890 ई. में कांग्रेस के सम्बन्ध में कहा था, भारत सरकर यह स्वीकार करती है कि कांग्रेस भारत के उस आन्दोलन का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे यूरोप में आगे बढ़े हुए लिबरल कहा जाएगा। इसके साथ ही भारत में बहुत बड़ी संख्या में कंजरेटिव विचारों के लोग भी है और जब तक वे वैधानिक सीमा के अन्दर रहे, सरकार दोनों से निष्पक्षात बरतेगी।
कुछ समय पश्चात् कर्जन ने भारत सचिव को लिखा था कि, कांग्रेस की मौत बहुत करीब है। मेरा यह विश्वास है कि कांग्रेस लडखड़ाती हुई पतन की ओर जा रही है और मेरी एक महान आकांक्षा यह है कि भारत में रहने समय उसकी शांतिमय मौत में मैं सहायता दे सकूँ।


उदारवादियों की माँगे
कांग्रेस के शासन के सभी क्षेत्रों में सुधारों की माँग की। उनकी मुख्य माँगों को डॉ. रघुवंशी एव लालबहादुर ने इस प्रकार व्यक्त किया है, धारासभाओं का विस्तार हो और उसमें जनता के निर्वाचित सदस्य हो, केन्द्रीय और प्रान्तीय कार्यकारिणी सभाओं में भारतीयों की संख्या में वृद्धि, जूरी द्वारा न्याय व्यवस्था तथा प्रचार, भारत मन्त्री की परिषद् और प्रिवी कौंसिल में भारतीयों की नियुक्ति, भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा भारत में भी हो, भारतीयों के लिए सैनिक शिक्षा की योजना और नौकरियों का भारतीयकरण। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार के सामने निम्न माँगे रखीं
(1) भारतीय शासन के निरीक्षण हेतु एक रॉयल कमीशन नियुक्त किया जाए।
(2) भारत में सैनिक शिक्षा देने हेतु स्कूल स्थापित किए जाए।
(3) कृषि पर भार कम करने तथा बेरोजगारी दूर करने हेतु नए उद्योग स्थापित करना एवं पुराने उद्योगों को पुनर्जीवन डालना।
(4) इण्डिया कौंसिल का अन्त कर दिया जाए।
(5) औद्योगिक शिक्षा एवं कुटीर उद्योंगो को प्रोत्साहन देने हेतु देश में टेक्नीकल स्कूलों की स्थापना हो।
(6) धारा सभाओं में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाई जाए एवं उनके अधिकारों की वृद्धि की जाए।
(7) प्रेस पर लगाए प्रतिबन्ध समाप्त किए जाए।
(8) स्थानीय स्वशासन स्थापित किए जाए।
(9) केन्द्रीय एवं प्रान्तीय धारा सभाओं में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाए।
(10) सार्वजनिक सेवाओं में भारतीयों को भी अंग्रेजों के समान नियुक्त किया जाए तथा भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश की आयु में वृद्धि हो व इनकी परीक्षा भारत में भी आयोजित कि जाए।
(11) शस्त्र कानून में परिवर्तन हो।
(12) विदेशी माल पर ज्यादा कर लगाया जाए।
(13) कार्यपालिका व न्यायपालिका का पृथक्करण हो।
(14) न्याय व्यवस्था पर जूरी का नियन्त्रण स्थापित किया जाए।
(15) शासन व सेना सम्बन्धी व्यय घटाया जाए।
(16) भारत मन्त्र को वेतन इंग्लैण्ड के कोष से दिया जाए।
(17) भारत की निर्धनता को दूर किया जाए।
(18) भारत सरिव की कौंसिल तथा प्रिवी कौसिल में भारतीयों को नियुक्त किया जाए।
(19) नमक कर में कमी की जाए।
(20) तीसरी श्रेणी के रेलयात्रियों की सुविधा भी वृद्धि की जाए।
(21) पुलिस प्रबन्ध में सुधार किए जाए।
(22) विदेशों को अनाज का निर्यान नहीं किया जाए।
(23) विदेशों में निवास करने वाले भारतीयों की सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।
(24) जनता पर से करों का बोझ घटाया जाए।
(25) किसानों को जमीनदारों के शोषण से बचाया जाए।
(26) किसानों को ऋण देने हेतु कृषि बैकों की स्थापना की जाए।
(27) भूमि कर में कमी की जाए।
(28) कृषि के विकास हेतु सिंचाई का प्रबन्ध किया जाए।

उदारवादियों की कार्य प्रणाली

उदारवादी कांग्रेस का अधिवेशन बुलाकर प्रस्ताव पारित करते थे। इन प्रस्तावों से जनता को परिचित करवाने हेतु उन्हें समाचार-पत्रों में प्रकाशित करवाया जाता था। वे अपनी माँगों को अत्यन्त नम्रातापूर्वक प्रार्थना-पत्रों से ब्रिटिश सरकार को परिचित करवाते थे। इन प्रार्थना-पत्रों में कहा जात था, हम हमारे लोकप्रिय सरकार से प्रार्थना करते हैं कि...उपर्युक्त सुधारों को लागू करने की कृपा कर हमें अनुग्रहीत करें। इसके अतिरिक्त भारतीय समस्याओं से ब्रिटिश सरकार को परिचित करवाने हेतु कांग्रेस अपने शिष्ट मण्डल भी इंग्लैण्ड भेजती थी। कांग्रेश के शैशव काल में उससे अधिक आशा नहीं की जा सकती थी।
श्री गोपालकृष्ण गोखले ने ठीक ही कहा था कि, हम भिखमंगे नहीं हैं और हमारी नीति भिख्रारीपन की नहीं हैं। हम विदेशी दरबार में अपनी जनता के राजदूत हैं। हमारा काम अपने देश की जनता के हितों की देखभाल करना है और इसके लिए जितना अधिक से अधिक प्राप्त कर सकते हैं, प्राप्त करना है। कांग्रेस के तृतीय अधिवेशन में भाषण देते हुए पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा, यद्यपि अभी तक हमें अपने प्रयत्नों में सफलता नहीं मिली हैं, पर हमें केवल यह करना है कि हम अपनी माँगे सरकार के सम्मुख पुनः रखें तथा उन पर अर्थात् अपनी प्रार्थानाओं पर शीघ्रतम् विचार करने का आग्रह करें।

ब्रिटिश जनता में प्रचार करना
दादाभाई नौराजी, ए.ओ. ह्यूम, मि. वेडरबर्न आदि उदारवादी नेताओं का विचार था कि कांग्रेस को ब्रिटन की जनता को वास्तविक स्थिति से परिचित करवाने के लिए इंग्लैण्ड में अधिक से अधिक प्रचार करना चाहिए, तभी कांग्रेस की सफलता सम्भव है। अतः उन्होंने इंग्लैण्ड में अनेक संस्थाएँ स्थापित कीं. 1887 ई. में दादाभाई नौरोजी ने लन्दन में भारतीय सुधार समिति स्थापित की। इस समिति के उद्देश्यों के सम्बन्ध में कांग्रेस के द्वारा किए गए कोई भी वैधानिक प्रयत्न अधिक प्रभावशाली और लाभदायक होंगे। दादाभाई नौरोजी ने इंग्लैण्ड में 1888 ई. में इण्डियन एजेन्सी की स्थापना की, जिसका अध्यक्ष विलियम डिग्वी को बनाया गया। यह आगे जाकर कांग्रेस की ब्रिटिश समिति कहलाई, जिसके अनेक अंग्रेज सदस्य बन गए। इस समिति ने इण्डिय नामक समाचार-पत्र प्रकाशित करके इंग्लैण्ड की जनता को भारतीय समस्याओं से अवगत कराया। यह समाचार-पत्र बहुत लोकप्रिय हुआ।

कांग्रेस ने समय-समय पर अपने शिष्ट मण्डल इंग्लैण्ड भेजे। 1890 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, डब्ल्यू. सी., बनर्जी, ए.ओ. ह्यूम आदि को कांग्रेस ने शिष्ट मण्डल में इंग्लैण्ड भेजा गया। इन लोगों ने अपने भाषणों द्वारा ब्रिटिश जनता के सामने भारतीय समस्याओं को रखा। विपिनचन्द्र पाल ने 1889 ई. में इंग्लैण्ड की यात्रा कर वहाँ के जनमत को बहुत प्रभावित किया। इसके फलस्वरूप ब्रिटेन में भारतीय माँगों से सहानुभूति रखने वाला एक वर्ग बन गया।


उदारवाद के सिद्धान्त का विचार

कांग्रेस के आरम्भ के 20 वर्षों (1885-1905 ई.) तक उस पर उदारवाद का प्रभाव रहा। उदारवाद के सिद्धान्त अथवा उदारवादियों के विचारों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता हैः


(1) राजभक्त
कांग्रेस के उदारवादी नेताओं पर पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति का बहुत प्रभाव था। वे राजभक्त थे। उनकी यह धारणा थी कि ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में शिक्षा, संचार, यातायात आदि का विकास करने के कारण ही भारत का आधुनिकीकरण सम्भव हो पाया है। अतः ब्रिटिश शासन भारत के लिए वरदान है। गोखले ने जुलाई, 1909 में पूना में बोतले हुए कहा था- हमारा सार्वजनिक जीवन ब्रिटिश शासन की निष्कपट एवं सच्ची राजभक्ति से पूर्ण स्वीकृति पर आधारित है, क्योंकि हम इस बात को महसूस करते हैं कि एक मात्र ब्रिटिश शासन ही इस देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था को कायम रखने में समर्थ है और जिसके बिना भारत जैसे देश में, जहाँ अनेक धर्मो को मानने वाले और अनेक भाषाओं को बोलने वाले रहते हैं, एक राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। हमें इस बात को महसूस करना चाहिए कि यद्यपि विदेशी होने के कारण ब्रिटिश शासन में कुछ अवश्यम्भावी दोष है, तथापि ब्रिटिश शासन कुल मिलाकर हम भारतवासियों के लिए प्रगति का कारण सिद्ध हुआ है।
दादाभाई नौरोजी ने एक बार कहा था, हमें यह बात निर्भीकतापूर्वक कहनी चाहिये और इसकी घोषणा करनी चाहिये की हमारी राजभक्ति अटल है और ब्रिटिश शासन से हमें जो लाभ हुआ है, उसके प्रति हम जागरूक हैं। इसी प्रकार सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने भी ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति प्रकट करते उन्होंने कहा, ब्रिटिश सरकार के साथ सम्बन्ध बनाए रखने के लिए हमें अनन्य राज-भक्ति के साथ कार्य करना चाहिए...हम ब्रिटिश सरकार के साथ सम्बन्ध-विच्छेदन करने की बात नहीं सोच रहे हैं, वरन् उसके साथ स्थायी सम्बन्ध बनाऐ रखना चाहते हैं, जिसने शेष संसार के सामने स्वतन्त्र संस्थाओ का आदर्श उपस्थित किया है।

(2) ब्रिटिश जाति की न्यायप्रियता में आस्था
उदारवादी नेताओं की अंग्रेज जाति की न्यायप्रियता में गहरी आस्था थी। उनका मानना था कि स्वयं अंग्रेज स्वतन्त्रता प्रेमी हैं एव यह विश्वास होने पर कि भारतीय लोग स्वशासन के योग्य हो गए हैं, वे स्वयं भारतीयों को स्वशासन सौंप देंगे। इस विश्वास से कांग्रेस सरकार की सहानुभूति एवं ब्रिटिश जनता का समर्थन पाने के लिए प्रयास करती रही। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार, उदारवादी नेता इस बात पर विश्वास करते थे कि अंग्रेज स्वभाव से ही न्यायप्रिय होते हैं। अतः यदि उन्हें भारतीय दृष्टिकोण का सही ज्ञान करा दिया जाए, तो वे भारतीय दृष्टिकोण को स्वीकार कर लेंगे। गोपालकृष्ण गोखले ने फीरजोशाह मेहता के शब्दों में, मुझे इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि ब्रिटिश अन्त में जाकर हमारी पुकार पर अवश्य ध्यान देंगे। कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में सर टी. माधवराव ने कहा था, कांग्रेस ब्रिटिश सासन का सर्वोच्च शिखर और ब्रिटिश जाति का कीर्तिमुकुट है।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार, अंग्रेजों की न्याय, दया तथा बुद्धि की भावना में हमारा दृढ़ विश्वास है। संसार की महानतम् प्रतिनिधि सभा, संसदों की जननी, ब्रिटिश कॉमन्स सबा के प्रति हमारे हृदय में श्रद्धा है। अंग्रेजों ने सर्वत्र प्रतिनिध्यात्मक आदर्श पर ही शासन की रचना की है। कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में रहीम तुल्ला सयानी ने कहा, अंग्रेजों से बढ़कर सच्चरित्र तथा सच्ची जाति इस सूर्य के प्रकाश के नीचे नहीं बसती। दादाभाई नौरोजी ने कहा था, यद्यपि जॉन बुल (ब्रिटिश राष्ट्र) तनिक बुद्धि के है, परन्तु यदि उसे एक बार कोई बात सुझा दी जाए तो वह अच्छी और उचित है, तो आप उसे कार्यरूप में परिणित किए जाए के प्रति विश्वस्त हो सकते हैं। उनका यह भी मानना था कि, मैं आशा करता हूँ कि वह दिन दूर नहीं है, जबकि अंग्रेज स्वेच्छा से भारत से चले जाएँगे। इस प्रकार उनका अंग्रेजों की न्यायप्रियता में अटल विश्वास था।

(3) इंग्लैण्ड से सम्बन्ध भात के लिए हितकारी
उदारवादियों पर पाश्चात्य शिक्षा का बहुत प्रभाव था। उनकी धारणा थी कि अंग्रेजी साहित्य, शिक्षा पद्धति, यातायात एवं संचार के साधनों का विकास, न्याय प्रणाली, स्थानीय स्वशासन आदि ब्रिटेन की देने है, अतः ब्रिटेन से सम्बन्ध बनाए रखना भारत के हित में है। उनका माना था कि भारत अपनी एकता ब्रिटिश शासन में ही बनाए रख सकता है तथा उसका विकास भी ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत ही सम्भव है। उनकी धारणा थी कि पाश्चात्य सभ्यता व शिक्षा लोकतन्त्र के प्रति रूचि उत्पन्न करती है, अतः यह हितकारी है। इस वातावरण की लार्ड रोनल्ड शे ने मनोरंजक व्याख्या की है, अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय समाज की पुरानी बोतल में नई शराब भरने का कार्य किया, जिसके कारण नई पीढ़ी के दिमाग पलट गए। 19वीं शताब्दी के मध्य तक बौद्धिक अराजकता का काल आरम्भ हो गया था, जिसने नई पीढ़ी को प्रभावित किया. पाश्चात्य सभ्यता एक फैशन की वस्तु बन गई थी और इसने अपने प्रशंसकों को अपने देश की ऊँची आवाज में निन्दा करने को प्रेरित किया। पश्चिम की हर चीज के प्रति जितना तीव्र अनराग उनमें होता था, उतनी तीव्रता से वे पूर्व की प्रत्येक वस्तु की निन्दा करते थे। परन्तु यही शिक्षा भारत में राष्ट्रीयता के विकास के लिए वरदान सिद्ध हुई।
1905 में कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए गोखले ने कहा, हमें यह मानना पड़ेगा कि ब्रिटिश शासन विदेशी होने के कारण अपनी कमियों के होते हुए भी देशवासियों की प्रगति में एक बहुत बड़ा साधन रहा है। उसके जारी रहने का अर्थ उस शान्ति और व्यवस्था के जारी रहने से है, जिन्हें केवल यही कायम रख सकता है और जिनके साथ महारे श्रेष्ठ हित बंध हैं। कांग्रेस के छठे अधिवेशन की अध्यक्था करते हुए फीरोजशाह मेहता ने कहा था, इंग्लैण्ड और भारत का सम्बन्ध इन दोनों देशों और समस्त विश्‍व की अपने वाली पीढ़ियों के लिए वरदान होगा। दादाभाई नौरोजी ने कहा था, कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह करने वाली संस्था नहीं है, यह तो ब्रिटिश सरकार की नींव को दृढ़ करना चाहती है। श्रीमती एनीबेसेण्ट के शब्दों में, इस युग के नेता अपने को ब्रिटिश प्रजा मानने में गौरव का अनुभव करते थे।

(4) क्रमिक रूप से सुधारों में विश्वास
उदारवादी नेता प्रशासन में क्रमिक सुधारों में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि भारतीयों को एकदम स्वशासन की माँग नहीं करनी चाहिए, बल्कि पहले शासन में भाग लेना चाहिए। इसमें उन्हें स्वशासन का प्रशिक्षण मिल जाएगा। तत्पपश्चात् उन्हें स्वशासन की माँग करनी चाहिए। अतः वे विधान परिषदों, प्रशासन, रक्षा सेवाओं, स्थानीय संस्थाओं आदि में आवश्यक सुधार से ही सन्तुष्ट रहे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के शब्दों में, भारतीयों को तत्कालीन रूप से केवल ह आशंका है कि सरकार के आधार को अधिक विस्तृत किया जाए तथा जनता का उनमें समुचित भाग हो।
1906 के कांग्रेस के अधिवेशन में ब्रिटिश शासन की अधीनता में स्वशासन की माँग की गई। यह भी माना जाता है कि इस हेतु भारतीयों को प्रशिक्षण की आवश्यकता है। इस प्रकार उदारवादी क्रमिक एवं वैधानिक सुधारों में विश्वास रखते थे। किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन में उनका विश्वास नहीं था। आर.जी. प्रधान ने लिखा है, यहि हम कांग्रेस की प्रारम्भिक कार्यवाहियों को देखें, तो पाते हैं कि उनकी माँगे अत्याधिक नरम थीं। कांग्रेस के प्रारम्भिक संगठन और समर्थक आदर्शवादी नहीं, वरन् व्यावहारिक सुधारवादी थे और वे क्रमबद्ध सुधार के मार्ग में विश्वास रखते थे। अयोध्या सिंह के शब्दों में, उदारवादी नेता देश की स्वतन्त्रता और ब्रिटिश राज्य के अन्त की माँग नहीं करते थे। स्वतन्त्रता और स्वाधीन भारत उनका लक्ष्य भी न था। कांग्रेस नेताओं ने बार-बार स्पष्ट कहा कि वे क्रान्ति नहीं चाहते, स्वतन्त्रता नहीं चाहते, नया संविधान भी नहीं चाहते, सिर्फ केन्द्र और प्रान्तों की कौंसिलों में भारतीयों के प्रतिनिधि चाहते हैं।

(5) राजनीतिक लक्ष्य
उदारवादियों का अन्तिम लक्ष्य भारत के लिए स्वशासन प्राप्त करना था। वे ब्रिटेन की शासन पद्धति एवं संस्थाओं से परिचित थे, अतः वे संसदात्मक प्रजातन्त्र एवं स्वशासन से बहुत प्रभावित थे। भारतीयों को स्वशासन का पर्याप्त प्रशिक्षण मिल चुका था एवं भात स्वशासन के योग्य हो चुका था। श्रीमती एनीबेसेण्ट ने कहा था, स्वतन्त्र संस्थाएँ मानसिक और नैतिक अनुशासन की सर्वोत्तम शिक्षण संस्थाएँ है। कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था, स्वशासन एक प्राकृतिक देन है, ईश्वरीय शक्ति की कामना है। प्रत्येक राष्ट्र को स्वयं ही अपने भाग्य का निर्णय करना चाहिए। उनका यह विचार था, स्वशासन में भारतीयों के लिए को नई व्यवस्था नहीं तथा स्वतन्त्र संस्थाएँ देश के बौद्धिक तथा नैतिक संयम की सबसे अच्छी पाठशालाएँ होती हैं। इसके बिना स्वस्थ राष्ट्रीय जीवन सम्भव नहीं। 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए दादाभाई नौरोजी ने पहली बार कहा, कांग्रेस का उद्देश्य संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उपनिवेशों की तरह स्वशासन प्राप्त करना है।

(6) उदारवादियों के साधन
उदारवादियों ने संवैधानिक साधनों को अपनाया। वे हिंसा तथा क्रान्तिकारी मार्ग के विरूद्ध थे तथा सरकार से संघर्ष में उनका विश्वास नहीं था। वे अपनी माँगों को नरम भाषा में प्रार्थना-पत्रों, स्मृति-पत्रों एव शिष्ट मण्डलों के द्वारा सरकार के समक्ष रखते थे। उग्रवादियं ने उने उसे राजनीतिक भिक्षावृत्ति कह कर पुकारा। पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, उदारवादी अधिकारियों के समक्ष देश और जनता के दुःखों और कष्टों को ठोस तथ्य के रूप में रखते थे और उनके पक्ष में अकाट्य तर्क पेश करते थे तथा वे शासन से इस बात की प्रार्थना करते थे कि वह उनकी माँगों को शीघ्र से शीघ्र पूरा करने का आश्वसान दें। उदारवादी सरकार से संघर्ष के विरूद्ध थे। कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में पण्डित मदनमोहन मालवीय ने कहा था, हमें सरकार से बार-बार निवेदन करना चाहिए कि वह अपनी माँगों पर शीघ्रता से विचार करे तथा फिर हम अपनी इन सुधार सम्बन्धी माँगों को स्वीकार करने पर जोर दे। उदारवादी अपनी माँगे मनवाने का हरसम्भव प्रयत्न् करते थे। कांग्रेस के 1906 के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए दादाभाई नौरोजी ने कहा, शान्ति प्रिय विधि ही इंग्लैण्ड के राजनीतिक, सामाजिक और औद्योगिक इतिहास की जीवन और आत्मा है। इसलिए हमें भी उस सभ्य, शान्तिप्रिय और नैतिक शक्ति रूपी अस्त्र को प्रयोग में लाना चाहिए।


उदारवादियों की दुर्बलताएँ अथवा त्रुटियाँ
अनेक इतिहासकार मानते हैं कि राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में उदारवाद का युग कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है। इस काल में कांग्रेस जनता की संस्था नहीं बन पाई थी और उसका प्रभाव भी सीमित थ। इन उदारवादी नेताओं में परस्पर दो विरोधी भावनाएँ विद्यमान थी-प्रथम, देशभक्ति एवं द्वितीय, राजभक्ति। उनकी देशभक्ति एवं राजभक्ति का मेल हो जाने के कारम देशभक्ति आंशिक रह गई थी। उनके साधन भी प्रभावशाली न थे, अतः वे अपने उद्देश्य में विफल रहे। उदारवादी अंग्रेजों की न्यायप्रियता में अगाध आस्था रखते थे एवं उनके शासन को भारत के लिए हितकर मानते थे। वे भूल गए थे कि अंग्रेज अपने राष्ट्रीय हितों को प्रमुखता देंगे। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत का आर्थिक शोषण करना था। उन्हों ने शिक्षा, यातायात, संचार आदि का विकास अपने साम्राज्य की सुरक्षा एवं उसे सुदृढ़ बनाने के लिए किया था। उन्होंने शिक्षित भारतीयों को राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक् रखने हेतु उन्हें प्रशासन में नियुक्त किया।
इन उदारवादियों की माँगों पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। ये उदारवादी घनी होते हुए भी न तो कोई प्रत्यक्ष कार्यवाही कर सकते थे और न ही किसी प्रकार का बलिदान कर सकते थे। गुरूमुख निहालसिंह ने लिखा है, सम्भवतः गोखले को छोड़कर कांग्रेस के नरम नेताओं में स्वतन्त्रता के लिए व्यक्तिगत बलिदान करने और आपत्तियाँ सहन करने की कोई तैयार नहीं था। इस प्रकार उदारवादी पूर्णतः विफल रहे। वास्तविकता तो यह थी कि अंग्रेज दबाव और शक्ति की भाषा समझते थे, प्रार्थना की नहीं।

उदारवादियों की सफलताएँ या देन

अधिकांश इतिहासकारों ने यह कहकर कि उदारवादी अपने लक्ष्य की पूर्ति में विफल रहे, उदारवादी युग को महत्त्वहीन माना है। जिन परिस्थितियों में उदारवादियों ने नम्रता की नीति अपनाई, वह पूर्णतः उचित थी। यदि कांग्रेस के जनसाधारण की संस्था बनने से पूर्व ही स्वतन्त्रता की माँग शुरू कर दी जाती, तो यह उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता था। अतः उदारवादियों ने प्रशासन द्वारा अपनाया गया मार्ग नितान्त बुद्धिमत्तापूर्ण था। उदारवादियों ने प्रशासन में क्रमिक सुधारों की माँग कर स्वशासन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन में उदारवादियों की देन का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है।
(1) ब्रिटिश प्रशासन के दोषों को प्रकट करना
उदारवादियों ने ब्रिटिश शासन के दोषों को जनता के सामने रखा। ब्रिटिश शासन के दोष स्पष्ट होने पर उग्रवादियों को प्रेरणा मिली। अतः आगे चलकर उन्होंने अंग्रेजों का प्रतिरोध किया। इस प्रकार अपने आरम्भिक समय में कांग्रेस सरकार का एक प्रतिपक्ष बन गई, किन्तु वह कोई मित्रतापूर्ण परामर्शदाता प्रतिपक्ष न बनी, अपितु वह एक ऐसा प्रतिपक्ष बनी, जिसने सरकार की हैसियत और अधिकार को चुनौती दी।
(2) राष्ट्रीयता को पोत्साहन
उदारवादियों ने भारत में राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने देशवासियो को जाति एवं धर्म के भेदभावों से ऊपर उठकर अपने हृदय में राष्ट्रीय भावना विकसित करने को कहा। अतः भारत में राष्ट्रीयता का विकास हुआ तथा स्वशासन व प्रशासनिक सुधारों की माँग होने लगी। उदारवादियों को भारतीय राष्ट्रीयता का जनक कहा जा सकता है। श्री गुरूमुख निहालसिंह के अनुसार, प्रारम्भिक कांग्रेस ने राज्य भक्ति की प्रतिज्ञाओं नरम नीति आवेदन ही नहीं, अपितु भिक्षावृत्ति के बावजूद भी उन दिनों राष्ट्रीय जागरण, राजनीतिक शिक्षा, भारतीयों को एकता के सूत्र में आबद्ध रखने तथा उनमें सामान्य राष्ट्रीयता की भावना का निर्माण करने में कठिन परिश्रम किया था।

(3) राजनीतिक शिक्षा
उदारवादी आन्दोलन से देश के भिन्न-भिन्न भागों के व्यक्ति परस्पर निकट आए तथा एक-दूसरे के विचारों व दृष्टिकोणों को समझने का अवसर मिला। उन्होंने प्रशासनिक सुधार व स्वशासन की माँग की तथा भारतीयों को व्यग्तिगत स्वन्त्रता, प्रजातन्त्रात्मक शासन आदि बातों से परिचित करवाया। भले ही वे जनमत को प्रचलित करने में पर्याप्त सफल न रहे हों, किन्तु उन्हें राजनीतिक शिक्षा देने में सफल रहे। डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार, उदारवादियों की कार्यपद्धति का उपहास उड़ाए जाने के बावजूद इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने राष्ट्रीय जीवन के उत्थान के लिए आवश्यक मानवीय शक्ति और अन्य साधनों की व्यवस्था की है। डॉ. रासबिहारी घोष के अनुसार, हमें अनेक कार्यों और कर्तव्य भावना की प्रशंसा करनी चाहिए।
(4) स्वतन्त्रता संग्राम की आधारशिला की स्थापना
उदारवादियों ने एक ऐसी आधारशिला तैयार कर दी थी, जिस पर चलकर ही भविष्य में स्वतन्त्रता प्राप्त की जा सकती थी। श्रीमती एनीबेसेण्ट ने लिखा है, उदारवादियों ने ही हमें इस योग्य बनाया है कि हम स्वतन्त्रता की माँग सरकार के समक्ष रख सकें। के.एम. मुन्शी ने लिखा है, यदि पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस के रूप में एक अखिल भारतीय संस्ता देश के राजनीतिक क्षेत्र में कार्यरत न होती, तो ऐसी अवस्था में गाँधीजी का कोई भी महान आन्दोलन सफल न हो पाता। उदावादियों की भिक्षावृत्ति की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, जिस समय भारत के राजनीतिक क्षेत्र में उन्होंने पदार्पण किया, उस समय वे अकेले थे। उन्होंने जो नीतियाँ अपनाई, उसके लिए हम उन्हें कोई दोष नहीं दे सकते। किसी भी आधुनिक इमारत की नींव में 6 फूट नीचे जो ईंट, चुना और पत्थर गड़े हैं, क्या उन पर कोई दोष लगाया जा सकता है, क्योंकि वे ही तो आधार हैं, जिसके ऊपर सारी इमारत ख़ड़ी हो सकती है। सर्वप्रथम औपनिवेशिक स्वशासन, फिर साम्राज्य के अन्तर्गत होमरूल, इसके बाद स्वराज तथा सबसे शीर्ष पर पूर्ण स्वाधीनता की मंजिले एक के बाद एक ही बन सकी हैं।

विपिनचन्द्र पाल ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, 1885 से 1905 तक का काल भारतीय राष्ट्रवाद में बीजरोपण का काल था और पारम्भ काल के राष्ट्रवादियों ने ये बीज गहरे तथा सुचारू रीति से बोये।
(5) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892
उदारवादियों द्वारा प्रशासन में सुधार के लिए की जा रही माँगों को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने 1892 ई. में भारतीय परिषद् अधिनियम पारित किया। इसके द्वारा भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों में वृद्धि की गई। श्री गुरूमुख निहालसिंह ने लिखा है, 1892 का अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रयत्नों का परिणाम था।
डॉ. कश्यप ने इस अधिनियम के आधार पर कांग्रेस की सफलता का मूल्यांकन किया है। उन्होने लिखा है कि, यद्यपि 1892 के अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के सदस्यों को दिए गए अधिकार अत्यन्त सीमित थे तथा अब भी उन्हें मतदान करने, प्रस्ताव अथवा विधेयक उपस्थित करने तथा पूरक प्रश्न आदि के आवश्यक अधिकार नहीं मिले थे, किन्तु इतना निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि 1892 के अधिनियम ने यह स्वीकार कर लिया था कि विधान परिषदों का कार्य केवल मात्र विधायी अथवा परामर्श देने का नहीं था और इस दृष्टि से यह अधिनियम प्रतिनिधिक अंक का समावेश किया तथा भारतीय सदस्यों को भी सरकारी विधेयकों पर तथा बजट जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार प्रकट करने तथा सरकार के कृत्यों के बारे में प्रश्न पूछने के कुछ न कुछ अधिकार प्रदान किए। निःसन्देह यह अधिनयिम संवैधानिक सुधारों की दिशा में प्रगति का चरण था। किन्तु आज जह हम देखते हैं तो यह लगता है कि जो कुछ किया गया, वह सारहीन और खोखला था। वस्तुतः उस समय भी वह कांग्रेस की माँग और आशाओं से बहुत कम था। विधान परिषदों के गैर सरकारी सदस्यों के भाषणों में, तत्कालीन समाचार-पत्रों में छपे लेखों तथा भारतीय कांग्रेस की बैठकों में व्याख्यानों और प्रस्तावों आदि सभी में 1892 के सुधारों के प्रति अपर्याप्तता और असन्तोष का बाव साफ-साफ अभिव्यक्त किया गया था। यद्यपि यह अधिनियम भारतीयों को सन्तुष्ट न कर सका, फिर बी देश के वैधानिक विकास की दिशा में यह पहला कदम था। उसे उदारवादियों की तात्कालिक सफलता कहा जा सकता है।

यद्यपि यह सत्य है कि उदार राष्ट्रवादी आन्दोलन में कई कमिया ँ थीं, तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उसने भारत में राष्ट्रीय जाग्रति की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। अतः साधारण सफलताओं के बावजूद भी इस युग का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में विशेष महत्त्व है। उदारवादियों की सफलता का वर्णन करते हुए रघुवंशी एवं लाल बहादुर ने लिखा है, राष्ट्रीय आन्दोलन के आरम्भिक काल के नेताओं की कड़ी आलोचना करना सरल है, लेकिन हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके अथक परिश्रम के बिना राष्ट्रीयता का बीज, जो बाद में राष्ट्र सेवा का एक शक्तिशाली वृक्ष सिद्ध हुआ, न पनपने पाता।
प्रारम्भिक चरण के नेताओं के कार्य-कलाप की सुन्दर समीक्षा गोपालकृष्ण गोखले के निम्नलिखित शब्दों में मिलती है, हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि हम लोग इस देश की प्रगति के इतिहास में एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जिसमें हमारी सफलताओं का नगण्य होना अनिवार्य है। इस चरण में हमारी निराशाएँ भी बड़ी एवं कष्टदायी है, पर इस राष्ट्रीय संघर्ष में नियति ने हमें यही स्थान प्रदान किया है। जब हम इस स्थान के काम को पूरा कर देते हैं, तब हमारी जिम्मेदारियाँ समाप्त हो जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आने वाली पीढ़ियाँ इस देश की सेवा हम लोगों से अधिक सफलता के साथ करेंगी, लेकिन हम लोग की पीढ़ी को इस बात से ही सन्तुष्ट रहना है कि हम लोग अपनी विफलताओं से ही इस देश की सेवा कर सकते हैं। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमारी विफलताओं से ही वह शक्ति पैदा होगी, जिसके द्वारा भविष्य में महान उपलब्धियाँ सम्भव हो सकेंगी। सर हेनरी काटन ने ठीक ही कहा था, इस संगठन के नेता देश में एक शक्ति बन गए हैं, जिनकी आवाज देश के एक कोने से दूसरे कोने तक निनदित होती हैं।

5. उदारवादी राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख नेता

आरम्भ में कांग्रेस का नेतृत्व उदारवादियों द्वारा किया जा रहा था। उदारवादी नेताओं में दादाभाई नौराजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, फीरोजशाह मेहता आदि प्रमुख थे, जिनके चरित्र एवं राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-


दादाभाई नौरोजी (1825-1917 ई.)
दादाभाई नौरोजी एक महान उदारवादी नेता थे, जिन्होंने कांग्रेस की स्थापना के पहले 40 वर्ष तक तथा तत्पश्चात् कांग्रेस की स्थापना के 21 वर्ष बाद तक राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण सेवा की। उन्हें श्रद्धा से भारत का वृद्ध पितामह कहा जाता है। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में दादाभाई अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन्होंने जहाँ एक ओर अंग्रेजों को भारतीयों के प्रति अनेक कर्तव्य का स्मरण करवाया, वहीं दूसरी ओर भारतीयों को ब्रिटिश शासन के प्रति भक्ति की प्रेरणा दी। उनके योगदान के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए मि. चिन्तामणि ने लिखा है, 61 वर्षों तक इंग्लैण्ड में और भारत में दिन और रात, प्रतिकूल परिस्थितियों में और ऐसी निराशाजनक दशाओं में भी, जिनमें और किसी आदमी का दिल टूट जाता, दादाभाई ने अटल रूप से पूर्ण निःस्वार्थता और शक्ति से मातृभूमि की सेवा की। भारत के सार्वजनिक जीवन में अनेक उज्जवल रत्न एवं निःस्वार्थ देशभक्त हुए हैं, लेकिन हमारे जमाने में उनमें से किसी की तुलना दादाभाई नौरोजी से नहीं की जा सकती है।
डॉ. पट्टाभि सितारमैया ने लिखा है, दादाभाई नौरोजी एक ऐसे व्यक्ति थे, जो अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक इण्डियन नेशनल कांग्रेस की सेवा करते रहे और जिन्होंने इसे एक शासन सम्बन्धी शिकायतों को दूर करवाने वाली संस्था की तुच्छ स्थिति में उठाकर एक ऐसी राष्ट्रीय सभा का गौरवपूर्ण स्थान दिया, जिसका उद्देश्य स्वराज्य प्राप्ति था।

दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितम्बर, 1828 ई. को हुआ था। उन्होंने बम्बई के एलफिन्स्टन कॉलेज में अध्यनय किया तथा तत्पश्चात् उसी कॉलेज में गणित विषय के प्राध्यापक बन गए। वे 1850 से लेकर 1855 ई. तक प्राध्यापक रहे। इस दौरान अपने सार्वजनिक सेवा सम्बन्धी कार्यों के कारण उन्हें बहुत अधिक ख्याती मिली। 1855 ई. में कैम्पा एण्ड सन्स नामक फारसी कम्पनी ने उन्हें अपने यहाँ नौकरी दे दी तथा अपने प्रतिनिधि के रूप में ब्रिटेन भेजा। उनकी योग्यता एवं कुशलता से कम्पनी के मालिक मुग्ध हो गए और उन्होंने दादाभाई को अपना साझीदार बना लिया। अब दादाभाई ब्रिटेन में ही निवास करने लगे।
दादाभाई नौरोजी पर अंग्रेजों के विचारों एवं उनके जीवन का अत्याधिक प्रभाव पड़ा। उनका अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूरा विश्वास था तथा वे पाश्चात्य सभ्यता को श्रेष्ठ मानते थे। उन्होंने ब्रिटेन के साथ सम्बन्ध बनाए रखने में ही भारत का हीत माना एवं भारत में ब्रिटिश शासन को भारतीयों के लिए हितकर माना। उनका विचार था कि भारतीयों द्वारा ब्रिटिश सरकार को अपनी कठिनाइयों से परिचित करवाने पर वह इन्हें दूर अवश्य करेगी। शायद इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे इंग्लैण्ड में निवास कर रहे थे। उन्होंने इंग्लैण्ड की जनता को भारतीयों की समस्याओं से परिचित करवाने के उद्देश्य से 1866 ई. में ब्रिटिश इण्डियन सोसायटी स्थापित की। इसकी बैठकों में भारतीय तथा अंग्रेज दोनों मिलकर भारतीय समस्याओं पर विचार करते थे तथा उनके समाधान के लिए सुझाव पेश करते थे। कालान्तर में बम्बई, मद्रास एवं कलकत्ता में इस संस्था की शाखाएँ खोली गईं।

1874 ई. में दादाभाई भारत लौटे तथा उन्हें बड़ौदा राज्य का दीवान बना दिया गया। उनके द्वारा बड़ौदा के शासन में सुधार करने पर वहाँ का अंग्रेज रेजीडेण्ट उनके काम में बाधा डालने लगा। अतः दादभाई ने अपना पद छोड़ दिया। 1885 ई. तक वे बम्बई कारपोरेशन के सदस्य रहे। तत्तपश्चात् वे पुनः इंग्लैण्ड चले गए और उदार दल में शामिल हो गए। 1892 ई. में वे हाऊस ऑफ कॉमन्स के सदस्य बने। हाऊस ऑफ कॉमन्स के सदस्य बनने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उनकी योग्यता तथा भाषणों का ब्रिटिश संसद पर बहुत प्रभाव पड़ा तथा वे उसका ध्यान भारतीय समस्याओं की तरफ आकर्षित करने में सफल रहे।
राजनैतिक क्षेत्र में विचार
दादाभाई नौरोजी एक महान राजनीतिक विचारक थे। वे उदारवादी नेताओं के शिरोमणि थे। उनका मानना था कि अंग्रेज अति स्वभाव से ही न्यायप्रिय है तथा भारतीय जनता के हित ब्रिटिश शासन में ही सुरक्षित रह सकते हैं। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों द्वारा की गई विभिन्न घोषणाएँ इस बात की द्योतक हैं कि वे भारतीयों को अपनी प्रजा मानते हैं। अतः इंग्लैण्ड की सरकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि जैसे स्वत्रन्ता उसने अपने देश में अंग्रेजों को दे रखी है, वैसी ही स्वतन्त्रता भारत में भारतीयों को दी जानी चाहिए तथा भारतीयों को भी निर्वाचन एवं सार्वजनकि सेवा में भाग लेने का अधिकार दिया जाना चाहिए। दादाभाई के प्रयत्नों से ब्रिटिश संसद ने 1893 ई. में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके द्वारा इंग्लैण्ड की सरकार ने दोनों देशों में भारतीय सिविल सेवा सम्बन्धी परीक्षा की व्यवस्ता करना स्वीकार कर लिया। उनके प्रयत्नों से संसद ने भारत सरकार के व्यय की जाँच-पड़ताल हेतु एक समिति Indian Expenditure Committee नियुक्त की।
कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में बोलते हुए दादाभाई ने प्रतिनिधि संस्थाओं के सम्बन्ध में कहा था, हमारे लिए अंग्रेजों को यह बताना जरुरू नहीं है कि अच्छे शासन के लिए प्रतिनिधि कितना आवश्यक है। इसने तो यह सबक उन्हीं से सीखा है व उसने यह जानकर कि यह कितना बड़ा वरदान है, हम उनसे यह प्रार्थना करते हैं कि यह हमें भी दिया जाए। कर लगाने की नीति न्यायपूर्ण तभी की जा सकती है, जबकि कर लगाने वाली संस्था में भारतीय प्रतिनिधि हों।
दादाभाई राजभक्त थे एवं ब्रिटिश जाति की उदारता में उनका गहरा विश्वसा था। 1886 ई. में उन्होंने कांग्रेस की अध्यक्षता करते हुए अपने भाषण में ब्रिटिश शासन के सम्बन्ध में कहा था, यह हमारा सौभाग्य है कि हम एक ऐसे शासन के अन्तर्गत हैं, जो हमारा इस प्रकार एकत्र होना सम्भव बना देता है। हम महारानी और अंग्रेजों के शासन में ही इस प्रकार बिना रोक-टोक के आपस में मिल सकते हैं और बिना किसी भय तथा संकोच के विचार व्यक्त कर सकते हैं। ऐसा केवल अंग्रेजी शासन में ही सम्भव है।

दादाभाई नौरोजी का राजनीतिक दर्शन भी संवैधानिक था। उन्होंने कहा था, हमारे लिए यह जरूरी है हम स्वयं अंग्रेजों की पालिकाओं, प्रदर्शनों व सभाओं के द्वारा बड़े से बड़े पैमाने पर ज्यादा धैर्य के साथ आन्दोलन करना सीखें। यह सब कुछ शान्तिपूर्ण तरीके से, लेकिन उत्साहपूर्वक किया जाना चाहिए। आन्दोलन इंग्लैण्ड के सम्पूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और आन्दोलन के द्वारा अंग्रेज जाति ने अपनी सब गौरवमयी उपलब्धियाँ, अपनी समृद्धि, अपनी स्वतन्त्रता और सारांश यह है कि विश्व के राष्ट्रों में अपने प्रथम स्थान की ख्याति प्राप्त की है...आन्दोलन नैतिक शक्ति का सभ्य और शान्तिपूर्ण अस्त्र है व जब सम्भव हो, तो पाशविक भौतिक बल की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है। दादाभाई के इन विचारों में स्वदेशी के प्रयोग तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की झलक मिलती है, अतः वे उग्रवादियों में भी लोकप्रिय हुए।
हांलाकि दादाभाई ब्रिटिश सरकार के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का भाव रखते थे, किन्तु उसके अनुचित कार्य की निन्दा करने में वे कभी पीछे नहीं हटे। वे इंग्लैण्ड की सरकार को चेतावनी देते थे कि, अन्याय महानत्‌ा को भी विनाश के गर्त की ओर प्रवृत्त कर देता है। भले ही वे राजभक्त हों, किन्तु इसके साथ ही साथ वे एक महान देशभक्त भी थे। 1897 ई. में इंग्लैण्ड में आयोजित भारतीयों के सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए दादभाई ने कहा कि यदि भारतीय प्रशासन में व्याप्त त्रुटियों को दूर नहीं किया गया, तो यह भारत तथा ब्रिटेन दोनों ही सरकारों के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। उन्होने यह भी माँग की इंग्लैण्ड की सरकार अपनी प्रजा के साथ जिस प्रकार का व्यवहार करती है, भारत की जनता के साथ भी उसे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। 1904 ई. में उन्होंने भारत में होमरूल की स्थापना की माँग की।

कांग्रेस एवं दादभाई नौरोजी
दादाभाई नौरोजी के संस्थापकों एवं इसके आरम्भिक सदस्यों में एक थे। कांग्रेस में उनका बहुत सम्मान था। 1886, 1893 तथा 1906 में उन्होंने कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। वे सदैव कांग्रेस के प्रति निष्ठावान बने रहे। 1907 ई. में कांग्रेस नरम तथा गरम दो दलों में विभक्ति हो गई थी, किन्तु जैसा कि चिन्तामणि ने लिखा है, दादाभाई की उपस्थिति ही सम्मान को उत्पन्न करने वाली थी। दोनों ही दलों मे दादाभाई के प्रति गहरी श्रद्धा थी। यह उनका ही प्रभाव था कि 1906 ई. तक कांग्रेस का विभाजन न हो सका। कांग्रेस के प्रति उनके योगदान का वर्णन करते हुए डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, कांग्रेस के बड़े-बुढ़ों की सूची में सबसे पहला नाम दादाभाई नौरोजी का आता है, जो कांग्रेस के प्रारम्भिक काल से अपने जीवनपर्यन्त कांग्रेस की सेवा करते रहे और कांग्रेस को सर्वसाधारण की शासन सम्बन्धी शिकायतें दूर कराने का प्रयत्न करने वाली जनसभा के बढ़ते-बढ़ते राजस्व प्राप्त करने (1906 ई. का कलकत्ता अधिवेशन) के निश्चित उद्देश्य करने वाली राष्ट्रीय परिषद् तक पहुँचा दिया।
दादाभाई नौरोजी ने कांग्रेस की जड़ों को सींचा तथा उसका विकास किया। जब ब्रिटिश सरकार कांग्रेस को समाप्त करने की फीराक में थी, तो दादाभाई नौरोजी ने यह कहकर कांग्रेस को बचा लिया कि कांग्रेस का उद्देस्य तो ब्रिटिश राजभक्ति का प्रचार करना है, अपनी इस राजभक्ति के कारण ही वे हाऊस ऑफ कॉमन्स के सदस्य चुने गए। उन्होंने ब्रिटिश संसद को यह विश्वास दिलाया कि कांग्रेस का अस्तित्व ब्रिटिश सरकार के हित में है। इस प्रकार वे कांग्रेस के अस्तित्व की रक्षा करने में सफल रहे। 1906 ई. तक परिस्थितियों में परिवर्तन हो रहा था कांग्रेस के उदारवादियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। अतः दादाभाई नौरोजी के विचार में भी परिवर्तन होने लगे।

दादाभाई नौरजी ने 1904 ई. में स्वराज्य की माँग की। जून, 1904 में लन्दन इण्डिय सोसायटी में भाषण देते हुए नौरोजी ने कहा, वर्तमान असम्मानजनक, मिथ्यावादी और विनाशकारी व्यवस्था का केवल एक उपचार है। वह उपचार है कि ब्रिटिश प्रभुसत्ता के अधीन स्वराज्य की स्थापना करना। मैं भारत के लोगों से अनुरोध करता हूँ कि वे अपने लिए स्वराज्य की माँग लगातार करते रहे, जो कि उनका मूल अधिकार है, जिसका वचन दिया जा चुका है। जिस वक्त आधारभूत उपचार हो जाएगा, उस समय वर्तमान व्यवस्था का प्रत्येक दोष स्वतः ही दूर हो जाएगा।
1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए अपने भाषण में दादा भाई नौरोजी ने कहा, अगर में अपने देश व देशवासियों केलिए प्रेम व भक्ति का कोई शब्द कह सकता हूँ, तो मैं यही कहूँगा कि संगठित हो जाओ, धैर्य रखो और स्वराज्य प्राप्त करो, जिससे की गरीबी, अकाल और महारामी से नष्ट होते हुए करोड़ों व्यक्तियों को बचाया जा सके और भारत दुनिया के महानतम् व सभ्य राष्ट्रों के बीच अपना प्राचीन गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सके। दादाभाई के इन विचारों ने उग्रवादियों को प्रोत्साहित किया। 1906 के कांग्रेस अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी ने स्वशासन अथवा स्वराज्य को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया। उन्होने राष्ट्रीय शिक्षा एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर बल दिया। इस प्रकार दादभाई ने अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को उग्रवाद की ओर प्रोत्साहित किया।

दादाभाई नौरोजी ने भारतीय राष्ट्रीयता की आर्थिक बुनियाद के सम्बन्ध में एक सिद्धान्त भारत के धन को चूसने का सिद्धान्त बताया। उन्होंने लिखा है, भारत का धन इंग्लैण्ड द्वारा दो तरीकों से चूसा जा रहा है। पहला तरीका तो यह है कि यूरोपियन अधिकारी भारत के बहुत-सा पैसा अपनी बचत से इंग्लैण्ड भेजते थे। कई ब्रिटिश अधिकारियों को भारत के खजाने से इंग्लैण्ड में वेतन तथा पेंशन मिलती थी। दूसरे, भारत से जो धन अंग्रेज इकट्ठा करते थे, उसके कारण भारतीय निर्धन रह जाते हैं, उनेक पास काफी पूँजी नहीं रह जाती है। अंग्रेज भारत के धन से पूँजीपति हो जाते हैं तथा इंग्लैण्ड से वस्तुएँ तैयार करके भारत भेजते हैं तथा भारत के व्यापार पर एकाधिकार कर लेते हैं। इस तरह से अंग्रेज अधिक धनवान होते रहते हैं और भारतीय निर्धन होते रहते हैं। उन्होंने आगे कहा, इंग्लैण्ड भारत से 30,000,000 पौंड या 40,000,00 पौंड धन प्रति वर्ष खींच रहा है, इसके भारत पूर्णरूप से कुचला जाएगा। उन्होंने यह सिद्ध किया कि, जो अंग्रेज अधिकार भारत से ज्ञान और मनुष्य प्राप्त करके इंग्लैण्ड चले जाते है, उनसे भारत को कुछ लाभ नहीं पहुँचा है, दूसरी ओर भारतीयों को प्रशासनिक अथवा अन्य क्षेत्रों में अधिक अनुभव नहीं हो पाता है क्योंकि उनको ऊँचे पदों से वंचित रखा जाता है।
महान लेखक
एक महान देशभक्त होने के साथ-साथ दादाभाई नौरोजी एक महान लेखक भी थे। उन्होंने 1906 ई. प्रकाशित अपनी विख्यात पुस्तक निर्धनता और भारत में ब्रिटिश राज्य (Poverty and Un-British Rule in India) में भारत में निर्धनता के कारणों पर प्रकाश सडाला है। उन्होंने अंग्रेजों के शोषण की कड़ी निन्दा की तथा भारत को शोषितों का भारत कहा। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है, भारत की कीमत व खून पर ही साम्राजय का निर्माण हुआ है और उसे अब तक स्थापित रखा गया है। उन युद्धों पर हुए अत्यधिक व्यय तथा प्रतिवर्ष भारत के करोड़ो रूपये विदेश जाने के कारण भारत इतना चूसा गया है। आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत मर रहा है। तुमने भारत से निरन्तर धन खींचकर भारत की ऐसी दशा की है। इस प्रकार दादाभाई ने भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद की नींव रखी।

वस्तुतः दादाभाई नौरोजी एक महान कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ एवं लेखक थे, जिन्होंने छः दशक तक राष्ट्र की सेवा की। वे जनता के सच्चे सेवक थे। गोखले के शब्दों में, उनका जीवन देशभक्ति का सबसे अच्छा उदाहरण था। दरड़ा ने लिखा है, उन्होंने देशवासियों के हृदयों में वह स्तान कर लिया था, जिसके लिए मनुष्यों के शासक भी ईर्ष्या कर सकते हैं। गोखले ने लिखा है, उनका जीवन देशभक्ति का सबसे अच्छा उदाहरण है, अगर मनुष्य में कभी दिव्यता हो सकती है, तो दादाभाई नौरोजी में थी। (If ever there was the divine in man, It was in Dada Bhai) शंकर दत्तात्रेय जावड़ेकर ने उनके सम्बन्ध में लिखा है दादाभाई ने कांग्रेस को स्वराज्य का माँग-पत्र पढ़ाया तथा पुराने व नए दोनों दलों के लोगों का सहयोग लेकर स्वदेश, राष्ट्रीय शिक्षा, बहिष्कार तथा स्वराज्य सम्बन्धी प्रस्ताव पास कराकर नही पीढ़ी को दृढ़ संकल्प रखो, एक हो जाओ और स्वराज्य प्राप्त करो का दिव्य संदेश दिया।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (1848-1925)
उदारवादी नेताओं की एक श्रृंखला में एक अत्यन्त सशक्त हस्ताक्षर थे-श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी। कांग्रेस को लोकप्रिय बनाने एवं राष्ट्रीयता का विकास करने में उनका योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता। वे संवैधानिक आन्दोलन के जनक कहलाते हैं। उनका जन्म 1848 ई. में बंगाल में एक ब्राह्मण परिवार मे ंहुआ था। बी.ए. करने के बाद वे 1869 में इण्डियन सिविल सर्विस में चुने गए। इसमें चुने जावने वाले वे प्रथम भारतीय थे। 1871 ई. में उन्हें मजिस्ट्रेट बनाया गया। चूँकि ब्रिटिश सरकार भारतीयों को उच्च पद दिए जाने के विरूद्ध थी, अत 1873 में कुछ झूँठे आरोपों का सहारा लेकर बनर्जी को पदच्युत कर दिया गया। अब बनर्जी के जीवन में एक नया सिरा आरम्भ हुआ एवं वे राष्ट्र सेवा में लग गए। सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा है, उनकी पदच्युति शासन की हानि तथा देश का लाभ थी।

राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान
राष्ट्रीय आन्दोलन में बनर्जी का योगदान अमूल्य रहा है। उन्होंने 1876 ई. में कुछ अन्य नेताओं के साथ मिलकर इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना की। कांग्रेस की स्थापना के बाद इसका कांग्रेस में विलय कर दिया गया। इण्डियन एसोसियेशन संस्था भारतीयों में राजनीतिक चेनतना उत्पन्न कर भारत में ब्रिटिश सान विरोधी वातावरम का निर्माण करने के उद्देश्य से स्थापित की गई थी। इसी समय ब्रिटिश सरकार ने एक कानून बनाकर इण्डिय सिविल सेवा में भारतीयों के सम्मिलित होने की अधिकतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी। बनर्जी ने इस कानून का जमकर विरोध किया तथा अपने भाषणों द्वारा जनता में इस कानून के सम्बन्ध में राजनीतिक चेतना उत्पन्न की। अतः सरकार को इस कानून को रद्द करना पड़ा। यह भारतीयों की तथा विशेषकर बनर्जी की बहुत बड़ी विजय थी। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की यह प्रचार यात्रा भारत के राजनीतिक विकास में एक विशेष स्थान रखती है। इसने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के शिक्षित वर्ग के सदस्यों में यद्यपि भाषा तथा रीति-रिवाजों की दृष्टि से कुछ अन्तर है, तथापि उनके मौलिक हित और आदर्श एक हैं एवं यह उन्हें राजनीतिक उद्देश्य के लिए इकट्टा करने की एक बहुत बड़ी कड़ी है।

कांग्रेस की स्थापना में तथा कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन बुलाने में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण रहा था। उन्होंने 1895 एवं 1902 के अधिवेशन में अध्यक्षता भी की। 1905 ई. में जब कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया, तो बनर्जी ने अपने भाषणों एवं लेखों के माध्यम से इसके विरूद्ध आन्दोलन का वातावरण तैयार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अतः वे भारतीय राजनीति के विशिष्ट पुरूष बन गए। सर हेनरी कॉटन ने उनके सम्बन्ध में लिखा है, अपनी वक्त्त्व शक्ति से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी मुल्तान से लेकर चिटगाँव तक कोई भी विद्रोह उत्पन्न कर सकते या विद्रो को दबा सकते थे। भारत में उनकी स्थिति वहीं थी, जो डैमोस्थनीज की यूनान में या सिसरो की इटली में। 1918 ईय में तिलक, एनीबेसेण्ट आदि उग्रवादी नेताओं से मतभेद होने पर इन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया तथा उदारवादी संघ की स्थापना की। 1919 ई. में वे बंगाल की विधान परिषद् में चुने गए तथा बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली में मन्त्री बनाए गए। इस पद पर रहते हुए उनके द्वारा की गई सेवाओं से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सर की उपाधि दी। उन्होंने अपनी आत्म-कथा ए नेशन मेंकिंग लिखि, जिसमें भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का अच्छा विविरण मिलता है।

राजनीतिक विचारक के रूप में
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इटली निवासी मैजिनी के विचारों से बहुत प्रभावित थे एवं उनके समान देशवासियों में आत्म-समान एवं देशभक्ति उत्पन्न करने की धारणा के समर्थक थे। वे उदारवादी थे। कांग्रेस के पूना अधिवेशन में उन्होंने कहा, मैं नैतिक विचार को सबसे आगे रखना चाहता हूँ। जो बात नैतिक दृष्टि से अनुचित है, वह रानजीतिक दृष्टि से उपयोगी नहीं हो सकती। नीति से विहीन राजनीति, राजनीति नहीं है यह निकृष्टतम राजनीतिक बाजीगरी है। इसलिए, उनका यह मानना था कि एक न एक दिन अंग्रेजों के विचारों में परिवर्तन होगा और वे भारत में स्वतन्त्रता, समानता, न्याय एवं उदारता के आदर्शों को स्थापित करेंगे।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भारत में अंग्रेजी शासन को ईश्वरीय इच्छा मानते थे तथा अंग्रेजों की न्यायप्रियता मे उनका पूरा-पूरा विश्वास था। उनका माना था कि भारतीय जनता ब्रिटिश शासन में ही स्वशासन का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकती है एवं इसमें ही शासन सम्बन्धी बुराईयों को दूर किया जा सकता है, अतः ब्रिटिश शासन भारत के लिए आश्यक है। उन्होंने हमेशा अपनी माँगों को संवैधानिक ढंग से ब्रिटिश संसद के सामने रखा। वे संसदात्मक शासन के समर्थक थे तथा भारत में भी लोकतन्त्र की स्थापना चाहते थे। उनका कहना था, इंग्लैण्ड महारा पथ प्रदर्शक है।

सरकार के भक्त होते हुए भी बनर्जी सरकार के अनुचित कार्यों की निन्दा करने में कभी पीछे नहीं रहे। वे भारतीयों को उनके अधिकार दिलवाने के लिए सदैव प्रयासरत रहे। 1897 ई. के अमरावती अधिवेशन में उन्होंेने कहा था, अंग्रेजों ने अपने लिए मैग्नाकार्टा और हैबियस कॉपर्स प्राप्त किए हैं। इनके द्वारा उन्हें जो सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं, वे सिद्धान्त रूप से उनके गौरवपूर्ण विधान में सम्मिलित है। परन्तु मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि वह शासन विधान हमारा भी जन्मसिद्ध अधिकार है। हम ब्रिटिश प्रजा है, अतः ब्रिटिश प्रजाजनों को जो अधिकार मिले हुए हैं, हम भी उनके हकदार हैं।
अंग्रेजों की धारणा थी कि उनके आगमन से पूर्व भारतीय असभ्य थे। इसके उत्तर में बनर्जी ने 1890 ई. में इंग्लैण्ड में कहा था, मैं इस सभा को याद दिलाना चाहता हूँ कि भारतीय हिन्दू, जिस जाति का होने का मुझे भी गौरव प्राप्त है, एक उच्च पुरातन रक्त के वंशज हैं और जिस समय यूरोप के सबसे सभ्य राष्ट्रों के पूर्वज जंगलों और कन्दराओं में घूम रहे थे। हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित कर लिए थे, बडे-बड़े नगर बसाए थे, आचार-विचार विषयक नियम बना लिए थे, एक धर्म पद्धति का प्रतिपादन कर चुके थे और सुन्दर भाषा को जन्म दे चुके थे, जिनकी प्रशंसा आज भी सभ्य संसार करता है।
महान शिक्षाविद
बनर्जी एक महान शिक्षाविद् थे। आई.सी.एस. सेवा से पदच्युत होने के पश्चात् वे मेट्रोपोलिटन कॉलेज में प्राध्यापक बन गए। उन्होंने अपना भी एक स्कूल स्थापित किया, जो आगे चलकर रिपन कॉलेज के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वे एक महान पत्रकार भी थे. उन्होंने अपने अंग्रेजी समाचार-पत्र बंगाली द्वारा भी भारतीयों में चेतना उत्पन्न की।
वस्तुतः सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भारतीय राष्ट्रीयता के सजग प्रहरी, महान देशभक्त एवं संवैधानिक आन्दोलन के प्रणेता थे, जिन्होंने अपना समूचा जीवन राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर दिया। श्री विपिनचन्द्र पाल ने उनके सम्बन्ध में लिखा है, बनर्जी के भाषणों ने हमारी नवजात देशभक्ति पर गहरा प्रभाव डाला और अंग्रेज विरोधी भावना को विशेष बल प्रदान किया। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, 44 वर्षों से उठी उनकी ऊँची आवाज सभ्य संसार के दूर-दूर के कोने तक पहुँचती थी। भाषा प्रभुत्व, रचना, नैपुण्य, कल्पना प्रवीणता, उच्च भावुकता, वीरोचित हुँकार इन गुणों में उनकी वक्तुत्व कला को पराजित करना कठिन है। आज भी कोई उनका समता तो अलग, उनके निकट भी नहीं पहुँच सकता। उनके भाषम का मसाला होता था, उनकी राजभक्ति की दुहाई। उन्होंने इसे एक कला की हद तक पहुँचा दिया था। श्री. के.एम. पन्निकर ने लिखा है, श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी उच्च कोटि के वक्ता थे। जिन्होंने अपनी प्रभावशाली भाषणों तता अथक परिश्रम द्वारा स्वतन्त्रता के संदेश को देश के कोने-कोेने तक पहुँचा दिया और इस प्रकार भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना को जाग्रत किया।

गोपालकृष्ण गोखले (1866-1915 ई.)
उदारवादी नेताओं में सबसे प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण थे-गोपालकृष्ण गोखले। वे एक महान राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ तथा कांग्रेस के सच्चे कार्यकर्ता थे। राष्ट्रीय आन्दोलन के क्षेत्र में उनका योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता। गाँधी उन्हें अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। हालाँकि तिलक, गोखले की उदारवादी नीति के विरोधी थे, किन्तु फिर भी उन्होंने उनकी प्रशंसा में कहा था, गोपालकृष्ण गोखले भारत वर्ष के हीरे, महाराष्ट्र के रत्न तथा कार्यकर्ताओ के शिरोमणी थे. के.एम. पन्निकर ने लिखा है, वे आधुनिक भारत के सर्वप्रथम कूटनीतिज्ञ थे. मैनचेस्टर में उनके द्वारा दिए गए भाषणों का ब्रिटिश जनता पर बहुत प्रभाव पड़ा। तत्कालीन इंग्लैण्ड के समाचार-पत्र नेशन के सम्पादक ने उनके सम्बन्नध में लिखा है, इंग्लैण्ड में गोखले के तुल्य कोई कूटनीतिज्ञ नहीं है और गोखले स्वयं एस्क्विथ तत्कालीन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से भी अधिक महान है।

प्रारम्भिक जीवन
गोपालकृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 ई. में महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे बड़े प्रतिभावान विद्यार्थी थे। 18 वर्ष की आयु में उन्होंने बी.ए. पास की एवं 20 वर्ष की आयु में प्राध्यापक बन गए। 22 वर्ष की आयु में वे बम्बई विधान परिषद् के सदस्य चुने गए। अपने देश की सेवा करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर वे 1888 ई. में महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा स्थापित सार्वजनिक सभा में मन्त्री बन गए। वे इस सभा के समाचार-पत्र क्वार्टरली रिव्यू के सम्पादक भी रहे। इस प्रकार गोखले ने अपने राजकीय जीवना की शरूआत रानाडे के शिष्य के रूप में की। डॉ. जकारिया ने लिखा है, गोखले के रूप में रानाडे को जैसा शिष्य मिला, वैसा उपयुक्त शिष्य कबी किसी गुरू को नहीं मिला। राजनीतिक क्षेत्र में उन्होंने दादाभाई नौरोजी तथा फीरोजशाह मेहता के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। गोखले 1889 ई. में कांग्रेस के सदस्य बन गए। अपनी योग्यता के बल पर वे शीघ्र ही कांग्रेस के प्रमुख नेता बन गए एवं उन्होंने राष्ट्र की अमूल्य सेवा की।
1895 ई. में गोखले को कांग्रेस का मन्त्री बनाया गया। 1901 ई. में वे बम्बई प्रान्तीय कांग्रेस के सचिव नियुक्त हुए। 1902 ई. में वे केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्य बनाए गए। 1903 ई. में उन्हे कांग्रेस का सचिव बनाया गया। 1903 ई. में उन्हें कांग्रेस का सभापति बनाया गया। वे काफी समय तक फर्ग्यूर्सन कॉलेज के प्रिंसीपल भी रहे। इस समय कांग्रेस में मतभेद बढ़ते जा रहे थे। 1907 ई. में कांग्रेस नरम एव गरम, इन दोनों दलों में विभक्त हो चुकी थी। गोखले इन दोनों दलों में एक्ता स्थापित करने के लिए प्रयास करते रहे। 1912 ई. में उन्होंने दक्षिणी आफ्रिका जाकर रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष में गाँदीजी का साथ दिया। उन्हीं के प्रयत्नों से गाँधी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया।

गोखले ने भारतीय जनता की माँग तथा समस्याओं को ब्रिटिश सरकार के सामने रखा। अतः ब्रिटिश सरकार ने मार्ले मिण्टो सुधार में उनके विचारों को महत्त्व प्रदान किया। 1902 ई. में वे वायसराय की विधान परिषद् के निर्विरोध सदस्य चुने गए। उन्होंने नमक कर हटाने, प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य करने तथा सार्वजनिक सेवाओं में भारतीयों को स्थाने देने की माँग की। उनका समस्याओं को प्रस्तुत करने का ढंग इतना सुंन्दर था कि लार्ड कर्जन जैसे प्रतिक्रियावादी ने भी उनकी प्रशंसा में कहा था, मैंने आज तक किसी जाति में गोखले जैसा संसदीय परम्पराओं का सम्मान तथा पालन करने वाल योग्य वक्ता नहीं देखा। वे संसार की किसी भी संसद में, चाहे वह इंग्लैण्ड का हाऊस ऑफ र्कामन्स ही क्यों न हो, अपनी योग्यता के बल पर एक उच्च स्थान प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। यद्यपि मेरे विचार उनसे बहुत भिन्न थे, तथापि सदैव में उनकी योग्यता तथा उच्च चरित्र से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।
गोखले की वक्तृत्व कला बड़ी तार्किक एवं सुन्दर थी। मि. वाच्छा ने लिखा है, गोखले का भाषण सुनकर आनन्द-सा आ जाता था। वे कठोर से कठोर बात को भी नम्र शब्दों में कहने का ढंग जानते थे। यद्यपि वे आलोचना करते समय कठोर नहीं होते थे तथापि वे किसी बात को कहने से नहीं डरते थे। गोखले ने कर्जन द्वारा बनाए गए भारतीय विश्वविद्यालय विधेयक एवं प्रेस विधेयक आदि की जमकर आलोचना की। बंगाल विभाजन में उन्हें बड़ी ठेस पहुँची एवं उन्होंने उसके विरूद्ध संघर्ष का निश्चय किया। इस सम्बन्ध में मालें ने कहा था, गोखले में एक रानीतिज्ञ के गुण विद्यामान हैं और वे कार्यकारिणी के उत्तरदायित्व को अच्छी प्रकार समझते हैं।

राजनीतिक विचार
गोखले एक महान उदारवादी नेता थे। वे संवैधानिक ढंग से सुधारों के पक्ष में थे। उनका मानना था कि स्वशासन धीरे-धीरे आएगा। उसे एकदम नहीं माँगा जा सकता। वे अंग्रेजों को उदार एवं न्यायप्रिय जाति मानते थे। उनका मानना था कि जिस दिन अंग्रेजों को यह विश्वास हो जाएगा कि भारतीय लोग स्वशासन के योग्य हो गए हैं, तो वे स्वयं ही भारतीयों को स्व-शासन दे देंगे। उनका मानना था, देश का पुननिर्माण राजनीतिक उत्तेजना की आँधी में नहीं, बल्कि धीरे-धीरे ही हो सकता है। इस धीमी प्रक्रिया में समस्या का वास्तविक हल था, अंग्रेजों की प्रकृति के पहलू पर विजय पाना और इस प्रकार उनकी सहायता व समर्थन करन। गोखले का मानना था कि ब्रिटेन के साथ सम्बन्ध भारतीयों के हित में ही है। भारत अपनी उन्नति ब्रिटिश शास के अन्तर्गत ही कर सकता है। 1903 ई. में अपने बजट भाषण में गोखले ने कहा, भावी भारत परमेश्वर की कृपा से घटती हुई समुद्धि, खाली आशा और असन्तोष का भारत नहीं होगा, बल्कि सदैव फैलने वाले उद्योगों, जाग्रत क्षमताओं, बढ़ती हुई समृद्धि तथा अधिक समान रूप से बँटी हुई दौलत और एश्वर्य का भारत होगा। मुझे अपने देश के लक्ष्य और चेतना में पूरा विश्सावस है और इसकी असीमित क्षमताओं में विश्वास करता हूँ, परन्तु भारत का यह भविष्य अंग्रेजी की अबाध सर्वोच्चता में ही प्राप्त किया जा सकता है। देवगिरिकर ने लिखा है, शासन तन्त्र के विरूद्ध युद्ध करते समय गोखले ने वैधानिक मार्ग अपनाया। उनका प्रयास यह था कि तथ्यों एव तर्कों को अपनी बात का आधार बनाया जाए तथा समझा-बुझकर उन लोगों के विचार बदले जाएं, जिनका कुछ महत्त्व है।

गोखले भारतीय राजनीति के एक महान पुरूष थे, जिनके सम्बन्ध में परस्पर विरोधी व्यक्त किए जाते हैं। अंग्रेजों के प्रति राजभक्ति के कारण जहाँ कुछ लोग उन्हें एक छिपा हुआ राजद्रोही मानते थे, वहीं उनकी उदारवादी विचाराधारा के कारण कुछ लोग उन्हें एक दुर्बल हृदय उदारवादी कहते थे। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, वास्तव में वे न तो दुर्बल उदारवादी थे और न ही छिपे हुए राजद्रोही। वे तो जनता और सरकार के मध्य एक सच्चे मध्यस्थ थे। वे जनता की आवश्कताएँ, इच्छाएँ और आकांक्षाएँ सरकार को बताते थे तथा सरकार की कठिनाइयाँ जनता और कांग्रेस के सम्मुख रखते थे।
गोखले ने प्रतिक्रियावादी नीति का विरोध किया एवं लम्बे समय तक राष्ट्री की अमूल्य सेवा की। पूना कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कहा था, अच्छे तथा बुरे के लिए हमारा भविष्य और हमारी आकांक्षाएँ इंग्लैण्ड के साथ जुड़ गई है तथा कांग्रेस स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करती है कि हम जिस प्रगति की आकांक्षा करते हैं, वह ब्रिटिश शासन की सीमाओं में ही है। वे संवैधानिक तरीकों से अंग्रेजों में अपनी माँगे मनवाने के समर्थक थे। उन्होंने हिंसा, क्रान्ति, विद्रोह आदि का विरोध किया। हालांकि अपने उन उदार विचारों के कारण वे उग्रवादी नेताओं में सदैव अलकोप्रिय रहे, किन्तु इस बात की परवाह न करते हुए वे निर्भीक होकर भारत की समस्याओं को ब्रिटिश शासन के समक्ष प्रस्तुत करते रहे। इंग्लैण्ड की सरकार को भारत की समस्याओं से परिचित करवाने के उद्देश्य से उन्होंने कई बार इंग्लैण्ड की यात्रा की। सबसे पहले वे 1897 ई. में सेलबाई कमीशन के समक्ष भारतीय जनता के प्रतिनिधि बनकर गवाही देने गए थे। उन्होंने नमक कर समाप्त करने की माँग की। बंगाल विभाजन पर प्रतिक्रिय व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि नौकरशाही के साथ जनता के हित की दृष्टि से सहयोग करने की सारी आशा सदा के लिए खत्म हुई। वे 1905 ई. में कांग्रेस के शिष्टमण्डल में इंग्लैण्ड गए। गोखलने 1909 ई. में मार्ले मिण्टो सुधार पारित करवाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। हालाँकि यह एक्ट भारतीयों की आशाओं पर खरा न उतरा, तथापि गोखले इस आशा से अंग्रेजों के निरन्तर सम्पर्क बनाए रखे कि कभी न कभी उनकी माँगे अवश्य स्वीकार होंगी, किन्तु अन्ततः उन्हें निराश ही होना पड़ा।

उन्होंने शासन के अनुचित कार्यो की आलोचना भी की थी। उन्होंने कहा था, कितनी ही स्थायी सेना खड़ी करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाने से भारत को वह सैनिक शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती, जो अन्य सभ्य देश को प्राप्त है, क्योंकि सारी जनता निहत्थी है और उसे कमजोर बनाने का कार्य चल रहा है। इस सय सभ्य संसार में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ लोग नागरिक होते हुए भी सैनिक होने के अधिकार से वंचित है और राष्ट्रीय रक्षा की जिम्मेदारियों से स्वेच्छापूर्वक हिस्सा लेने के हकदार नहीं समझे जाते हैं। गोखले ने बम्बई के गवर्नर के परमार्श पर सुधारों से सम्बन्धित एक योजना बनाई, जो गोखले का राजनीतिक वसीयतनामा कहलाई। गोखले का मानना था कि यह भारतीयों की आशाओं पर खरी उतरेगी।

गोखले ने भारत सेवक समिति की स्थापना की, जिसने देश की महत्त्वपूर्ण सेवा की। श्रीनिवास शास्त्री, एन.एम. जोशी, पण्डित हृदयनाथ कुंजरू, अमृतलाल ठक्कर आदि नेता इस संस्था की देन है। इस समिति ने अकाल पीड़ितों की सेवा की तथा भारत के बाहरी देशों में भी भारत के पक्ष में वातावरण बनाया। एन.एम. जोशी ने मजूदरों को संगठित किया था। इस समिति के संविधान की प्रस्तावना में गोखले ने लिखा था, अब हमारे काफी देशवासियों को इस काम में धार्मिक भावना के साथ अपने आपको खपाने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। सार्वजनिक जीवन को आध्यात्मिक रूप दिया जाना चाहिए। दिल में देश का प्रेम इस तरह भर दिया जाना चाहिए कि उसके समाने और सब बातें महत्त्वहीन मालूम हों। गोखले ब्रिटिश शासन के अधीन स्वशासन प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने कहा था, स्वशासन का अर्थ है कि ब्रिटिश अभिकरण के स्थान पर भारतीय अभिकरण को प्रतिष्ठित करना, विधान परिषदों का विस्तार और सुधार करते-करते उनको वास्तविक नियन्त्रण निकाय बना देना और जनता को सामान्यवता अपने मामलों का प्रबन्ध करने देना। उनका मानना था, यह कठिन होते हुए भी असम्भव नहीं है, जिस बात की आवश्यकता है, वह एक महान राजनीतिज्ञ तथा भारत की जनता को दिए गए वचनों को एक अवधि के भीतर पूरा करने का दृढ़ संकल्प। 1905 ई. में बनारस में कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था, कांग्रेस का लक्ष्य यह है कि बारत भारतीयों के हित को ध्यान में रखते हुए प्रशासित होना चाहिए। एक निश्चित समय की अवधि में भारत में ऐसी सरकार गठित हो जानि चाहिए, जैसी के ब्रिटिश साम्राज्य की अन्य स्वशासित उपनिवेशों की सरकार है। 1907 ई. में इलाहाबाद के भाषण में उन्होंने कहा था, मेरी आकांक्षा है कि मेरे देशवासियों की स्थिति मेरे देश में वैसी हो हो, जैसी कि अन्य लोगों की अपने देश में है। स्वशासन की प्राप्ति के तरीकों के सम्बन्ध में गोखले ने कहा था, यदि इस प्रश्न पर व्यावहारिक भावना से विचार किया जाए और कोरे सिद्धान्तों से प्रभावित न हुआ जाए, तो हम इस निष्कर्ष पर आए बिना नहीं रह सकते हैं कि हमको केवल संवैधानिक साधन ही अपनाने चाहिए। संवैधानिक साधनों का तात्पर्य बताते हुए उन्होंने कहा था, देश में प्रबल जनमत तैयार करके और उससे उपलब्ध सम्सत संवैधानिक तरीकों-स्वतन्त्र भाषण, स्वतन्त्र संगठन, स्वतन्त्र प्रेस, सभाओं और जुलूसों, शिष्ट मण्डलों इत्यादि के द्वारा अभिव्यक्त करके संवैधानिक सत्ता के ऊपर दबाव जाला जाए।

गोखले ने स्वेदशी वस्तुओं के प्रयोग पर भी बल दिया। गोखले ने हस्तकरधा उद्योग का पुनरूत्थान करने और उसे आधुनिक रूप देने के महत्त्व पर जोर दिया। जिससे किसानों को अतिरिक्त आय प्राप्त हो सके। देवगिरिकर ने लिखा है, स्वदेशी के समर्थक होते हुए भी गोखले ने बहिष्कार के उग्र अस्त्र के प्रयोग की अनुमति नहीं दी।
गोखले एक महान देशभक्त थे। श्री मोतीलाल नहेरू ने उनके सम्बन्ध में कहा था, गोखले स्वशासन के एक महान देवदूत थे, जिन्होंने ब्रिटिश नौकरशाही के अत्याचारों का कड़ा विरोध किया। वे एक महान राष्ट्र निर्माता एवं राष्ट्रीयता के प्रबल पक्षधर थे, अतः उन्हें एक दुर्बल हृदय उदारवादी कहकर पुकारना उचित नहीं होगा। उनका मानना था कि अभी भारतीयों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे अंग्रेजों से स्वराज्य छीन सकें, अतः उन्होंने उग्र आन्दोलन का समर्थन नहीं किया।
गोखले ने ब्रिटिश शासन के प्रति भक्ति को देखते हुए कुछ लोगों ने उन्हें एक छिपे हुए राजद्रोही की संज्ञा दी है, किन्तु इसे भी उचित नहीं माना जा सकता। उन्होंने आन्दोलन के लिए हमेशा संवैधानिक मार्ग अपनाया। राजभक्त से पहले वे एक देशभक्त थे। उन्होंने अंग्रेजों के उचित कार्यों की ही प्रशंसा की। 1909 ई. में उन्होंने मार्ल मिण्टो सुधार की प्रशंसा करते हुए कहा था, मेरा पक्का विश्वास है कि मिण्टो और लार्ड मालें ने भारत को अराजकता की और जाने से बचा लिया है, क्योंकि सरकार, चाहे वह कितनी ही ताकतवर क्यों न हो, वह किसी भी जाति की आकांक्षाओ को दमन द्वार दबाकर नहीं रख सकती और न रख सकेगी। गोखले का मानना था कि हिंसा से भारतीयों को कुछ भी नहीं मिल सकता।

गोखले ने सरकार एवं जनता के मध्य मध्यस्थ के रूप में कार्य किया, किन्तु अनेक बार वे अपनी इस भूमिका के कारण जनता एवं सरकार दोनों में अप्रिय हुए। जनता उनकी अत्यधिक उदारता एवं सरकार उनकी उदारवादिता से नाराज थी, किन्तु वे इसकी परवाह न करते हुए राष्ट्रीय हित में कार्य करते रहे। उन्होंने सद्भावना एवं सहयोग की भावना पर बल दिया था।
गोखल ने लिखा था, जो अंग्रेज यह समझता है कि भूतकाल की तरह भविष्य में भी भात में बहुत दिन तक शासन किया जा सकता है और जो भारतीय यह समझता है कि हमें इस साम्राज्य विस्तार से बाहर निकलकर अपना रास्ता बनाना चाहिए, वे दोनों ही मौजूदा हालत की यथार्ताओं को अपर्याप्त रूप से समझते हैं। गोखले ने राजनीति का आध्यात्मिकरण किया एवं आदर्श लक्ष्य की पूर्ति के लिए आदर्श साधन अपनाए जाने पर बल दिया। गोखले किसी भी समस्या का समाधान यथार्थ की कसौटी पर किए जाने के पक्षपाती थे। वे बड़े व्यावहारिक एवं सन्तुलित थे। चिन्तामणि ने लिखा है, गोखले बौद्धिक रूप से इतने ईमानदार थे कि पहले अपने आप से अच्छी तरह जिरह किए बिना कोई भी राय प्रकट नहीं करते थे।

गोखले एक महान देशभक्त थे, जिन्होंने देश की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। वे साम्प्रदायिकता एवं भेदभाव के विरोधी थे तथा सभी धर्मो को समान दृष्टि से देखते थे। मिर्जा अब्बास अली बेग ने उनके सम्बन्ध में लिखा है, उनके उच्च उद्देश्य तथा आदर्श साम्प्रदायिकता भेदभाव से मुक्त थे। निष्कपटता, आत्म-त्याग, सादगी, मनोहर स्वभाव, उनके चरित्र की कुछ उल्लेखनीय विशेषताएँ थीं। लेकिन इन सबसे बढ़कर उनका देशप्रेम था, जिससे प्रेरित होकर वे अपनी मातृभूमि तथा देशवासियों की जीवनभर सेवाएँ करते रहे। प्रो. साहनी ने लिखा है, गोखले का सार्वजनिक जीवन आधुनिक नरम दलीय विचारधारा का पूरा लेखा-जोखा था। हाईलैण्ड ने लिखा है, गोखले को कुच सम्भव था, उसे करने में विश्वास रखते थे। वे प्रथम कोटि के रचनात्मक नेता थे. वे पूर्व और पश्चिम को मिलाने वाले आदर्शवादी और भविष्यदृष्टा थे। अन्तर्जातीय सद्भावना और सहयोग के पैगम्बर थे।
ब्री.एच. रदरफोर्ड के अनुसार, वे ऊपर से लेकर नीचे तक कूटनीतिज्ञ थे और यह जानते थे कि किस तरह सरकार को नाराज किए बिना राष्ट्रीय माँगे रखी जाएँ। लार्ड कर्जन ने गोखले के सम्बन्ध में लिखा है, भगवान ने आपको असाधारण योग्यताएँ प्रदान की हैं और आपने जिन्हे निःसंकोच देश की सेवा में लगा दिया है। तिलक ने भी उनके बारे में लिखा था, गोखले भारत के रत्न और मजूदरों के राजा था। लार्ड मार्लें का कथन भी सत्य है, गोखले में राजनीतिज्ञ का मस्तिष्क और प्रशासकीय जिम्मेदारी की भावना थी।

गोखले का 19 फरवरी, 1915 को निधन हो गया। वस्तुतः गोखले देश के एक महान सपूत थे, जो आजीवन देश की सेवा करते रहे। आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। तिलक ने अपने समाचार-पत्र केसरी में गोखले को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, गोखले में अने क गुण थे। उनमें से एक प्रधान गुण यह था कि बहुत छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने निःस्वार्थ, निष्ठापूर्वक अपने आपको देश की सेवा के लिए पूरी तरह समप्रित कर दिया। प्रत्येक व्यक्ति की परख उन लक्ष्यों के आधार पर ही होती है, जिनसे वह प्रेरित स्पन्दित होता है। गोखले स्वभाव से ही मृदु थे। अतः उनकी प्रवृत्ति यह थी कि नमर तरीकों से ही काम निकाल लिया जाए। हमारे सरीखे व्यक्तियों को वे तरीके अनुपयुक्त जान पड़ते थे। रोग के यथार्थ उपचार और पथ्यापथ्य के सम्बन्ध में दो चिकित्सकों के मतभेद होने पर भी हम चिकित्सक के रूप में गोखले के महत्त्व को स्वीकार करते हैं।
गोखले का 19 फरवरी, 1915 को निधन हो गया। वस्तुतः गोखले देश के एक महान सपूत थे, जो आजीवन देश की सेवा करते रहे। आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। तिलक ने अपने समाचार-पत्र केसरी में गोखले को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, गोखले में अने क गुण थे। उनमें से एक प्रधान गुण यह था कि बहुत छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने निःस्वार्थ, निष्ठापूर्वक अपने आपको देश की सेवा के लिए पूरी तरह समप्रित कर दिया। प्रत्येक व्यक्ति की परख उन लक्ष्यों के आधार पर ही होती है, जिनसे वह प्रेरित स्पन्दित होता है। गोखले स्वभाव से ही मृदु थे। अतः उनकी प्रवृत्ति यह थी कि नमर तरीकों से ही काम निकाल लिया जाए। हमारे सरीखे व्यक्तियों को वे तरीके अनुपयुक्त जान पड़ते थे। रोग के यथार्थ उपचार और पथ्यापथ्य के सम्बन्ध में दो चिकित्सकों के मतभेद होने पर भी हम चिकित्सक के रूप में गोखले के महत्त्व को स्वीकार करते हैं।

पं. मोतीलाल नेहरू ने उनके सम्बबन्ध में लिखा है, गोखले को देशभक्ति से आप्लवित एक ऐसी भव्य आत्मा प्राप्त थी, जिसने और सभी भावों को पराभूत कर लिया था। जन्मजात नेता होकर भी उन्होंने मातृभूमि के विनम्रतम सेवक से अधिक बनने की आकांक्षा कभी नहीं की और उस स्वदेश सेवा में उन्होंने जिस निष्ठा से काम लिया, वह सब इतिहास की वस्तुत बन चुके हैं। उन्होंने अपना जीवन उसी आदर्श के प्रति समर्पित किया, जो उन्होंने अपने तथा अपने देशवासियों के सामने रखा।
गोखले की मृत्यु पर गाँधीजी ने कहा, सर फीरोजशाह मेहता मुझे हिमालय की तरह अगम्य मालूम हुए, लोकमान्य तिलक महासागर की तरह थे, जिसमें आदीम आसानी से नहीं घुस सकता। किन्तु गोखले गंगा के समान थे, जो लोगों को अपने पास बुलाते थे। राजनीति के तन्त्र में मेरे हृदय में गोखले के लिए जो स्थान था, वह अब भी है और वह अनुपम रहा। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने गोखले और तिलक की तुलना करते हुए लिखा है, गोखले नरम थे और तिलक गरम। गोखले वर्तमान में सुधार चाहते थे, जबकि तिलक उसके पुननिर्माण के पक्ष में थे। गोखले को नौकरशाही के साथ काम करना पड़ता था, तो तिलक की नौकरशाही से भिड़न्त रहती थी। गोखले सम्भवतः सहयोग चाहते थे। तिलक का सुझाव अडंगा नीति की तरफ था। गोखले का उद्देश्य था स्वशान, जिसके योग्य लोग अपने को अंग्रेजों की कसौटियों पर कसकर बनाए, किन्तु तिलक का उद्देश्य था स्वराज्य, जिसे विदेशियों के विरोध के बावजूद भारतीयों को प्राप्त करना था। गोखले की महानता के सम्बन्ध में गाँधीजी ने कहा, राजनीतिक कार्यकर्ताओं में जितने गुण होने चाहिए, वह सब मैंने उनमें पाएँ, उमें बिल्लौर की सी स्वच्छता, मैमने की सी नम्रता, शेर की सी वीरता और दया तो इतनी थी कि वह एक प्रकार का दोष हो गई थी। गोखले राजनीति क्षेत्र में मेरे सबसे ऊँचे आदर्श थे और अब तक हैं। लाला लाजपतराय के अनुसार, गोखले कांग्रेस कार्यकर्ताओ में सबसे ऊँचे और अच्छे थे और उनकी देशभक्ति बहुत ऊँचे ढंग की थी।

पं. मदमोहन मालवीय (1561-1946)
पं. मदनमोहन मालवीय का जन्म 15 दिसम्बर, 1861 ई. को इलाहाबाद के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम पं. ब्रजनाथ मालवीय था, जो परम भागवत व संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। आपने प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग की संस्कृत पाठशाल में प्राप्त की। 1884 ई. में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा पास की और इसके बाद वकालात की परीक्षा भी पास की। तत्पश्चात् वे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक बन गए। 1886 ई. पहली बार उनका कांग्रेस से सम्पर्क हुआ और जीवन के अन्त तक उससे सम्बन्ध बना रहा, चाहे उनके इस संस्था से कई बार कितने ही मतभेद क्यों न रहे हों। मालवीय जी ने दैनिक हिन्दुस्तान का सम्पादन किया। कुछ दिन बाद उन्होंने अभ्युदय नामक पत्र स्वतन्त्र रूप से निकाला। उन्होंने उत्तर प्रदेश के लीडर नामक समाचार-पत्र के निकलवाने में भी हाथ बंटाया।
मालवीय जी 1902 ई. में संयुक्त प्रान्त उत्तर प्रदेश की विधान परिषद् के सदस्य चुने गए। 1909 ई. में आप प्रथम बार लाहौर कांग्रेस सम्मेलन के सर्वप्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। 1918 ई. में उन्होंने काशी में गंगा के तट पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह उनके जीवन की सबसे बड़ी देन है।
सन् 1919 ई. में मालवीय जी केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्य चुने गए। 1919 ई. में उन्होंने रोलेट बिल का केन्द्रीय विधानसभा में घोर विरोध किया। 1924 ई. में वे पुनः केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य स्वतन्त्र कांग्रेसी के रूप में चुने गए। 1927 ई. में वे राष्ट्रीय दल के केन्द्रीय विधान परिषद् में प्रधान चुने गए। इस दशक में उनका कांग्रेस के साथ मतभेद रहा। अतः उन्होंने कांग्रेस के विरूद्ध चुनाव लड़ा और निर्वाचित बी हुए, परन्तु वे विधान परिषद् में सदैव कांग्रेस का साथ देते थे।

यद्यपि मालविय जी असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन के विरूद्ध थे, तथापि उन्होंने सरकारी आदेशों और कानूनो की अवहेलना की। यही नहीं, जब 1930 ई. में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान गाँधीजी गिरफ्तार कर लिए गए, तो उन्होंने भारत के वायसरा लार्ड इरविन से गाँधीजी को छोड़ देने की बातचीत की। 1931 ई. में मालवीय जी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लन्दन गए। 1932 ई. में इलाहाबाद में उन्होंने एकता सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष आप कलकत्ता में अधिवेशन में कांग्रेस के सभापति के पद पर चुने गए। 1934 ई. में एम.एस. अणे से मिलकर आपने रैम्जे मेक्डोनल्ड के साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध किया। इसी वर्ष बिहार में भूकम्प आया। मालवीय जी ने चन्दा एकत्रित कर भूकम्प पीड़ितों की सहायता की। 1936 ई. में पश्चात् उनका स्वास्थ्य निरन्तर बिगड़ता गया। आप अपने जीवन में कई बार जेल गए और विदेश गए। 12 नवम्बर, 1946 ई. को आप का निधन हो गया।
विचारधारा
पं. मदनमोहन मालवीय के हृदय में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का बड़ा स्थान था। वे कट्टर हिन्दू थे। अतः उनकी हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों में अगाध श्रद्धा थी। श्रीकृष्ण को अवतार मानते थे। वे गीता में बताए हुए कर्म के इस सिद्धान्त में विश्वास रखते थे कि धर्म तथा सत्य की अन्त में पाप तथा अधर्म के विरूद्ध विजय होती है। मालवीय जी हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता में विश्वास करते थे। उन्होंने हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए सनानत धर्म महासभा की नींव रखी। यद्यपि वे पक्के हिन्दू थे, परन्तु साम्प्रदायिक मामलों में बहुत उदार थे। यहाँ तक कि मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली भी उनकी धार्मिक उदारता से प्रभावित हुए बिना न रह सके। वे हिन्दुओं की मुसलमानों पर हुकूमत स्थापित नहीं करना चाहते थे, बल्कि दोनों सम्प्रदायों की प्रत्येक उचित माँग को स्वीकार करने पर बल देते थे।
मालवीय जी शिक्षा के प्रति गहरा अनुराग था। वे धार्मिक तथा राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते थे, ताकि भारतीयों को अपने देश के गौरव के बार में ज्ञान हो सके। वे यह देखकर बहुत दुःखी होते थे कि शिक्षा में धर्म और सदाचार के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने नवयुवकों को भारतीय संस्कृति पर आधारित श्रेष्ठ शिक्षा दिलाने के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।

मालवीय जी पक्के सनातनी थे और गौ रक्षा के लिए उन्होंने महान कार्य किया। उन्होंने अपना सारा जीवन देश और धर्म की रक्षा में लगा दिया। वे हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे। इनके ही प्रयास से अदालतों में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रचार बढ़ा। आपने सनातन धर्म नामक पुस्तकें लिखकर हिन्दू मात्र के लिए एक धर्मसंगत दिनचर्या बना दी थी और तदनुकूल आचरण के आप स्वयं भी ज्वलंत उदाहरण थे। वे समाज सुधारक थे और उन्होंने हरिजनों के भी गले से लगाया। वस्तुतः वे त्याग और तपस्या की मूर्ति थे।
पं. मदमोहन मालवीय सच्चे देशभक्त थे। पं. जवाहरलाल नेहरू ने धारा सबा में उनके प्रति श्रद्धांजलि अप्रित करते हुए ये शब्द कहे, मालवीय जी ऐसे महापुरूष थे, जिन्होंने आधुनिक भारतीय राष्ट्र की नींव रखी और उस पर एक-एक ईंट चुनकर देश की आजादी का महल बनाया. आचार्य पी.सी. रे. जिसने मालवीय जी के समान त्याग किया हो और विभिन्न प्रकार के कार्य करने का उनस जैसे सबूत दिया हो।

बदरूद्दीन तैयब जी (1844-1906)

बदरूद्दीन तैयब उन स्वतन्त्रता सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने उस समय स्वाधीनता की मशाल जलाई थी, जब अंग्रेजी शासन के विरूद्ध बोलना तक अपराध माना जाता था। तैयाब जी, उमेश बनर्जी, दादाभाई नौरोजी एवं फीरोजशाह मेहता के समकालीन थे। सर ह्यूम को उन्होंने कांग्रेस की स्थापना हेतु प्रेरणा प्रदान की थी। तैयब जी हमेशा कांग्रेस के समर्थक बने रहे। इसके अतिरिक्त हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे। भारतीय स्वतन्त्रता सेनानियों में तैयब जी का नाम बड़े गर्व से लिया जाता है। हिन्दी के एक कवि ने उनकी स्मृति में लिखा हैः
स्वाधीनता की नींव डालकर वे धरती को छोड़ गए, धागों की ही नहीं, दिलों को दिल से भी है जोड़ गए
तैयब जी कांग्रेस के प्रारम्भिक दिनों में एक राष्ट्रीयतावादी नेता थे। उनका जन्म 8 अक्टूबर, 1844 ई. को बम्बई के सम्पन्न तथा संभ्रान्त मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके पिता सम्पन्न तथा सम्मानित व्यक्ति थे। पिता की सम्पन्नता के कारण उनकी बाल्यवास्था बहुत सुख से व्यतीत हुई थी। दुःख तथा अभाव के बारे में जानने तथा समझने का अवसर उन्हें बचपन में नहीं हुआ था।
तैयब जी ने पाँच वर्ष की आयु में पढाई प्रारम्भ की। प्रारम्भिक शिक्षा उन्होंने मुस्लिम मदरसे से प्राप्त की और ऊँची शिक्षा बम्बई के एलफ्रिंस्टन कॉलेज से प्राप्त की। वह प्रतिभावान विद्यार्थी थे। कठोर परिश्रम करते हुए सबसे आगे निकलने का प्रयास करते थे।

एलफिंस्टन कॉलेज से शिक्षा प्राप्त करने के बाद तैयब जी 1860 ई. में बैरिस्टरी की शिक्षा प्राप्त करने हेतु इँग्लैण्ड गए। उनके मित्रों में अंग्रेज लड़के भी थे। उन्होंने अंग्रेज लड़कों से सदैव आगे निकलने का प्रयास किया। एक बार प्रतियोगिता में उन्होंने अंग्रेज लड़कों से आगे निकलकर दिखा दिया। उस प्रतियोगति में उन्हें इतने अधिक अँक प्राप्त हुए थे कि अंग्रेज लडके भी दाँतों तले अँगली दबाने को विवश हो गए थे।
तैयब जी की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। उन्होंने कठोर परिश्म करके फ्रेंज एवं लैटिन आदि में भी दक्षता प्राप्त कर ली। अब उनका तीनों भाषाओं पर अधिकार हो गया। वे इन तीनों भाषाओं में बोलते थे, तो ऐसा लगता था कि अपनी मातृभाषा में बोल रहे होंे।
जब तैयबह की इंग्लैण्ड में बेरिस्टरी की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, उसी समय उनकी आँख में दर्द होने लगा। उन्होंने इसका इलाज करवाया और फिर भी दर्द अन्छा नहीं हुआ, तो वे भारत लौट आए। उन्होंने भारत में रहकर कई महीनों तक अपनी आँख का इलाज करवाया। दर्द अच्छा होने पर 1864 ई. में शिक्षा प्राप्त करने के लिए पुनः इंग्लैण्ड चले गए।
उन दिनों उमेश बनर्जी, फीरोजशाह मेहता एवं दादाभाई नौरोजी जैसे महापुरूष इंग्लैण्ड में ही निवास कर रहे थे। तैयब जी ने इन नेताओं से सम्पर्क किया। ये नेता तैयब जी के विचारों और उनके व्यक्तित्व से बुहत प्रभावति हुए। तैयब जी ने इन नेताओं से सम्पर्क के बाद देश सेवा करने का निश्चय कर लिया। 1867 ई. में वे बेरिस्टरी की परीक्षा पास कर भारत लौट आए। इस समय उनके हृदय में देशभक्त की भावनाएँ हिलोंरे मार रही थीं।
तैयब जी ने बम्बई के हाईकोर्ट में बेरिस्टरी प्रारम्भ की। उन दिनों हाईकार्ट के समस्त जज अंग्रेज थे। बेरिस्टर और वकील भी अंग्रेज थे। अकेले तैयब जी ही भारतीय थे। अंग्रेज जज तथा बेरिस्टर भारतीयों को हीनदृष्टि से देखते थे। उनकी दृष्टि में साधरण-सा बुद्धि रखने वाला अंग्रेज भी सुविज्ञ भारतीयों से अच्छा होता था।
प्रारम्भ में तैयब जी ने बहुत कठिनाई का समाना करना पड़ा। बड़े-बड़े मुकदमें सिर्फ अंग्रेज बेरिस्टरों के पास आते थे। फिर भी तैयब जी निराश नहीं होते थे। उनके एक वर्ष बाद फीरोजशाह मेहता एवं एच. वाड़िया बी बम्बई के हाईकोर्ट में वकालत करने के लिए आए, परन्तु वे कुछ दिनों में ही परेशान होकर हाईकोर्ट छोड़कर चले गए। तैयब जी निराश नहीं हुए और हाईकोर्ट में ही रहे। वे अपने को बड़े गर्व के साथ भारत माता का पुत्र कहते थे। अन्त में अपनी दृढ़ता के कराण वे जहाँ जम गए। उनके पास कुछ मुकदमें भी आने लगे। कुछ दिनों बाद उनकी गणना अच्छे वकीलों में की जाने लगी।

बम्बई हाईकोर्ट में तैयब जी की असाधारण सफलताओं से अंग्रेज ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सोचा कि अंग्रेजों में पढ़े-लिखे भारतीय बेरिस्टर यदि राजनीति में प्रवेश करेंगे, तो वे अंग्रेस सरकार के लिए घातक सिद्ध होंगे। यदि वे राजनीति में प्रवेश नहीं करते हैं, तो भी वे भारतीय जनता को स्वाधीनता का बोध तो करा ही देंगे। अतः ऐसा कोई उपाय किया जाना चाहिए, जिससे भारतीयो वकीलों तथा बेरिस्टरों का पत्ता कट जाए।
बंगाल के तत्कालीन गवर्नर कैंपवेल ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक प्रस्ताव पेश किया कि बेरिस्टरी और वकालत की परीक्षाओं में भारतीयों को नहीं बैठाने दिया जाए। कैंपवेल ने इस प्रस्ताव के पस करवाने के लिए एडी-चोटी तक का जोर लगा दिय, परन्तु यह प्रस्ताव पास नहीं हो सका। यदि उसका यह प्रस्ताव पारित हो जाता, तो उन दिनों को भी भारतीय बेरिस्टर या वकीन नहीं बन सकता था।

अंग्रेजों की आशंका सत्य सिद्ध हुई, क्योंकि इंग्लैम्ड में बेरिस्टरी करके लौटे भारतीयो नेताओं ने ही सर्वप्रथम राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने क काम किया। इन नेताओं में तैयब जी, तैलंग, उमेश बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, लालचन्द्र एवं मनमोहन घोष आदि मुख्य थे। इन दिनों इन्हीं नेताओं ने कलकत्ता में तीव्रगति से राष्ट्रीय चेतना का संचार किया, जिसने अंग्रेजों को चौंका दिया था।
तैयब जी संयमित जीवन जीते थे। उनका स्वभाव बहुत गम्भीर था। वे शराब तथा सिगरेट आदि कुछ भी नहीं पीते थे। वे अपना सारा कम ठीक समय पर करते थे। उन्हें घुड़सवारी का बहुत शौक था, परन्तु इसके लिए अपना बहुमूल्य समय नष्ट नहीं करते थे।
तैयब जी बड़े निर्भीक एवं स्पष्ट वक्ता थे। उन्हें जो कहना होता था, कह देते थे और जो करना होता, कर देते थे। एक बार तैयब जी पारसन नामक अंग्रेज जज से मिलने के लिए उनके घर गए। पारसन ने तैयब जी से कहा, मैं इस समय आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? मैं बहुत व्यस्त हूँ। इस पर तैयब जी ने कुर्सी से उठकर यह कहा, मेरे पास भी समय नहीं हैं। मैं जा रहा हूँ। यह कहकर तैयब जी अपना घोड़ागाड़ी की तरफ रवाना हो गए। तप पारसन को अपनी भूल का अहसास हुआ। वह अपनी भूल को सुधारने के लिए तैयब जी की घोड़ागाड़ी के पास गया और घोड़े की प्रशंसा करने लगा, परन्तु इसका तैयब जी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे पुनः लौटकर पारसन के घर नहीं गए।
तैयब जी की लगन तथा उनकी कर्मठता के कारण ही उनकी वकालत बहुत अच्छी चल रही थी। उनकी गणना अच्छे वकीलों में की जाती थी। इसी समय उन्होंने राष्ट्रीय और सामाजिक कार्यों में भाग लेना तथा जनता के हितों एवं अधिकारों के सम्बन्ध में आवाज उठाना प्रारम्भ कर दिया। 1883 ई. में बम्बई कारपोरेशन का चुनाव हुआ। तैयब जी ने चुनाव में भाग लिया और वे भारी बहुमत से चुन लिए गए। कारपोरेशन में रहते हुए उन्होंने हमेशा जनता की भलाई एवं अधिकारों के लिए संघर्ष किया।

31 जनवरी, 1885 ई. को बम्बई प्रेसीडेन्सी एसोसियेशन की स्थापना हुई। इस एसोसियेशन के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए तैयब जी ने कहा था, मैं समझता हूँ कि व्यक्तियों के ऊपर जो बात लागू होती है, वही राष्ट्रों के मामलों में भी, यह कि राजैनितक जीवन के विस्तार के साथ नई आकांक्षाएँ उत्पन्न होती है और इन आकांक्षाओं को प्रकट करने और पूरा करने के लिए एक संगठन की जरूरत होती है और यह संगठन राष्ट्रीय आकांक्षाओं का समर्थर्न और विकास करता है और उसका निर्देशन करता है। उन्होने और कहा, हमें अपने राजनैतिक अधिकारों का ज्ञान हो गया है और आधुनिक शिक्षा की रोशनी में हम सम्प्रदाय, वर्ण, वंश आदि के भेदभाव भूल गए हैं, जिनके कारण हम अब तक पूरी तरह बँटे हुए थे।
काशीनाथ त्र्यम्बक तैलंग एवं फीरोजशाह मेहता के साथ तैयब जी ने भी बम्बई के सार्वजनिक आन्दोलनों का नेतृत्व किया। एच.पी. मोदी ने इस सम्बन्ध में लिखा है, यह त्रिमूर्ति प्रशासन की हर शाखा में सुधार के लिए निरन्तर आन्दोलन चला रही थी। विभिन्न मंचों से तथा संस्थाओं के जरिए से वे सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में जनहित को आगे बढ़ाने के लिए चेष्टा कर रहे थे।
दिसम्बर, 1885 ई. में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, तो तैयब जी ने कांग्रेस का समर्थन किया और लन्दन टाइम्स के इस आरोप का खण्डन किया कि बम्बई के मुसलान कांग्रेस की बैठक में भाग न लें। बम्बई प्रेसीडेन्सी एसोसियेशन के एक भाषण में उन्होंने कहा,
मैं आपको इस आन्दोलन के साथ अपनी और सहधर्मियों की पूरी सहानुभूति क विश्वास दिलाता हूँ। अंग्रेजी के टाइम्स पत्र ने इस आन्दोलन के बारे में गलत बयानी की है।

यद्यपि कुछ कारणों से तैयब जी कांग्रेस के इस अधिवेशन में सम्मिलित नहीं हो सके, परन्तु बम्बई से प्रभावशाली नेताओं-रहमतुल्ला सयानी एवं अब्दुल्ला धर्मसी ने इसमें भाग लिया था। तैयब जी ने पुनः कहा, मुसलमानों की अंजुमने इस्लाक नामक संस्था है, जो सरकार के निकट मुसलमानों की माँगों को रखती हैं और मुसलमानों की उन्नति की कोशिस करती है। पर मैं इस बात से इन्कार करता हूँ कि मुसलमान देश की राजैनितक उन्नित के आन्दोलन में दूसरे धर्म मानने वाले लोगों से अलह हैं।
1886 ई. में तैयब जी को बम्बई की विधान परिषद् में नामजद सदस्य बनाया गया, जहाँ वे दस वर्ष तक जनता की भलाई के लिए संघर्ष करते रहे।
बम्बई के कांग्रेस अधिवेशन में दो प्रस्ताव हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिए जाने से सम्बन्धित पारित हुए थे। इन प्रस्तावों से अंग्रेजों के कान ख़डे हो गए। उनका मानना था कि यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हो गई, तो भारत में अंग्रेज सरकार की जड़े ही नष्ट हो जाएँगी। अतः अंग्रजों ने सोचा कि ऐसे प्रयत्न करें जिससे भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता कभी भी स्थापित नहीं हो सके।
1886 ई. में लार्ड डफरिन बम्बई आए। वे बम्भई में तैयब जी से मिले। उस समय डफरिन अपना तथा अपने परिवार का फोटा तैयब जी को उपहार में दिया। इस समय डफरिन ने मुसलमानों की बहुत प्रशंसा की और उनके प्रति मित्रता की भावना प्रदर्शित की। डफरिन ने कहा कि तुर्की में ब्रिटिश राजदूत के रूप में मुसलमानों का प्रेमी हो गया हूँ, पर इन सब बातों का तैयब जी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तैयब जी ने कहा, मैं दाता लोगों की तरफ से उपहार लेने से डरता हूँ। डफरीन तैयब जी को प्रलोभन दिए कि वे कांग्रेस का समर्थन नहीं करें और हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात छोड़ दें, किन्तु तैयब जी ने डफरिन की बात मानन से साफ इन्कार कर दिया। इस समय सैयद अमीर अली ने भी उनकों अंग्रेजों के पक्ष में लाने की चेष्टा की थी।

जब डफरीन तैयब जी को अपने पक्ष में नहीं ला सकता, तो इसके बाद उसने सर सैयद अहमद खाँ को अंग्रेजों के पक्ष में मिलाने के लिए उनके सामने चार फेंका बहुत दुःख की बात है कि सर सैयद अहमद खाँ डफरिन की बातों में आ गए। इससे पूर्व वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। डफरिन के प्रभाव में आने के बाद सर सैयद ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि कांग्रेस हिन्दुओं की संस्था है। मुसलमानों को उसमें भाग नहीं लेना चाहिए।
1886 ई. में कोलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें दादाभाई नौरोजी अध्यक्ष बने। मुसलमानों ने इस अधिवेशन का बहिष्कार करते हुए उसमें भाग नहीं लिया। तैयब जी किसी कारण से उस अधिवेशन में भाग नहीं ले सके थे, परन्तु वे कांग्रेस के विरूद्ध नहीं थे।
1886 ई. में सैयद अमीर अली ने मोहम्मडन एसोसियेशन के सचिव के रूप में कलकत्ता में मुसलमानों का एक प्रथम सम्मेलन बुलाया। तैयब जी को उस सम्मेलन में आमंत्रित किया गया थ। तैयब जी ने इस सम्मेलन में जाने से इंकार करते हुए इसके आयोजकों को पत्र लिखा।
यदि कलकत्ता में मुस्लिम सम्मेलन का उद्देश्य केवल कांग्रेस का विरोध करना है, तो मैं इसका पूरी तरह विरोध करूँगा और इसमें भाग नहीं लूँगा। उन्होंने आगे लिखा, सही रास्ता तो यह है कि हम कांग्रेस में शरीफ हों, उसके विचार-विमर्श में भाग लें और अपनी खास स्थिति उसमें रखे।

एक अन्य पत्र में तैयब जी ने अपने राजनैतिक विचारों को फिर से जाहिर किया है, मेरे अपने विचार ये हैं कि कुछ भारत सम्बन्धी आग राजनैतिक प्रश्नों पर हर शिक्षित तथा सार्वजनिक दृष्टि रखने वाले नागरिक का यह कर्तव्य है कि जाति, रंग या धर्म के भेदभाव के बिना, मिलकर काम करें।
एक अन्य पत्र में तैयब जी ने अपने राजनैतिक विचारों को फिर से जाहिर किया है, मेरे अपने विचार ये हैं कि कुछ भारत सम्बन्धी आग राजनैतिक प्रश्नों पर हर शिक्षित तथा सार्वजनिक दृष्टि रखने वाले नागरिक का यह कर्तव्य है कि जाति, रंग या धर्म के भेदभाव के बिना, मिलकर काम करें।
1887 ई. में मद्रास में कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन हुआ और तैयब जी इसके अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार और सैयद अमीर अलीं के तेवरों की परवाह न करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत के सब सम्प्रदाय के लोग मिलकर यथा साध्य कोशिश करें कि सरकार के सुधार और बड़े अधिकार प्राप्त किए जाएँ, जो हम सभी के लिए लाभजनक हैं और मेरा यह विचार है कि यदि हम लोग जोरदार तरीके से एक आवाज से उनकी माँग करें, तो हमें वे अधिकार मिल सकते हैं। उन्होंने अपने ओजस्वी भाषण में आगे कहा, भारत में कई जातियां और भाषाओं के लोग रहते हैं। अतः भारत के हितों की रक्षा उसी समय हो सकेगी, जब भारत में बसने वाले लोगों में एकता होगी। अतः किसी भी मूल्य पर एकता निर्बल नहीं होने देना चाहिए। उन्होंने इस आरोप का जोरदार खण्डन किया कि कांग्रेस सिर्फ लोगों की भीड़ है। उन्होंने ऐसे आरोप लगाने वालों को चुनौती दी, आप हमारे इस भवन में आइए और अपने चारों तरफ देखिए और मुझे बताइए कि जन्म और धन से नहीं, बल्कि बुद्धि, शिक्षा और पद से ऊँचे इतने आदमी और कहाँ मिल सकते हैं, सिवाय इस हॉल के अन्दर।

तैयब जी के इस भाषण की न केवल अखबारों ने, अपितु उस समय के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञों ने भी प्रशंसा की। फीरोजशाह मेहता ने उनके भाषण की प्रशंसा करते हुए कहा था, तैयब जी का भाषण भाषी की दृष्टि से सुन्दर था ही, विचारों की दृष्टि से भी बड़ा सुन्दर था। उन्होंने एकता पर जो विचार किए, वे बड़े ही प्रेरक और प्राणों का संचार करने वाले थे। तैयब जी ने मद्रास कांग्रेस की विषय कांग्रेस की विषय समिति में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि सदन को साम्प्रदायिक प्रश्न पर कभी विचार नहीं करना चाहिए।
कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद तैयब जी ने कई राज्यों के जिलों का दौरा किया। उनका मानना था कि किसानों तथा मजदूरों के सहयोग से ही कांग्रेस एक मजबूत संस्था बन पाएगी। वे किसानों तथा मजदूरों से बहुत प्रेम करते थे। 1899 ई. में तैयब जी का स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण सार्वजनिक कार्यों से पृथक रहकर स्वास्थ्य सुधार में लग गए। वे कभी-कभी नीलगिरी या दार्जिलिंग चले जाते थे।
1901 ई. में स्वास्थ्य ठीक होने पर तैयब जी ने पुनः सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। 1895 ई. में उन्हें जज पद पर प्रतिष्ठित किया गया। इस पद पर कार्य करते हुए उन्होंने ख्याति प्राप्त की। उनके फैसले में दिए कए तर्क अकाट्य होते थे।
1897 ई. में रेंड की हत्या से अंग्रेजों में भारी सनसनी हुई। इसके लिए उन्होंने भारतीयों को उत्तरदायी ठहराया। उन्होंने बड़े जोर-शोर से इस बात का प्रचार किया कि इस हत्या के बड़े-बड़े भारतीय नेता ही जिम्मेदार हैं।

तिलक के भाषण को आधार बनाकर सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। अंग्रेज सरकरा ने न पर आरोप लगाया कि उन्होंने अफजल खाँ की हत्या को उचित बताकर भारतीयों को अंग्रेजों की हत्या करने के लिए प्रेरित किया है। तिलक की गिरफ्तारी के बाद उनकी जमानत के लिए दो बार प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किए गए, जिन्हें अस्वीकृत कर दिया गया।
कानून की दृष्टि से ऐसी कोई बात नहीं दिखाई पड़ती कि उनकी जमानत के प्रार्थना-पत्र को स्वीकार न किया जाए। यदि जमानत के प्रार्थना-पत्र को अस्वीकार कर दिया जाता है, तो न्याय की हत्या तो होगी ही, साथ ही चारों ओर अपयश भी फैलेगा। तैयब जी बहुत बड़े विद्वान एवं प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनके फैसले से अंग्रेज जज खुश नहीं थे, परन्तु वे उनके फैसले का विरोध नहीं कर सके।
तैयब जी ने 11 वर्ष तक जज के पद पर कार्य किया। इस समय उन्होंने समाज सेवा के कई महत्त्वपूर्ण कार्य भी किए। पूना में प्लेग फैलने पर उन्होंने प्लेग से पीड़ित जनता की सराहनीय सेवा की और प्रशासन को भी कर्मठ बनाने का प्रयत्न किया। वे अंजुमन इस्लाम के सभापति भी रहे। 1903 ई. में मुस्लिम शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसकी अध्यक्षता उन्होंने की थी। उन्होंने भाषण देते हुए कहा था, मुसलमानों को कांग्रेस का समर्थन करना चाहिए एवं स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

1906 ई. में तैयब जी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण वे अपने पद से त्याग-पद्र देकर इंग्लैण्ड चले गए, जहाँ से लौटकर वे पुनः भार नहीं आए। 19 अगस्त, 1906 ई. को हृदयगति अवरूद्ध हो जाने के कारण इंग्लैण्ड में ही उनका निधन हो गया। उनके निधन का समाचार भारत में पहुँचती ही चारों ओर शोक के बादल छा गए थे।

तैयब जी भारत के सच्चे सपूत थे। उन्होंने देश की आजादी एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए जो कार्य किए थे, उन्हें कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा। इतिहास में उनके नाम का स्मरण हमेशा बड़े आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता रहेगा।

6. उग्रवादी राष्ट्रीय आन्दोलन

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में पूर्णरूप से उदारवादी नेताओं के प्रभाव में थी, जिनका अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा वैधानिक आन्दोलन में दृढ़ विश्वास था। उदारवादियों का मुख्य उद्देश्य भारतीय प्रशासन में क्रमिक सुधारों के लिए सरकार के समक्ष माँगें प्रस्तुत करना और संवैधानिक साधनों से उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करना था। लेकिन 1885 ई. से 1905 ई. के बीच के काल में भारत और विदेशों में कुछ ऐसी घटनाऐ घटित हुई, जिनसे कांग्रेस की युवा पीढ़ी में एक नया जोश उत्पन्न हुआ। अब उनका अंग्रेजों की न्यायप्रियता से विश्वास उठ गया और वे संवैधानिक साधनों तथा कांग्रेस की भिक्षावृत्ति की नीति से ऊब गए। अब वे यह महसूस करने लगे कि स्वराज्य माँगने से नहीं, बल्कि संघर्ष करने से ही प्राप्त होगा। श्री अरविन्द घोष ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लिखा, कांग्रेस ने जिन तरीकों को चुना है, वे सही तरीके नहीं है और जिन नेताओं में वह विश्वास करती है, वे नेता बनने के योग्य नहीं हैं। संघर्ष द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करने के मार्ग को अपनाने वाली इस धारा को ही उग्र राष्ट्रीयता के नाम से जाना जाता है। उग्रवादी नेताओं ने 1905 से लेकर 1919 तक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्तव किया था। जी.एन.सिंह ने लिखा है कि सत्य तो यह है कि भारतीय जनता के हृदयों में एक नए जीवन का प्रवाह हो रहा था तथा राष्ट्रीय आन्दोलन एक वास्तविक जन-आन्दोलन का स्वरूप धारण कर रहा था।

इस युग में एक ओर उग्रवादी आन्दोलन चला, तो दूसरी ओर क्रान्तिकारी आन्दोलन। दोनों का उद्देश्य एक था-अंग्रेजी राज्य से छुटकारा और पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति। उग्रवादी ब्रिटिश वस्तुओं तथा संस्थाओं के बहिष्कार द्वारा राष्ट्रीय पुननिर्माण में विश्वास करते थे। क्रान्तिकारी बमों तथा बन्दूकों को प्रयोग करने में विश्वास करते थे, किन्तु दोनों के साधनों में बड़ा अन्तर था। उग्रवादी शान्तिपूर्ण, लेकिन सक्रिय राजनीतिक आन्दोलन में विश्वास करते थे, जबकि क्रान्तिकारी अंग्रेजों को भारत से बाहर खदेड़ने के लिए शक्ति और हिंसा का मार्ग अपनाने के पक्ष में थे। गुरूमुख निहालसिंह ने दोनों विचारधारों की तुलना करते हुए लिखा है कि, इन दोनों में धार्मिक भावना समाई हुई थी, किन्तु दोनों का मार्ग अलग था। दोनों ही विचारधाराओं के नेतागण साहसी व्यक्ति थे। उनमें आत्म-बलिदान और स्वतन्त्रता की भावना थी, प्रबल देश प्रेम था और विदेशी राज्य के प्रति घृणा थी। पुराने कांग्रेसियों की भाँति उन्हें अंग्रेजों की उदारता और सच्चाई में विश्वास नहीं था और न उनकी राजनीतिक भिक्षावृत्ति में ही कोई निष्ठा थी। उन्हें तो आत्मनिर्भर और स्वतन्त्र कार्यों में विश्वास था। इन नेतागणों की प्रेरक भावनाएँ एक ही थीं, वे भारत और उसकी जनता के पश्चिमीकरण के विरूद्ध थे, वे प्रबल ही नहीं, वरन् उग्र राष्ट्रवादी थे, उनका उद्देश्य था-स्वतन्त्र भारत जो फिर प्राचीन वैभव, समृद्धि एवं पवित्रता से परिपूर्ण हो। दोनों में भेद केवल मार्ग का था। उग्रवादी और क्रान्तिकारी विचारधारा के अन्तर को स्पष्ट कर लेने के बाद अब हम दोनों विचारधाराओं का अलग-अलग अध्ययन करेंगे।

उग्रवादी आन्दोलन के उदय के कारण
भारतीय राजनीति में उग्रवाद का उदय एक आकस्मिक तथा निराधार घटना नहीं थी। यह अनेक कारणों, परिस्थितियों और घटनाओं का एक स्वाभाविक परिणाम था। उग्रवाद के उदय के कारणों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है।
1. सरकार द्वारा कांग्रेस की माँगों की उपेक्षा-
उदारवादी युग के नेता अंग्रेजों की उदारता एवं न्यायप्रियता में विश्वास रखते थे। वे ब्रिटिश के प्रति राजभक्ति रखते थे और प्रशासन में क्रमिक सुधार के लिए प्रार्थना-पत्रों, स्मृति पत्रों और प्रतिनिधि मण्डलों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी माँगे रखते थे, परन्तु कई बार तक तो ब्रिटिश सरकार ने उनकी माँगों की ओर ध्यान ही नहीं दिया। इसके विपरीत सरकार ने कांग्रेस के कार्यों में विध्न डालाना प्रारम्भ कर दिया। फिर भी, उदारवादी नेता कांग्रेस की माँगें मनवाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहे। परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 1892 ई. में भारतीय परिषद् अधिनियम पारित किया। इसके द्वारा भारतीयों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई थी, परन्तु प्रत्यक्ष निर्वाचन के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करने से भारतीयों को इस अधिनियम से कोई लाभ नहीं प्राप्त हुआ। यह अधिनियम भारतीयों को सन्तुष्ट नहीं कर सका। यहाँ ततक कि उदारवादी नेता भी इससे सन्तुष्ट नहीं थे। फिर भी, वे अपने प्रयत्न जारी रखने के पक्ष में थे. इन प्रयासों के बारे में लाल लाजपतराय ने कहा था कि, शिकायतें दूर करने और रिवायतें प्राप्त करने के 20 वर्षों से कम अधिक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप उन्हें रोटी के स्थान पर पत्थर ही प्राप्त हुए थे।

ब्रिटिश सरकार द्वारा कांग्रेस की माँगों के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति अपनाने के कारण लोकमान्य तिलक, लाल लाजपतारय तथा विपिचन्द्र पाल आदि कांग्रेस के युवा नेता बेचैन हो उठे। इन युवा नेताओं का राजनीतिक भिक्षावृत्ति और संवैधानिक साधनों में कोई विश्वास नहीं था। उनको यह विश्वास हो गया कि संवैधानिक साधनों से उनकी माँगे स्वीकृत नहीं हो सकती है। अतः उन्होंने सरकार के विरूद्ध कठोर कदम उठाना आवश्यक समझा, ताकि सरकार उनकी माँगें मानने के लिए विवश हो जाए। बालगंगाधर तिलक का विचार था कि, कांग्रेस की नरमी और राजभक्ति स्वतन्त्रता प्राप्त करने योग्य नहीं है। केवल प्रस्ताव पास करने और अंग्रेजों के सामने हाथ पसारने से राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होंगे, बल्कि उनके विरूद्ध युद्ध करना होगा। लाला लजपतराय ने भी कहा था कि, भारतीयों को अब भिखारी बने रहने में ही सन्तोष नहीं करना चाहिए और न ही उन्हें अंग्रेजों की कृपा पाने के लिए गिड़गिड़ाना चाहिए। इन युवा नेताओं का यह मानना था कि त्याग और बलिदान से ही हमारी माँगे स्वीकृत होंगी।

2. हिन्दु धर्म का पुनरूत्थान-
कांग्रेस के प्रायः सभी प्रारम्भिक नेता (गोखले, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एवं मदनमोहन मालवीय आदि) पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित थे। उनका मानना था कि पाश्चात्य धर्म, साहित्य, राजनीतिक संस्थाएँ, भाषा और संस्कृति भारतीयों की तुलना में श्रेष्ठ है। इन नेताओं का यह मानना था कि ब्रिटिश राज्य के कारण भारत की अनेक क्षेत्रों में उन्नति हुई है। अतः वे यह सोचते थे कि ब्रिटिश शासन भार के हित में है और ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग किया जाना चाहिए, ताकि भारत इंग्लैण्ड के पथ प्रदर्शन में निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ता रहे। दूसरी ओर, भारत में ऐसे लोग थे, जिन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति से श्रेष्ठ बतलाया। उनका विचार था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में भारत के हित में हो ही नहीं सकता। ऐसे लोगों में स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय एवं अरविन्द घोष आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने 1893 ई. में शिकागो (अमेरिका) के सर्वधर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म की महानता सिद्ध कर विश्वभर के प्रतिनिधियों को आश्चर्यचकित कर दिया था। इससे हिन्दूओं को अपने धर्म तथा संस्कृति में फिर से विश्वास जाग्रत हुआ और वे उस पर गौरव करने लगे। उन्होंने भारतवासियों से कहा कि अब हमें दासता से मुक्त होकर खुद अपना मालिक बनना है। इस प्रकार, उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने का प्रयास किया। यह अवस्था अरविन्द घोष की थी, उन्होंने कहा था कि, स्ववन्त्रता हमारे जीवन का उद्देश्य है और हिन्दू धर्म ही हमारे इस उद्देश्य की पूर्ति करेगा-राष्ट्रीयता एक धर्म है और वह ईश्वर की देन है। अरविन्द के लेख एवं संदेश प्रेरणा का स्रोत एवं जीवनदायक होते थे। वैलेन्टाइन शिरोल ने उन्हें, भारतीय अशान्ति में उत्पन्न एक अत्यन्त सराहनीय व्यक्ति तथा ऐसे धार्मिक पुनरूत्थान का धर्म-गुरू बताया जिसने बंगाल के भावुक युवकों को भली-भाँति प्रभावित कर लिया था। श्रीमती एनीबेसेण्ट ने यह कहा था कि, सारी हिन्दू प्रणाली पश्चिमी सभ्यता से बढ़कर है।

स्वामी विवेकानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कर हिन्दुओं को संगठित होने की एक नई प्रेरणा प्रदान की थी। तिलक ने पश्चिमी चीजों का विरोध किया। उन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए हिन्दू उत्सवों और हिन्दू संगठनों पर बल दिया था। तिलक ने 1907 में अपने कलकत्ता भाषण में कहा था कि, विदेशी शासन भारत के लिए अभिशाप है और नौकरशाही (सरकारी अधिकारियों की मनमानी हुकूमत) को दबाने के लिए प्रभावशाली आन्दोलन करना होगा। तिलक के गीता रहस्य ने कर्मयोग की महत्ता प्रतिपादित की। लाला लाजपतराय ने पश्चिमी सभ्यता से ओत-प्रोत भारतीयों की घोर निन्दा की और उन्हें अपने देश के अतीत गौरव को अपनाने के लिए सन्देश दिया। विपिनचन्द्र पाल ने बंगाल में काली और दुर्गा के नाम से जन साधारण में शक्ति और साहस का संचार किया। बंगाल में पाल ने शक्ति सम्प्रदाय को पुनः स्थापित किया तथा बंगाल की अधिष्ठातृ देवियों, काली एवं दुर्गा के सन्देश की नवीन व्याख्या की। उन्होंने लिखा था कि, काली भारत माता है, जिस पर गहन अन्धकार की कालिमा पुती हुई है, जिसका सब धन हर लिया गया है तथा तन पर परिधान तक नहीं है, पर यह देवी का नम्न एवं काला, विराट रूप है तथा उसने जो गले में नरमुण्डों की माला पहनी है, जिसमें लहू टपक रहा है, ये उसकी अपनी सन्तान के सिर हैं, जिनका अकाल और महामारी के कारण विनाश हुआ है। पुराने देवी-देवताओं को, जिनसे अब लोक मानस प्रभावित नहीं होता, पुनः देश की जनता एव स्त्रियों के लिए नव-राष्ट्रवाद का नया सन्देश लाने वाले बताया गया। बंकिचन्द्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक आनंद मठ द्वारा लोगों को बन्दे मातरम् का राष्ट्रीय गीत दिया। इन नेताओं ने इस बात पर बल दिया कि भारत स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् ही सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में उन्नति कर सकेगा। इससे जनता में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ।

3. अकाल एवं प्लेग का प्रकोप-
1876 से 1990 ई. तक देश के विभिन्न भागों में 18 बार अकाल पड़े। इनमें सबसे अधिक भीषण 1886-97 का दुर्भिक्ष था, जो बम्बई में पड़ा। यह अकाल 70,000 वर्ग मील में फैला हुआ था और इससे लगभग 2 करोड़ लोग मृत्यु के ग्रास बने। इतने भयंकर अकाल को दूर करने के लिए सरकार ने धन के अभाव का बहाना बनाकर बड़ी धीमी गति से कार्यवाही की। इसके विपरीत दूसरी ओर भारत सरकार रानी विक्टोरिया की जयन्ति उत्सव पर पानी की तरह पैसा खर्च कर रही थी। ऐसे समय में तिलक ने दक्षिण के किसानों में लगानबन्दी आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने प्राज को लगान न चुकाने का आह्वान करते हुए कहा, क्या तुम इस समय भी साहसी नहीं बन सकते, जब मौत तुम्हारे ऊपर नाच रही है। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध बहुत सख्त असन्तोष उत्पन्न हो गया।

अभी अकाल का घाव भरा भी नहीं था कि 1897-98 ई. में बम्बई प्रेसीडेन्सी में प्लेग फैल गया। पूना के आस-पास इस महामारी से सरकारी आंकडों के अनुसार 1 लाख 73 हजार व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। सरकार ने प्लेग को रकोने एवं जनता को राहत पहुँचाने के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाए। सरकार ने जो भी कदम उठाए थे, उनके प्रति भी जनता में क्षोभ तथा असन्तोष व्याप्त था। पूना में प्लेग की जाँ के बहाने सैनिक भारतीयों के घरों मे घुस जाते थे और स्त्रियों की जाँच के बहाने उनके साथ अत्यन्त ही अशिष्ट एवं अमानवीय व्यवहार करते थे। रामगोपाल ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, प्लेग कमिश्नर मि. रैण्ड के पीछे सेना और पुलिस चलती थी और वे बीमार वाले मकानों को जबरदस्ती गिरा देते थे और मकानों के निवासियों को जबरदस्ती कैम्पों मे भेज दिया जाता था। अनेक स्थानों पर प्लेग के कीटाणु को नष्ट करने के लिए बिस्तर और कपड़े जला दिए जाए, लेकिन उन्हें कीटाणु रहति वस्त्र नहीं दिए गए। रैण्ड और उनके सैनिक महान के हर हिस्से में, यहाँ तक कि रसोई घर के अन्दर और स्त्रियों के कमरों में भी घुस जाते थे और उनके साथ मनमाना व्यवहार किया जाता था। सारा काम इस ढंग का था, जैसे दुश्मन द्वारा जीते गए किसी शहर को फूंका ज रहा है।
ऐसे समय में तिलक ने अपने समाचार-पत्र केसरी में सरकार की कटु आलोचना करते हुए अंग्रेजों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का विवरण दिया। इससे प्रभावित होकर दो नवयुवको (दामोदर तथा बालकृष्ण चपलेकर) ने 1897 ई. में दो प्लेग अधिकारियों-मि. रैणअड तथा उनके सहोयीग लेफ्टिनेन्ट आयर्स्ट को गोली से उड़ा दिया। सरकार इस घटना से तिलमिला उठी। तिलक को केसरी में सरकार विरोधी टिप्पणियाँ करने के आरोप में 18 माह की सख्त कैद की सजा दी गई। उन्हें प्रिवी कौंसिल में अपील करने की अनुमति नहीं दी गई। कई अन्य राष्ट्रवादियों को प्राण दण्ड तथा देश से निर्वासित कर दिया गया। इससे अतिरिक्त पूना में दण्ड देने वाली पुलिस ठहरा दी गई। इससे जनता में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध आक्रोश की लहर दौड़ गई। इस सम्बन्ध में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि, हम पूना में दण्ड देने वाली पुलिस को ठहराना गलत समझते हैं। हम तिलक और पूना के कुछ अन्य सम्पादकों को कैंद में डालना और अधिक गलत समझतै हैं। तिलक की कैद पर सारा राष्ट्र रो रहा है। व्यक्तिगत स्वन्त्रता प्राप्त करना हमारा बहुमूल्य अधिकार है और इसके लिए हम सब संवैधानिक उपायों से यत्न करेंगे।

इन घटनाओं के प्रति उत्पन्न घृणा को अभिव्यक्त करते हुए हिन्दू ने लिखा था कि, विगत 40 वर्षों से ऐसी घटना नहीं घटी थी, जिसने जनता में उसकी असमर्थता तथा राजनीतिक गुलामी के प्रति इतनी अधिक चेतना पैदा की हो, जितनी कि बम्बई सरकार की करतूतों ने। श्रीमती एनीबेसेण्ट के अनुसार इन घटनाओं से भारत में उग्र राष्ट्रवाद का विकास हुआ। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, दामोदर के हाथों इन दो पदाधिकारियों का वध इस तथ्य का सूचक था कि राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवाद का उदय हो गया है।

4. भारत में तीव्रगति से आर्थिक शोषण-
लार्ड बेकन का यह कथन, अधिक दरिद्रता और आर्थिक असन्तोष क्रान्ति को जन्म देता है। भारत में उग्रवाद के उदय पर पूर्ण रूप से लागू होता है। अंग्रेज आरम्भ से ही भारत का तीव्र गति से आर्षिक शोषण कर रहे थे। वे भारत से कच्चा माल ले जाकर अपने कारखानों में उससे अनेक वस्तुएँ बनाते थे और उनको लाकर भारत में ही बेज देते थे। इंग्लैण्ड का मशीनों द्वारा निर्मित माल कुटीर उद्योग-धन्धों के निर्मित माल से सस्ता होता था। परिणामस्वरूप भारतीय बाजार यूरोपियन माल से भर गए और कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन हो जाने से उनमें कार्यरत व्यक्ति बेरोजगार हो गए। इससे देश में बेरोजगारी की समस्या उठ खड़ी हुई। अंग्रेजों की इस नीति के कारण भारतीय दिन-प्रतिदिन निर्धन होती गई। सरकार की नीति के विरूद्ध भारतीयों में घोर असन्तोष फैला। परिणास्वरूप विदेशी माल का बहिष्कार होना शुरू हो गया। इस समय दादा भाई नौरोजी, रमेशचन्द्र दत्त और डिग्वि आदि नेताओं ने अपने भाषणों तथा पुस्तकों से ब्रिटिश सरकार की इस नीति की आलोचना करते हुए कहा था कि भारत की निर्धनता का मूल कारण विदेशी शासन है। पं. नहेरू ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, उदारवादी विचारों के होते हु भी उन्होंने हमारे राजनीति और आर्थिक राष्ट्रीय विचारों को ठोस आधार प्रदान किया।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शिक्षण संस्थाओं की संख्या में वृद्धि हुई और अनेक भारतीयो ने इसमें शिक्षा प्राप्त की। परिणामस्वरूप शिक्षित भारतीयों की संख्या में वृद्धि हुई, परन्तु सरकार द्वारा शिक्षित भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखने की नीति का अनुसरण किया गया। इससे शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होती रही। परिणामस्वरूप, उनमें असाधारण निराशा तथा असन्तोष फैला, जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन को बहुत अधिक प्रभावित किया। ए.आर. देसाई लिखते हैं कि, भारत में उग्रवाद के उदय का एक प्रमुख कारण शिक्षित भारतीयों में बेकारी से उत्पन्न राजनीतिक असन्तोष था।

5. उपनिवेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार-
ब्रिटिश उपनिवेशों में रहने वाले भारतीयों के साथ बड़ा ही अन्यायपूर्ण, अभद्र एवं असभ्य व्यवहार किया जाता था। रंगभेद की नीति के कारण अंग्रेज भातीयों को काला आदमी कहते थे और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे। इसके अतिरिक्त उनसे दुर्व्यवहार भी करते थे। विशेष रूप से दक्षिणी अफ्रीका में भारतीयों को एक नीच जाति का समझा जाता था। उन पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगे थे। उन्हें पगडंडी पर चलने की आज्ञा नहीं थी और नही उन्हें प्रथम श्रेणी के डिब्बों में यात्रा करने का अधिकार ही प्राप्त था।
वे अपने नाम पर भूमि नहीं खरीद सकते थे। उन्हों यूरोपियनों के मकानों से दूर मकान बनाकर रहना पड़ता था। भारतीय बच्चों को कुछ विशेष स्कूलों में प्रवेश नहीं दिया जाता था। वे रात्रि के 9 बजे के बाद घर के बाहर नहीं निकल सकते थे। इन सबके अतिरिक्त 1907 ई. में ट्रान्सवाल की सरकार ने रजिस्ट्रेशन एक्ट पारित किया, जिसके अनुसार भारतीयों को अपराधियों की तरह अंगुलियों की छाप देकर अपना पंजीयन कराना आवश्यक कर दिया गया था। इस समय महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने गए, वहाँ उन्होने सरकार की रंग भेद नीति के विरूद्ध सत्याग्रह शुरू कर दिया। 1903 में दक्षिणी अफ्रीका से लौटकर डॉ. बी.एस. मुजें ने दुःखपूर्वक कहा था कि, हमारे शासन इस बात पर विश्वास नहीं करते कि हम मनुष्य हैं। अपने देशवासियों की इस दुर्दशा के कारण भारतीयों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध घृणा बढ़ी और यह सोचा कि भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार भारत की पराधीनता के कारण किया जा रहा है। इन अत्याचारों से मुक्ति का एक मात्र उपाय भारत को स्वतन्त्र करवाना है। इस भावना ने उग्रवाद की उत्पत्ति तथा विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया।

6. जातीय कटुता का चरमोत्कर्ष-
अंग्रेजों की भारतीयों के प्रति जातीय कटुता की भावना भी उग्र राष्ट्रीयता के जन्म का एक अन्य कारण था। इस समय भारतीयों को अपमानित करना अंग्रेजों के जीवन का एक अंग बन गया था। फिर भी, उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा कोई दण्ड नहीं दिया जाता था। यहाँ तक कि कोई अंग्रेज किसी भारतीय की हत्या भी कर देता, तो उसे नाम मात्र का दण्ड दिया जाता था। लार्ड रोनाल्डशे ने उस समय की दो घटनाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया, प्रथम, ब्रिटिश सैनिकों ने एक भारतीय स्त्री से बलात्कार किया, जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई, परन्तु उन सैनिकों को कोई दण्ड नहीं दिया गया। द्वितीय, 1902 में सियालकोट में स्थित घुड़सवार दल के सैनिकों ने एक भारतीय रसोइए को उनके लिए एक भारतीय स्त्री का प्रबन्ध करने के लिए कहा। जब उसने इस कार्य को करने से इन्कार किया, तो सैनिकों ने उसे मार डाला। लार्ड कर्जन ने अपने शासनकाल में जातीय कटुता की नीति की और भी प्रोत्साहन दिया। उसने अपने भाषण में कहा था कि पश्चिमी लोगों में सभ्यता और पूर्वी लोगों में मक्कारी पाई जाती है।
इन अपराधों और हत्याओं से दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि आंग्ल-भारतीय समाचार-पत्र खुले रूप में अंग्रेजों को भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करने की भावना को प्रोत्साहन देते थे। सरकार भी उन्हें दण्ड देने के स्थान पर प्रोत्साहन देती थी। लाहौर से प्रकाशित आंग्ल-भारतीय दैनिक दी सिविल एण्ड मिलिटरी गजट तो भारतीयों को जी भरकर गालियाँ देता था और शिक्षित बारतीयों के लिए बलबलता बी.ए., वर्णशंकर बी.ए., गुलाम, घुड़सवार, भिखारी, दास जाति एवं कलंकी जाति आदि अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाता था। इसके अतिरिक्त भारतीयों को किसी भी पद के लिए अयोग्य समझा जाता था। अंग्रेजों की जातीय कटुता की नीति ने स्वाभिमानी भारतीयों में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न की और वे उग्रवादी बन गए।

7. विदेशी घटनाओं का प्रभाव-
इस काल में विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटी, जिन्होंने भारतीयों को बहुत अधिक प्रभावित किया। इन घटनाओं के परिणामस्वरूप भारतीयों में उत्साह और साहस की भावना का संचार हुआ। इससे भारतीयों में राष्ट्रीयता की उग्र भावनाएँ उत्पन्न हुई। इस कारण भारतीय अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र करवाने के लिए बेचेन हो उठे। सर हेनरी कॉटन ने इन घटनाओं के प्रभाव का वर्णन करते हुए लिखा है कि, आयरलैंड के प्रश्न को क्रमिक निराकरण में आशा की किरणें दिखलाई पड़ी। इन सबसे बढ़कर जापान था, उसकी जनता के चरित्र ने बहुत प्रेरणा दी और इस बात का आदर्श प्रस्तुत किया कि किसी देश की जनता की देश भक्तिपूर्ण भावना क्या कर सकती है। भारत पर निम्नलिखित विदेशी घटनाओं का विशेष प्रभाव पड़ाः
(1) मिश्र, फांस एवं टर्की की जनता को स्वतन्त्रता संग्रामों में सफलता प्राप्त हुई थी। इससे भारतीय को काफी प्रोत्साहन मिला।
(2) 1896 ई. में अफ्रीका में एक छोटे से राष्ट्र अबीसीनिया ने इटली को पराजित कर दिया। गैरेट के शब्दों में, इटली की हार ने 1897 में तिलक के आन्दोलन को बड़ा बल प्रदान किया।
(3) 1905 के एशिया के एक छोटे से देश जापान ने एक विशाल देश रूस को पराजित कर दिया। इस घटना से भारतीयों में यह भावना उत्पन्न हुई कि अनन्य देशभक्ति, बलिदान तथा राष्ट्रीयता की भावना को अपने जीवन में उतारकर ही वे ब्रिटिश साम्राज्य से छुटकारा पा सकते हैं।

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि रूस-जापान युद्ध में जापान की विजय से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने लिखा है-
जापान की लगातार विजय से मेरा उत्साह बढ़ गया और मैं नया समाचार जानने के लिए प्रतिदिन उत्सुकता से अखबारों की प्रतीक्षा करता था। मैंने जापान पर बहुत-सी किबातें खरीद लीं और कुछ किताबों को अच्छी तरह पढ़ लिया। मैं कुछ दिनों तक जापान के इतिहास से मंत्र-मुग्ध हो गया।

नेहरू की तरह अनेक बुद्धिजीवी, लेखक, कवि एवं युवक जापान की विजय से प्रभावित हुए। मैथिलीशरम गुप्त ने जापन की विजय की चर्चा निम्नलिखित पंक्तियों में की-

संसार भर में आज जिसका छा रहा आंतक है।
नीची दिखा कर रूस को भी जो हुआ निःशंक है।।
जयपाणि जो वर्द्धक हुआ है एशिया के हर्ष का।
है शिष्य वह जापान भी इस वृद्ध भारतवर्ष का।।

वैलेन्टाइन शिरोल ने लिखा है, ऐसे बहुत-से भारतीय थे, जिन्हें रूस की जापन के प्रति युद्ध में पराजय एक एशियाई देश द्वारा एक यूरोपियन देश के मान-मर्दन से भी अधिक प्रतीत होती थी। यह रूस की एकान्त्रिक राज्य पद्धति पर एक करारी चोट भी प्रतीत होती थी। भारतीय विप्लववादी सदैव भारत सरकार को भी उसी के समान सर्वसत्ता सम्पन्न नौकरशाही के हाथों में खेलने वाली भारत सरकार की पद्धति बताते थ। भारत में ब्रिटिश अधिकारियों की देश का सत्यानाश करने के प्रति भर्त्सना की जाती थी।

इससे यह सिद्ध हो गया कि पाश्चात्य जातियाँ अजेय नहीं हैं। जापान की विजय का भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर जो प्रभाव पड़ा, उसका उल्लेख करते हुए विलडूरेन्ट महोदय ने लिखा है, रूस पर जापान की विजय आधुनिक इतिहास में एक नया मोड़ था और यहीं से एशिया का वह पुनरूत्थान आरम्भ हुआ, जिसने हमारे देश को राजनीतिक प्रगति की आशा दी। इस दृश्य को देखकर ही एक छोटे-से द्वीप-राज्य ने यूरोप के सबसे अधिक घनी जनसंख्या वाले देश को परास्त कर दिया है, सम्पूर्ण ऐशिया को सम्बल प्राप्त हो गया। चीन ने अपनी क्रान्ति को अग्रसर किया और भारत स्वतन्त्रता के स्वप्न देखने लगा।

(4) इसी समय मैजिनी, गैरीबाल्डी तथा कैवूर जैसे राष्ट्रवादियों के प्रयासों से इटली का एकीकरण हुआ। इसका भी भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। श्री गुरूमुख निहालसिंह के शब्दों में, मैजिनी के जीवन और कृतियों पर भारतीय भाषाओं में पुस्तकें लिखी गईं, अनुवाद किए गए और भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने अपने देशवासियों में स्वदेश प्रेम जाग्रत करने के लिए इटली के उदाहरण से काम लिया।
8. पश्चिम के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों का प्रभाव-
पश्चिम के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों ने उग्रवादी आन्दोलन की उत्पत्ति तथा विकास में बहुमूल्य सहायता दी। अमेरिका, फ्रान्स, जर्मनी और इटली आदि देशों के स्वतन्त्रता संग्रामों से यह स्पष्ट हो गया कि वैधानिक साधनों द्वारा स्वाधीनता प्राप्त करना सर्वथा असम्भव है। शक्ति, विद्रोह और क्रान्ति का मार्ग स्वन्त्रता प्राप्ति के लिए अवश्यमेव है। आयरलैण्ड का आदर्श भारतीयों के समक्ष था, जहाँ के देशवासियों ने अपने को स्वतन्त्र कराने के लिए रक्तपात का आश्रय लिया था। सारांश यह कि भारतीयों को यह विश्वास हो गया था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए शक्ति और क्रान्तिकारी मार्ग अपनाना ही होगा। इससे उग्रवादी विचारधारा को विशेष बल मिला।

9. बाल, लाल और पाल का योग्य नेतृत्व-
भारत में उग्र राष्ट्रीयता के उदया का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण बालगंगाधर तिलक, लाला लजपतराय एवं विपिनचन्द्र पाल का योग्य नेतृत्व था। मातृभूमि के अयन्य भक्त बालगंगाधर तिलक विदेशी नौकरशाही के कट्टर शत्रु थे। वे कहा करते थे कि, अच्छी विदेशी सरकार की अपेक्षाकृत हीन स्वीदेशी सरकार श्रेष्ठ है एवं स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और में इसे लेकर ही रहूँगा। तिलक उदारवादियों की भाँति ब्रिटिश शासन को भारत के लिए उपयोगी नहीं मानते थे और न ही राजनीतिक भिक्षावृत्ति की नीति में उनका विश्वास था। इसके विपरीत वे विदेशी शासन को भारत की समस्त कठिनाइयों का मूल कारण मानते थे और स्वदेशी राज्य को उसकी अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ मानते थे। वे विदेशी राज्य को घृणा की दृष्टि से देखते थे। इसकी पुष्टि करते हुए 15 जून, 1897 ई. के उस लेख से होती है, जिसमें उन्होंने लेखा था कि, यदि हमारे घर में चोर घुस आए और हममें उन्हें बाहर निकालने का सामर्थ्य न हो, तो हमें बिना किसी झिझक के उन्हे ंघर के अन्दर बन्द करके जला देना चाहिए। तिलक का मानना था कि राजनीतिक भिक्षावृति से स्वाधीनता का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। अतः हमें इसके स्थान पर जन जागृति तथा जन आन्दोलन के मार्ग को अपनाना चाहिए। उनका यह भी विश्वास था कि भारतीयों को सरकार के अत्याचारों का सामाना शक्ति तथा उत्साह से करना चाहिए और मातृभूमि के लिए दण्ड भुगतने में भी गौरव का अनुभव करना चाहिए। इस प्रकार तिलक ने अपने सशक्त भाषणों एवं लोकप्रिय नारों से भारतीयों में निडरता, वीरता, देशभक्ति तथा आत्म-त्याग की भावनाओं को जाग्रत किया और अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए सरकार से संघर्ष करना सिखाया। इसके अतिरिक्त उन्होंने शिवाजी उत्सव एवं गणपति उत्सव आदि के माध्यम से देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। डॉ. ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं कि, उनके उपदेश संगठन, पद्धति, विदेशी विरोधी प्रचार और व्यायामशालाओं ने विद्रोह के ऐसे बीज बोए, जिनके अत्याधिक व्यापक परिणाम हुए। वे आगे लिखते हैं कि, लोकमान्य तिलक ने अपनी शिक्षाओ, कार्यविधि तथा प्रचार के द्वारा भारतीय जनता की सरकार के प्रति विरोधी भावना को जागृत किया और उन्हें विदेशी राज्य के शत्रु बना दिया। तिलक ने भारतीयों को अपनी मातृभूमि के लिए मर मिटने कि प्रेरणा दी।

इस दिशा में लाला लाजपतराय, विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष ने तिलक के योग्य सहयोगियों के रूप में उग्रवादी आन्दोलन की महान् सेवाएँ की।
अरविन्द घोष ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए कहा कि, हमारा वास्तविक शत्रु कोई बाहरी नहीं, अपितु हमारी अपनी शिथिलता और कायरता है। एक अधीन राष्ट्र में स्वन्त्रता के लिए बलिदान की आवश्यकता है। राजनीति में आराम से कुर्सी पर बैठकर विदेशी सत्ता नहीं हिलाई जा सकती। उन्होंने कांग्रेस की पुरानी भिक्षावृत्ति की नीति का विरोध किया और भारतीयों को इसके स्थान पर आत्म-निर्भरता की नीति का उपदेश दिया, ताकि वे दृढता से सरकार का विरोध कर सकें। लाला लाजपतराय ने कहा था कि, अंग्रेज भिखारी से सबसे अधिक घृणा करते हैं और मैं सोचता हूँ कि भिखारी घृणा के पात्र हैं भी। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम यह सिद्ध कर दें कि हम भिखारी नहीं हैं। चिन्तामणि ने लिखा है कि, लाला लाजपतराय ने जनता में आक्रोश जाग्रत करने तथा उनके मस्तिष्क में उत्तेजना भर देने की अपूर्व क्षमता थी। विपिनचन्द्र पाल ने बंगाल की जनता में जाग्रति उत्पन्न करने की सिधास में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्हें बंगाल में तिलक का सेनापति कहा जाता है। इन प्रयासों के कारम पंजाब और बंगाल राष्ट्रीय आन्दोलन की इस नई धारा के केन्द्र बन गए और प्रान्तों के नवयुवकों ने इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन जन-आन्दोलन में परिवर्तित हो गया।

10. कर्जन के पूर्वगामी शासकों की अदूरदर्शिता-
उग्रवाद के विकास में राजनीतिक कारणों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा। ब्रिटिश सरकार तथा भारत स्थित अनेक वायसरायों की प्रतिकियावादी नीतियों ने भारतीयों में विद्रोह की भावना को जगाया। सन् 1892 से 1904 ई. तक इंग्लैण्ड के राजनीति तथा शासन पर उग्र साम्राज्यवादी अनुदार दल का अधिकार था। यह दल भारतीयों को राजनीतिक अधिकार देने के पक्ष में नहीं था। इस काल में भारत में तीन वायसराय आये-(1) लार्ड लैंस डाउन (1889-1894, (2) लार्ड एल्गिन द्वितीय (1894-98) एवं (लार्ड कर्जन। वे तीनों प्रतिक्रियावादी नीति के समर्थक थे। उनकी भारतीयों की माँगों के प्रति जरा भी सहानुभूति नहीं थी, इसलिए उन्होंने कठोर प्रतिक्रियावादी नीति अपनाई। लार्ड लैंस डाउन की नीति का विरोध करते हुए गोखले जैसे उदारावादी नेता ने 1892 ई. में कहा था कि, सरकार शिक्षा, स्थानीय स्वशासन तथा राजकीय सेवाओं में जिस प्रतिगामी नीति का अनुसरण कर रही है, उसके परिणाम सरकार के लिए भयानक सिद्ध हो सकते हैं।

लार्ड एल्गिन के समय भारत में भयंकर अकाल पड़ा। तब उसने जनता को राहत पहुँचाने के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाए तथा दूसरी ओर दिल्ली में एक शानदार समारोह आयोजित किया गया, जिसमें लाखों रूपये खर्च किए गए। इसलिए लाल मोहन घोष ने 1903 ई. में मद्रास कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में सरकार की तीव्र आलोचना करते हुए कहा था कि, जितने लाख रूपया दिल्ली दरबार पर खर्च किया गया,

यदि उसमें आधा भी अकाल को दूर करने पर खर्च किया जाता, तो लाखों नर-नारियों की जान बच जाती। क्या इंग्लैण्ड, फ्रांस अथवा संयुक्त राज्य अणेरिका में सरकार इतना पैसा ऐसे दरबारों पर नष्ट करती, जबकि देश में लाखों व्यक्ति भूख से मर रहे थे। एल्गिन की नीति से भारतीयों में असन्तोष की भावना का तीव्रगति से विकास हुआ। लार्ड एल्गिन के शासन के अन्तर्गत 1897 ई में बालगंगाधर तिलक पर राजद्रोह का अपराध लगाकर 18 महीने का कठोर कारावास का दणअड दिया गया। इसी प्रकार, नाटू बन्धुओं पर एल्गिन को यह सन्देह हो गया था कि वे क्रान्तिकारी संस्थाओं को सक्रिय सहयोग देते हैं। इसी आधार पर उनकी सम्पत्ति जब्त करके उनको देश निकाला दे दिया गया। लार्ड एल्गिन ने रिटायर होते समय शिमला यूनाइटेड सर्विसेज क्लब में भाषण देते हुए मूर्खतापूर्ण बात कही कि, हिन्दुस्तान तलवार के जोर से जीता गया और तलवार के जोर से ही उसकी रक्षा की जाएगी। इन वायसरायों की प्रक्रियावादी नीति के परिणामस्वरूप भारतीय जनता का अंग्रेजों की न्यायप्रियता से विश्वास उठ गया और उनके मन में अंग्रेजों के प्रति सहानुभूति समाप्त हो गई। रमेशचन्द्र दत्त के अनुसार, अंग्रेजों की न्याय भावना से जनता का विश्वास ऐसा हिल गया था, जैसा कि पहले कभी नहीं।

11. लार्ड कर्जन की दमन नीति (1898-1905)-
जिन दिनों भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति असन्तोष बढ़ रहा था, उन्हीं दिनों (1898) लार्ड कर्जन भारत के वायसराय बन कर आये। वह बड़ा स्वेच्छाचारी व्यक्ति था, यद्यपि वह कुशल प्रशासक था, तथापि वह भारतीयों से घृणा करता था। लार्ड कर्जन ने दो वर्ष के प्रवास के बाद लिखा था कि, मैं समझता हूँ कि कांग्रेस अपने वनिशान की ओर बढ़ रही है तथा भारत में रहते हुए मेरी यह एक महत्त्वाकांक्षा है कि इसके शान्तिपूर्ण देहावसान में इसकी सहायता करूँ। शिरोल ने लिखा है कि, कर्जन भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के ताज में सबसे उज्जवल रत्न समझते थे, किन्तु वह रत्न ऐसा था कि दमक अत्यन्त प्राचीन एवं मौलिक थी, जिसे आधुनिक रूप देने के प्रयत्न में केवल नष्ट किया जा सकता थ। कर्जन समझता था कि उन्हें भारत में इंग्लैण्ड की ओर से स्वयं उसका शासन करने भेजा गया है। 1904 में उसने भाषण देते हुए यह घोषणा की कि, सिविर सर्विस के उच्च पद केवल यूरोपियनों के पास ही रहने चाहिए, क्योंकि शासक जाति के सदस्य होने के नाते वे अधिक योग्य तथा श्रेष्ठ हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि कर्जन यूरोपीय लोगों को भारतीयों से हर दृष्टि से उच्च मानता था। फरवरी, 1905 ई. में कर्जन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षान्त भाषण में कहा था कि, सत्य का उच्च आदर्श अधिकतर पश्चिमी विचार है। इस आदर्श ने पहले पश्चिमी नैतिक परम्परा में उच्च स्थान लिया। बाद में यह आदर्श पूर्व में आया, जहाँ पहले चालाकी और कुटिलता आदर पाती रहती थीं।
लार्डर् कर्जन साम्राज्यवादी नीति में विश्वास करता था। वह भारतीय एकता को दुर्बल करके भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं का गला घोटना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने अपने शासनकाल में कार्यक्षमता के नाम पर अपनी भारत विरोधी नीति को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया। गोखले ने उसके बारे में सत्य ही कहा था कि, कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वही किया, जो मुगल साम्राज्य के लिए औंरगजेब ने किया था। लार्ड कर्जन यह नहीं समझ पाया कि, भारत में न केवल उच्च कोटि की राजनीतिक समस्याएँ है, वरन् मनोवैज्ञानिक समस्याएँ भी उतना ही महत्त्व रखती है और लार्ड कर्जन में बुद्धिमानी तथा योग्यता होते हुए भी उस आत्मिक भावना तथा दृष्टि का अभाव था, जो एक सफल राजनीतिज्ञ में होना अनिवार्य है।

 

लार्ड कर्जन के शासनकाल में भारत विरोधी कार्य

लार्ड कर्जन ने अपने शासनकाल में अनेक भारत विरोधी कार्य किए, उनका उल्लेख निम्न रूपों में किया जा सकता है-
(i) केन्द्रीकरण की नीति-
लार्ड कर्जन ने प्रारम्भ से ही केन्द्रीकरण की नीति अपनाई। वह एकीकृत तथा केन्द्रित शासन में विश्वास करता था। वह भारतीयों को उच्च पदों के लिए अयोग्य समझता था और उन्हें शासन कार्य का भार देने के पक्ष में नहीं था। उसके कार्यों से भारतीयों में यह विश्वास हो गया कि साम्राज्यवाद को और अधिक सुदृढ़ कर रहा है।
(ii) कलकत्ता कॉपोरेशन एक्ट (1899)-
लार्ड कर्जन ने सर्वप्रथम स्थानीय स्वशासन संस्थाओं पर प्रहार किया। उसने 1899 ई. में कलकत्ता कॉपरेशन एक्ट पारित किया, जसिके द्वारा कलकत्ता कॉपरेशन के सदस्यों की संख्या 75 से घटाकर 50 कर दी गई। इस अधिनियम का उद्देश्य यह था कि निगम तथा उसकी समितियों में निर्वाचित भारतीय सदस्य अल्पमत में रह जाए और सरकारी सदस्यों का बहुमत हो जाए, ताकि निगम पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो जाए और सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य मनमाने ढंग से सरकार के आदेशों का पालन करें एवं भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रखा जा सके। सरकार के इस कार्य से जनता में तीव्र गति से असन्तोष फैला। अतः इसके विरोध में निगम के 28 भारतीय सदस्यों ने त्याग-पत्र दिया, किन्तु सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

(iii) भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम (1904)-
लार्ड कर्जन ने भारतीय विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण स्थापित करने की दृष्टि से 1904 ई. में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया। रोनाल्डशे के अनुसार, इस अधिनियम द्वारा लार्ड कर्जन विश्वविद्यालय की सीनेट का यूरोपीकरण करना चाहता था और उनको वह सरकारी विश्वविद्यालयों में परिणीत करना चाहता था। इस अधिनियम के द्वारा विश्वविद्यालयों की सिंडीकेट और सीनेट के सदस्यों की संख्या में कमी कर दी गई। इस प्रकार इस अधिनियम ने विश्वविद्यालयों की आन्तरिक स्वतन्त्रता को नष्ट कर दिया और उन पर सरकारी अधिकारियों का नियन्त्रण स्थापित कर दिया गया। रोनाल्डशे ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, इस अधिनियम से शिक्षित भारतीयों में बड़ा असन्तोष फैला और उन्होंने यह ठीक ही अनुभव किया कि शासन विश्वविद्यालय प्रणाली पर प्रहार करना चाहता था।
(iv) शासकीय गोपनीयता अधिनियम (1904)-
1904 ई. में शासकीय गोपनीयता अधिनियम पारित किया गया, जिसके अनुसार करकारी कार्यकलापों का भेद देना दण्डनीय बना दिया गया और समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को सीमित कर दिया गया। अब समाचार-पत्रों में सरकार की कोई आलोचना नहीं की जा सकती थी। प्रेस की स्वतन्त्रता पर आघात भारतीयों के लिए असहनीय घटना थी।

(v) वैदेशिक क्रान्ति-
लार्ड कर्जन साम्राज्यवादी नीति का प्रबल समर्थक था। उसने भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा के दृष्टिकोण से पड़ौसी देशों को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। कर्जन की सीमान्त नीति तिब्बत, फारस की खाड़ी तथा चीन में सैनिक दस्ते भेजने की घटनाओं से भारतीयों में काफी असन्तोष फैल गया और उन्होंने इन कार्यों का विरोध किया। कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को दृढ़ बनाने हेतु ऐसी सैनिक कार्यवाहियाँ की, जिससे सैनिक व्यय में वृद्धि हो रही थी, जबकि दूसरी ओर भारतीय जनता भूखी थी।
(vi) शान-शौकत-
लार्ड कर्जन शान-शौकत में विश्वास करता था। अतः जनवरी, 1903 ई. में एक भव्य दरबार का आयोजन कर एडवर्ड सप्तम् के भारत का सम्राट होने की घोषणा की। इस दरबार पर टिप्पणी करते हुए 1903 के मद्रास के कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए लालमोहन घोष ने कहा था कि, जहाँ तक जनता का सम्बन्ध है, इससे ज्यादा निर्दय व कठोर कार्य और क्या हो सकता है कि, एक श्रेष्ठ सरकार संसार के सबसे गरीब लोगों पर सबसे ज्यादा कर लगाए और इस तरह से एकत्रित धन को व्यर्थ के नाच-तमाशों और आतिशबाजी में फूंक दे, जबकि जनता भूखों मर रही हो।

(vii) भारतीयों के प्रति अभद्र व्यवहार-
इन सबके उपरान्त लार्ड कर्जन ने भारतीयों को प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं रखी। वह भारतीयों को अविकसित जाति मानता था और उनको अयोग्य, पिछड़े तथा उत्तरदायी पदों के लिए अनुपयुक्त समझता था। 1905 ई. में उसने कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षान्त भाषण में स्नातकों को सम्बोधित करते हुए पढ़े-लिखे भारतीयों को झूठे और बेईमान कहा। इस समय भारतीयों के चरित्र पर आक्षेप करते हुए यहाँ तक कह डाला कि, भारतवासियों में सत्य के प्रति आस्था नहीं है और वस्तुतः भारतवर्ष में सत्य को कभी आदर्श ही नहीं माना गया है। पाश्चात्य देशों के नैतिक आचारण में सत्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, किन्तु पूर्व के नैतिक आचारण में सत्य के स्थान पर कूटनीतिज्ञता का प्राबल्य और भारतीय साहित्य में भी इस आचारण की ही प्रतिष्ठा है।
कर्जन ने भारतीयों के आत्म-सम्मान पर तीव्र आघात करते हुए कहा था कि, भारत राष्ट्र नाम की कोई वस्तु नहीं है। कांग्रेस के विषय में उसकी धारणा थी कि, उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो जाएगी। लार्ड कर्जन ने इस कार्यों का भारत के उग्र तत्त्वों ने हीं नहीं, अपितु उदारवादियों ने भी तीव्र विरोध किया और इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में सार्वजनिक सभाएँ आयोजित की गई। इन्द्र विद्या वाचस्पति के अनुसार, उपयोगितावाद तथा नास्तिकता के प्रवाह में बहते हुए यूरोप के निवासी से सत्यमेव जयते की परम्परा में पले हुए भारतीयों ने जब यह मर्म भेदी आरोप सुना, तो सम्पूर्ण देश में क्षोभ की लहर-सी दौड़ गई।

इससे भी आगे चलकर भारतवासियों के आत्म-सम्मान पर तीव्र आघात करते हुए उसने कहा कि, भारत राष्ट्र नाम की कोई वस्तु नहीं, लार्ड कर्जन के इन कार्यों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना तीव्र गति से जाग्रत की और इनका विरोध करने के लिए एनीबेसेण्ट के शब्दों में, सारा भारत राष्ट्र एक व्यक्ति के रूपमें उठ खड़ा हुआ। कर्जन के सम्बन्ध में जी.एन. सिंह ने लिखा है कि, लार्ड कर्जन के नेतृत्व में भारतीय सरकार, कांग्रेस की अवहेलना, प्रबुद्ध वर्ग एवं प्रमुख राष्ट्रीय संगठनों का अनादर करके युवा राष्ट्रवादियों को उग्रवादियों के रूप में परिणित कर दिया।
(viii) बंगाल विभाजन
एतिहासिक पृष्ठभूमि- 19वीं सदी के अन्त में बंगाल प्रान्त का क्षेत्रफल तथा जनसंख्या बहुत अधिक थी। उस समय इसमें वर्तमान विहार, उड़ीसा एवं बांग्ला देश शामिल थे। इसकी जनसंख्या 7 करोड़ 80 लाख थी। अतः एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के लिए इस विशाल प्रान्त का शासन चालना बहुत कठिन था। अतः 1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी गई। विभाजन का कारण यह बताया गया कि, एक पुरूष के कन्धों पर बंगाल के प्रदेश का शासन भारी बोझ है। उस प्रदेश के गवर्नर का अधिकांश समय कलकत्ता में ही व्यतीत होता है, क्योंकि वह देश की राजधानी है। अन्य भागों के शासन पर अधिक समय नहीं दे पाता है। इसका परिणाम यह है कि अन्य प्रान्तों की अपेक्षा बंगाल के शासन में व्यक्तिगत तत्त्व का अभाव है। अंग्रेज समर्थक कलकत्ता रिव्यू ने लिखा कि, बंगाल के स्थूलाकार प्रान्त का विभाजन शासन की सुविधा के लिए बहुत जरूरी है और अधिकारियों की कठिनाइयों में थोड़ी-सी रूचि रखने वाले व्यक्ति इस बात से समहत हैं।

अतः बंगाल का विभाजन करने पर विचार किया जाने लगा। दिसम्बर, 1903 ई. में लार्ड कर्जन ने इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर जनता के सामने घोषणा की, मेरे विचार में अच्छी सरकार वह है, जो जनता को अधिकाधिक सन्तुष्ट रख सके और यदि बंगाल को दो भागों में विभाजित कर दिया जाए, तो इन दोनों भागों में निश्चित रूप से प्रशासनिक कुशलता होगी, जिससे जनता अधिकाधिक मात्रा में सन्तुष्ट रहेगी। अतः कर्जन ने बंगाल को पूर्वी बंगाल एवं पश्चिमी बंगाल में विभाजित करने की योजना प्रस्तुत की। पूर्वी बंगाल में आसाम तथा बंगाल के कुछ जिले मिलाए जाएंगे, जबकि पश्चिमी बंगाल में बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल को शामिल किया जाएगा। वस्तुतः कर्जन इस विभाजन द्वारा बंगाल में उमड़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को कुचल देना चाहता था।

लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन-
लार्ज र्जन ने 16 अक्टूबर, 1905 ई. को बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। कहा जाता है कि यदि कर्जन ने सबसे बड़ा मूर्खता का कोई कार्य किया है, तो वह निश्चित रूप से बंगाल का विभाजन करना ही है। लार्ड कर्जन की विभाजन की घोषणा की सर्वत्र आलोचना हुई। बंगालियों का मानना था कि कर्जन ने यह विभाजन प्रशासनिक सुविधा के लिए नहीं किया है, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो वह प्रशासनिक सुविधा के लिए प्रस्तुत विकल्पों को नहीं ठुकराता। अतः बंगाल विभाजन के विरूद्ध आन्दोलन भड़क उठा। कर्जन ने कुछ जानकारी उपलबप्ध करने हेतु फरवरी, 1904 ई. में स्वयं पूर्वी बंगाल का दौरा किया तथा इसके बाद बंगाल विभाजन की योजना को अमल में लाने का निश्चय कर लिया। कर्जन ने बंग-भंग विरोधी आन्दोलन के प्रति और कठोर रूख अपनाया। अन्त में उसने 16 अक्टूबर, 1905 ई. को बंगाल का विभाजन कर ही दिया। इसके अनुसार पूर्वी बंगाल तथा आसाम को मिलाकर एक नए प्रान्त का निर्माण किया गया, जिसकी राजधानी ढाका थी। इस प्रान्त में विधानसभा तथा राजस्व मण्डल भी स्थापित किए गए। बंगाल के शेष भाग को पश्चिमी बंगाल नामक प्रान्त में मिला लिया गया। वस्तुतः इस विभाजन द्वारा कर्जन बंगाली भाषी हिन्दुओं को दोनों प्रान्तों में अल्पमत में रखना चाहता था एवं पूर्वी बंगाल के मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करना चाहता था।

आन्दोलन एवं प्रतिक्रिया-
वस्तुतः कर्जन ने बंगाल में उमड़ती राष्ट्रीयता की लहर को रोकने के उद्देश्य से बंगाल का विभाजन किया था, किन्तु उसका पासा उल्टा पड़ गया तथा इस विभाजन ने ने केवल बंगाल में, बल्कि समूचे भारत में राष्ट्रीयता की अभूतपूर्व भावना उत्पन्न कर दी। अब भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में एक नए युग का आरम्भ हुआ। इस सम्बन्ध में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने टिप्पणी करते हुए कहा कि, बंगाल के विभाजन की घोषणा आश्चर्यचकित जनता पर एक बम के रूप में पड़ी। हमने अनुभव किया कि हमें अपमानित किया गया है, हमारा उपहास उड़ाया गया है और हमसे छल किया गया है। हमने यह भी अनुभव किया कि हमारा समस्त भविष्य संकट में है और यह कार्य बंगला भाषी जनता की बढ़ती हुई एकता और चेतना पर एक भीषण प्रहार है। डॉ. रासबिहारी घोष ने कहा कि, लार्ड कर्जन ने वे सारे कार्य किए, जो उसे नहीं करने चाहिए थे।

कर्जन ने बंगाल विभाजन को आवश्यक बताते हुए कहा था कि, बंगाल जैसे विशाल प्रान्त के प्रशासन को भली-भाँति संचालित करने हेतु उसका-पूर्वी बंगाल एवं पश्चिमी बंगाल में विभाजन अनिवार्य था। अतः प्रशासनिक सुविधा के लिए ही बंगाल का विभाजन किया गया है। लेकिन वास्तविकता कुछ और ही थी। कर्जन ने यह कार्य राष्ट्रीयता का गला घोटने एवं हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालने के लिए किया था। लार्ड रोनाल्डशे के अनुसार प्रान्त के जाग्रत वर्ग के अनुसार इस विभाजन द्वारा बंगाली राष्ट्रीयता की बढ़ती हुई शक्ति पर आक्रमण किया गया था।
इस विभाजन की योजना के पीछे निहित उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट था। जैसा कि मजूमदार ने लिखा है कि, पूर्व बंगाल में मुसलमान, जो कि राजनीतिक दृष्टिकोण से कम जागरूक एवं हिन्दुओं की अपेक्षा अंग्रेजों के प्रति अधिक राजभक्त थे, बहुसंख्या में थे, जबकि बंगाल में बिहार एवं उड़ीसा को सम्मिलित करके बंगालियों का अल्पमत रह जाएगा। इस प्रकार बंगालियों को अपने कुटुम्बियों एव सम्बन्धियों से विलग कर दिया जाएगा तथा बंगाली, हिन्दु जिनसे कर्जन को धृणा है तथा जिसने उन्हें उनके प्रगतिशील राजनीतिक विचारों के कारण भय है, दोनों प्रान्तों में अल्पसंख्या में रहेंगे और बंगाल के हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न कर दिया जाएगा। निःसन्देह यह बंगाल में उत्पन्न होने वाली राष्ट्रीयता की भावना को नष्ट करने की एक वृहत योजना थी।

प्रो. अयोध्या सिंह ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, राजनीतिक चेतना की दृष्टि से बंगालवासी बहुत आगे बढ़े हुए थे। बंगाल सारे देश के राजनीतिक आन्दोलन का केन्द्र था। कर्जन जैसे साम्राज्यवादी शासक यह कैसे बर्दाश्त करता। उन्होंने फूट डालो, और राज करो की नीति पर चलते हुए मुस्लिम प्रधान बंगाल को अलग कर हिन्दू प्रधान शेष बंगाल के खिलाफ खड़ा करने की कोशिस की। डॉ. जकारिया के शब्दों में, उद्देश्य और प्रभाव की दृष्टि से बंगाल के विभाजन का कार्य नितान्त धूर्ततापूर्ण था। उस समय बंगाल की जनसंख्या लगभग 8 करोड थी। अतः यदि केवल प्रशासनिक सुविधा के लिए यह विभाजन किया गया होता, तो शायद जनता इसका इतना विरोध कभी नहीं करती, लेकिन सरकार ने तो बंगाल में फैलते राष्ट्रीयता के ज्वार को कुचलकर एक मुस्लिम प्रान्त का निर्माण करने के लिए ही बंगाल का विभाजन किया था। अतः इसके विरूद्ध आन्दोलन होना स्वाभाविक ही था। वस्तुतः कर्जन बंगाल में हिन्दुओं एवं मुसलमानों में फूट डालकर राष्ट्रीयता की भावना का दमन करना चाहथा था, ताकि अंग्रेजों को शासन करने में किसी तरह की परेशानी न हो। अतः वह मुस्लिम बहुत पूर्वी बंगाल में गया। वहाँ उसने एक मुस्लिम सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि, यह विभाजन मुसलमानों की सुविधा के लिए ही किया जा रहा है, ताकि वहाँ हिन्दुओं की प्रधानता समाप्त हो जाए एवं मुसलमानों का प्रभुत्त्व स्थापित हो जाए। ए.सी. मजूमदार के शब्दों में, लार्ड कर्जन ने मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए पूर्वी बंगाल का दौरा किया एवं अपने भाषणों द्वारा यहसिद्ध करने का प्रयास किया कि बंगाल विभाजन में मेरा उद्देश्य प्रशासनिक सुविधाभर देखना नहीं है, मैं एक मुस्लिम प्रान्त बनाना चाहता हूँ, जहाँ इस्लाम के अनुयाइयों को बोल-बाला होगा। मुसलमान सुख से रह सकेंगे तथा समृद्धशाली बन सकेंगे, क्योंकि उनके ऊपर किसी भी अन्य जाति का प्रभुत्व न रह जाएगा, विभाजन से पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को वह एकता प्राप्त होगी, जो मुसलमान बादशाहों और सूबेदारों को राज के बाद उन्हें कभी नसीब नहीं हुई थी। पूर्वी बंगाल के गवर्नर बैम्फाइल्ड ने कहा था कि, उसकी दो स्त्रियाँ है, एक हिन्दू और दूसरी मुसलमान, किन्तु वह दूसरी को अधिक चाहता है।

लार्ज कर्जन द्वारा मुसलमानों को भड़काने से पूर्वी बंगाल में साम्प्रदायिक दंगे हुए। यह विभाजन राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा था। अतः इसके विरूद्ध बंगाल में उग्र आन्दोलन प्रारम्भ हो गया, जो शनैः-शनैः सम्पूर्ण देश में फैल गया। विभिन्न सभाएँ आयोजित कर विभाजन पर आक्रोश व्यक्त किया गया। सरकार को स्मृति पत्र भेजे गए तथा एक प्रार्थना-पत्र ब्रिटिश संसद के पास भेजा गया, जिस पर 70,000 व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे, लेकिन सब निर्थक रहा एवं सरकार विभाजन पर अडिग रही। 16 अक्टूबर, 1905 ई. का दिन सम्पूर्ण देश में राष्ट्रीय शोक दिवस के रूप में

मनाया गया। उदारवादियों के विभाजन रद्द करवाने के सारे प्रयास विफल हो गए। उदारवादी नेता गोखले ने कहा था कि, नवयुवक यह पूछने लगे हैं कि संवैधानिक उपायों का क्या लाभ है, यदि इसका परिणाम बंगाल का विभाजन ही होना था। बालगंगाधर तिलक ने भी इस समय घोषणा की थी कि, राजनीतिक अधिकारों को लड़कर प्राप्त करना होगा। उदारवादी सोचते हैं कि अनुरोध द्वारा उन्हें प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु हमारा विचार है कि अधिकार केवल शक्तिशाली दबाव से ही प्राप्त किए जा सकते हैं। बंगाल विभाजन ने जनता का उदारवाद से विश्वास उठाने लगा तथा उग्रवाद का उदय हुआ।

बंगाल विभाजन के विरोध में वन्दे मातरम् का गान करते हुए अनेक टोलियों ने जुलुस निकाले तथा स्थान-स्थान पर सभाएँ होने लगी। डॉ. रघुवंशी एवं लालबहादुर ने जनभावना का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। वे लिखते है, प्रातःकाल से ही शहरों की सड़कें वन्देमातरम् के नारे से गुँज उठी थी। झुण्ड के झुण्ड नदी के किनारे एकत्रित हो रहे थे और प्रत्येक एक-दूसरे की कलाई पर राखी बाँध रहा था। गान-मण्डलियों ने वीरता भरे गीत गा-गाकर जनता में देशभक्ति की भावना जाग्रत की। तदुपरान्त विदेशी माल के बहिष्कार का आन्दोलन आरम्भ हुआ और प्रान्त के कौने-कौने में तथा प्रान्त के बाहर सभाएँ की गईं। सरकारी दमन ने आन्दोलन को और भी शक्तिशाली बनाया। मन्दिरों के पुजारियोंं तक ने आन्दोलन का साथ दिया। इस आन्दोलन में विद्यार्थियों ने अत्यन्त उत्साहपूर्वक कार्य किया। उन्होंने विदेशी माल की होलियाँ जलाई और विदेशी माल की दुकानों पर धरना किया। वन्दे मातरम् के गीत पर नियन्त्रण तथा आन्दोलन कारियों की गिरफ्तारियों से आन्दोलन ने और भी उग्र रूप धारण किया। पूर्वी बंगाल के गवर्नर पर फुलर की कहावत कि, उनके दो बीबयाँ है, एक हिन्दू और मुसलमान, किन्तु वह दूसरी को अधिक चाहते हैं। ने शिक्षित वर्ग की भावनाओं को अत्यधिक उत्तेजित किया और आन्दोलन में तीव्र क्रान्तिकारी भावना की जागृति हुई। विदेशी माल का बहिष्कार एक धामिर्क प्रतिज्ञा बन गई

और प्रत्येग बंगाली जिह्वा पर यह वचन थे कि, ईश्वर को साक्षी करके हम प्रतिज्ञा करते हैं कि जहाँ तक सम्भव और व्यवहारिक हो सकेगा हम देश का बना हुआ माल ही प्रयोग करेंगे और विदेशी माल का बहिष्कार करेंगे। भगवान हमारी सहायता करे।

बंगाल विभाजन के विरोध में वन्दे मातरम् का गान करते हुए अनेक टोलियों ने जुलुस निकाले तथा स्थान-स्थान पर सभाएँ होने लगी। डॉ. रघुवंशी एवं लालबहादुर ने जनभावना का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। वे लिखते है, प्रातःकाल से ही शहरों की सड़कें वन्देमातरम् के नारे से गुँज उठी थी। झुण्ड के झुण्ड नदी के किनारे एकत्रित हो रहे थे और प्रत्येक एक-दूसरे की कलाई पर राखी बाँध रहा था। गान-मण्डलियों ने वीरता भरे गीत गा-गाकर जनता में देशभक्ति की भावना जाग्रत की। तदुपरान्त विदेशी माल के बहिष्कार का आन्दोलन आरम्भ हुआ और प्रान्त के कौने-कौने में तथा प्रान्त के बाहर सभाएँ की गईं। सरकारी दमन ने आन्दोलन को और भी शक्तिशाली बनाया। मन्दिरों के पुजारियोंं तक ने आन्दोलन का साथ दिया। इस आन्दोलन में विद्यार्थियों ने अत्यन्त उत्साहपूर्वक कार्य किया। उन्होंने विदेशी माल की होलियाँ जलाई और विदेशी माल की दुकानों पर धरना किया। वन्दे मातरम् के गीत पर नियन्त्रण तथा आन्दोलन कारियों की गिरफ्तारियों से आन्दोलन ने और भी उग्र रूप धारण किया। पूर्वी बंगाल के गवर्नर पर फुलर की कहावत कि, उनके दो बीबयाँ है, एक हिन्दू और मुसलमान, किन्तु वह दूसरी को अधिक चाहते हैं। ने शिक्षित वर्ग की भावनाओं को अत्यधिक उत्तेजित किया और आन्दोलन में तीव्र क्रान्तिकारी भावना की जागृति हुई। विदेशी माल का बहिष्कार एक धामिर्क प्रतिज्ञा बन गई और प्रत्येग बंगाली जिह्वा पर यह वचन थे कि, ईश्वर को साक्षी करके हम प्रतिज्ञा करते हैं कि जहाँ तक सम्भव और व्यवहारिक हो सकेगा हम देश का बना हुआ माल ही प्रयोग करेंगे और विदेशी माल का बहिष्कार करेंगे। भगवान हमारी सहायता करे।

एक मुसलमान अपराधी ने अपने सहधर्मियों की एक भीड़ के सामने एक सूचना पढ़ते हुए कहा कि, सरकार तथा ढाका के नवाब बहादुर की आज्ञाओं के अनुसार कोई भी मनुष्य हिन्दुओं को लूटने और उन पर अत्याचार करने के लिए दंडित नहीं किया जाएगा। इस घटना के पश्चात् शीघ्र ही मुसलमानों ने एक मन्दिर में काली की मूर्ति को तोड़ डाला और हिन्दू व्यापारियों की दुकानें लूट लीं। मॉडर्न रिव्यू ने सत्य ही लिखा है कि, आन्दोलन काल की घटनाएँ सभी सम्बन्धित पक्षों के लिए निन्दनीय हैं...हिन्दूओं के लिए उनकी भीरूता के कारण, क्योंकि उन्होंने मन्दिरों के अपवित्रकरण, मूर्तियों के खण्डन और स्त्रियों के अपहरण के विरूद्ध बल का प्रयोग नहीं किया, स्थानीय मुस्लिम जनता के लिए नीच व्यक्तियों के बाहुल्य के कारण एवं अंग्रेजी सरकार के लिए इस कारण कि उसके प्रशासन में इस प्रकार की घटनाएँ बिना रोक-टोक बहुत दिनों तक होती रहीं।

बंगाल के विभाजन का भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय आन्दोलन पर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। बंग-भंग आन्दोलन ने सोयी हुई जनता को जगा दिया। स्वदेशी आन्दोलन और वन्दे मातरम् के नारे ने जनता की सुप्त शक्तियों को जाग्रत कर दिया।
राष्ट्रीय एकता की प्रबल भावन ने उनकी स्वतन्त्रता प्राप्ति की इच्छा को काफी दृढ़ बना दिया। बंगाल विभाजन की घटना ने भारतीय राजनीति में उग्रवादियों की प्रगति को तीव्रता प्रदान की। भारतीयों का अंग्रेजों की सत्यनिष्ठा और न्यायप्रियता से विश्वास उठ गया, भिक्षावृत्ति के उपायों से उनका विश्वास समाप्त हो गया। फलतः उन्होंने उग्रवादी उपायों को अपनाना श्रेयस्कर समझा और भारतीय राजनीति में गमर दल वालों को बोल-बाला हो गया। बंग-भंग विरोधी आन्दोलन ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को भी जन्म दिया। बंग-विच्छेद के फलस्वरूप भारतीय राजनीति में स्वदेशी आन्दोलन का समावेश हुआ। इसके अन्तर्गत विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग तथा स्वदेशी संस्थाओं पर बल दिया जाता था। आगे चलकर महात्मा गाँधी ने स्वदेशी आन्दोलन को भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक प्रमुख अस्त्र के रूप में अपनाया। बंग-भंग की अवधि में लार्ड कर्जन ने फूट डालो और शासन करो की नीति को अपनाकर हिन्दूओ और मुसलमानों के बीच खाई उत्पन्न की। कई स्थानों पर दंगे हुए तथा हिन्दुओं के साथ घोर अन्याय किया गया। इस आन्दोलन के कारण पुनः एक बार हिन्दू धर्म अपने सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठा को आँकने में कुछ हद तक समर्थ बनने की तैयारी करने लगा। अन्ततः यह आन्दोलन भारत के राष्ट्रीय क्षितिज पर अत्यन्त सफल आन्दोलन कहा जा सकता है, जिसने देश की धड़कनों के साथ अपना तादात्मय स्थापित कर राष्ट्र को नया जीवन प्रदान किया। सरकार इस आन्दोलन को कुचलने में असफल रही तथा यह आन्दोलन निरन्तर उग्र होता गया। लोगों ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करते हुए उसकी होलियाँ जलाईं तथा स्वदेशी को अपनाना प्रारम्भ कर दिया। इस तरह आन्दोलन दिन-प्रतिदिन उग्र हो रहा था।

बंगाल विभाजन रद्द करना एवं विभाजन का महत्त्व-
निरन्तर उग्र होते आन्दोलन एवं विभाजन के विरूद्ध होते प्रबल जनमत को देखकर जब सरकार को अन्य कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया, तो उसे विवश होकर 1911 ई. में बंगाल का विभाजन रद्द करना पड़ा। यह भारतीयों की एक महान् विजय थी, किन्तु अनेक अंग्रेज लेखकों ने इस विभाजन के रद्द हो जाने पर दुःख व्यक्त किया। पी.ई.राबर्ट्स के अनुसार, कर्जन ने यह कदम प्रशासन की श्रेष्ठता के लिए उठाया था। उसकी दृष्टि से यह परिवर्तन प्रशासकीय सीमाओं का पुनर्गठन मात्र था। जन भावना को ठेस पहुँचाना उसका लक्ष्य नहीं था। इस निर्णय को लेने से पूर्व कर्जन को क्या मालूम था कि उसके विरूद्ध इतना भयंकर आन्दोलन उठ खड़ा होगा और एक बार निर्णय करके पीछे हटना उसकी नीति के विरूद्ध था।...दृढ़ता के अभाव में प्रशासन का चक्र नहीं चलता। झुकने वाले प्रशासकों की साख खत्म हो जाती है एवं उन्हें जनसेवा से मुक्ति लेनी पड़ती है।

रॉबर्टस के ये विचार एक निष्पक्ष इतिहासकार कभी स्वीकार नहीं कर सकता। क्या कर्जन द्वारा पूर्वी बंगाल में मुसलमानों की सभा में दिया गया भाषण जन भावना को ठेश पहुँचाने वाला नहीं था? जहाँ तक झुकने वाले प्रशासकों की साख खत्म होने का सवाह है, तो रिपन की साख क्यों खत्म नहीं हुई, जब उसे 1883 ई. में प्रस्तुत इल्बर्ट बिल के विरूद्ध यूरोपियनों के संगठित आन्दोलन के समक्ष झुकना पड़ा था, क्योंकि वह तो यूरोपियनों के सामने झुका था, जबकि कर्जन भारतीयों के सामने, जिन्हें अंग्रेज कभी बराबर का नहीं मानते थे। जो प्रशासक जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुए अपने निर्णय में परिवर्तन करता है, उसे लोकतन्त्र की भाषा में हम जनतान्त्रिक प्रशासक कह सकते हैं।
वास्तव में कर्जन का बंगाल विभाजन मूर्खता का वो नमूना था, जो अपने आप में मिसाल था। इसने भारतीयों में अल्प समय में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न की, वो शायद वर्षों में भी उत्पन्न नहीं हो पाती। पुनः विभाजन रद्द करने से जनता को अपनी शक्ति का ज्ञान हो गया एवं वह समझ गई कि संगठित आन्दोलन से भारत में अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फैंकना भी सम्भव है।

डॉ. पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार, उग्रवाद की भावना को चरम सीमा पर पहुँचाने और राष्ट्रीय आन्दोलन को और तेज करने में काफी जिम्मेदारी कर्जन की और उसकी नीति की थी। इसके अलावा विभाजन रद्द करने से मुसलमानों में अंग्रेजों के खिलाफ असन्तोष बढ़ा। बंगाल विभाजन के परिणामों के बारे में गोखले ने ठीक कहा था कि, हमारी राष्ट्रीय प्रगति के इतिहास में बंगाल के विभाजन के परिणामस्वरूप पैदा हुआ जन रोष और भावना का महान् उद्रेक चिरस्मरणीय रहेगा।
इस विभाजन के फलस्वरूप एक अत्यन्त व्यापक एवं गम्भीर आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के मतानुसार लार्ड कर्जन ने अपने निष्ठुरतापूर्ण कृत्यों द्वारा भारत की राष्ट्रीय भावना को जितना बल दिया, उतना किसी भी ब्रिटिश राजनीतिज्ञ ने नहीं दिया। उन्होंने लिखा है, उन्होंने हमारे राष्ट्रीय जीवन का जितना अच्छा निर्माण किया और उसकी नींव जितनी चौड़ी एवं गहरी रखी है, उसे वे स्वयं नहीं जानते। जिन शक्तियों से राष्ट्रों के निर्माण में सहायता मिलती है, उन्होंने उन्हें बल दिया है, उन्होंने एक राष्ट्र का निर्माण किया है तथा आगामी पीढ़ियाँ भारत के इस सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी वायसराय को भारत के राष्ट्रीय जीवन का निर्माता समझती रहेंगी।

उग्रवादियों की राजनीतिक विचाराधारा तथा कार्य पद्धति
उग्रवादियों का सर्वप्रथम राजनीतिक उद्देश्य स्वराज्य की प्राप्ति था। उनके अग्रणी नेता तिलक ने यह उद्घोषित किया था कि, स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर ही रहेंगे। अरविन्द घोष ने भी कहा था कि, स्वतन्त्रता हमारे जीवन का लक्ष्य है और हिन्दू धर्म के माध्यम से ही इस आकांक्षा की पूर्ति हो सकती है। लोकमान्य तिलक ने कहा था कि, स्वराज अथवा स्वशासन के लिए आवश्यक है। स्वराज के बिना न कोई सामाजिक सुधार हो सकता है और न कोई औद्योगिक प्रगति ही सम्भव है इनके बिना न कोई उपयोगी शिक्षा ही दी जा सकती है और नही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता हो सकती है। इस प्रकार की भावना को अभिव्यक्त करते हुए लाला लाजपतराय ने कहा था कि, जैसे दास की आत्मा नहीं होती, उसी प्रकार दास जाति की भी कोई आत्मा नहीं होती और आत्मा के बिना मनुष्य पशु मात्र है, अतः इस देश के लिए स्वराज परम आवश्यक है और सुधार अथवा उत्तम राज्य इसके विकल्प नहीं हो सकते। अरविन्द घोष के विचार में स्वराज का तात्पर्य यह था कि राजनीतिक जीवन वेदान्त के आदर्शों से प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने कहा था कि, राजनीतिक स्वतन्त्रता एक राष्ट्र का जीवन खास है। बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता के सामाजिक तथा शैक्षणिक सुधार, औद्योगिक प्रसार तथा नैतिक उन्नति की बात सोचना मूर्खता की चरम सीमा है।

यद्यपि उदारवादियों की भाँति उग्रवादी भी भारत में स्वशासन चाहते थे, परन्तु उसे प्राप्त करने का ढंग में अन्तर था। उदारवादी ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत भारत में स्वशासन स्थापित करना चाहते थे। उनका विचार था कि ब्रिटिश शासन में सुधार किया जा सकता है एवं क्रमिक सुधार ही उपयुक्त एवं भारत के हित में है। इसलिए वे भारत में ब्रिटिश ढंग की प्रतिनिधि संस्थाओं की स्थापना के पक्ष में थे, ताकि भारतीयों में उन संस्थाओं के कुशल संचालन की योग्यता एवं क्षमता उत्पन्न हो सके। अतः वे अंग्रेजों के साथ सम्बन्ध भारत के लिए हितकारी मानते थे। इसके विपरीत उग्रवादियों का विचार था कि, ब्रिटिश शासन में सुधार किया ही नहीं जा सकता, उसका तो अन्त ही किया जाना चाहिए। इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए विपिनचन्द्र पाल ने मद्रास में कहा था कि, हमें देखना यह चाहिए कि 50, 100, 200 या 300 भारतीय अधिकारी क्या इस प्रकार सरकार को भारतीय बना देंगे? सभी अफसर भारतीय हो जाएँ, तभ भी वे नीति निर्धारित नहीं कर सकते, शासन नहीं चला सकते, वे तो सिर्फ हुक्म बजाते हैं-अफसर गोरा हो या काला उसे परम्पराएँ निभानी होती है, कानून और नीति का पालन करना है और जब तक ये परम्पराएँ निभती होती है, कानून और नीति का पालन करना है और जब तक ये परम्पराएँ न तोड़ी जाए, सिद्धान्त न बदले जाएँ, नीति न बदली जाए, गोरे अधिकारियों की जगह काले अधिकारियों की नियुक्ति कर देने से स्वराज्य नहीं आएगा। सर हेनरी कॉटन के अनुसार, उग्रवादी भारत में सब प्रकार से मुक्त और स्वतन्त्र राष्ट्रीय शासन प्रणाली की स्थापना करना चाहते थे। इस प्रकार, उग्रवादियों का उदारवादियों के औपनिवेशिक स्वराज्य में विश्वास नहीं था। वे तो अंग्रेज शासन का अन्त कर ऐसा पूर्ण स्वराज्य चाहते थे, जिसकी रचना भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के अनुरूप हो। उग्रवादी क्रमिक सुधारों के पक्ष में नहीं थे। वे यह नहीं चाहते थे कि पहले सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में सुधार किए जाएँ और जब भारतीय राजनीतिक प्रशिक्षण प्राप्त कर ले, तब स्वशासन की माँग की जाए। उनका मानना था कि, पहले स्वराज्य प्राप्त हो जाए, इसके बाद विविध क्षेत्रों में स्वतः सुधार हो जाएँगे। थियोडोर एल. शे. द्वारा तिलक की विचारधारा के स्पष्टीकरण से उग्रवादियों का उद्देश्य स्पष्ट होता है, इस नेता को इस बात का पूर्ण विश्वास था कि स्वराज्य भारत के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि नैतिक दृष्टि से भी सर्वथा उचित है। उन्होंने लोगों को उपदेश दिया कि हमें स्वराज्य की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि हम यूरोपीय ढंग की नकल करना चाहते हैं, बल्कि जीवन के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार स्वराज्य हमारी एक अनिवार्य नैतिक आवश्यकता हैं।...श्री तिलक के अनुसार धर्म के लिए और धर्म द्वारा ही हम कार्य करते हैं।...कोई विदेशी सत्ता और कोई विदेशी राजनीतिक विचारधार भारत के धर्म की रक्षा और अभिवृद्धि नहीं कर सकती थी, भले ही वह कितना भी परोपकारी क्यों न हो।

उग्रवादी और उदारवादी के राजनीतिक विचारों में काफी अन्तर था। उदारवादियों का मानना था कि ब्रिटेन और भारत के समान है और ब्रिटिश साम्राज्य भारत के हित में है। परन्तु उग्रवादियों के अनुसार भारत और ब्रिटेन के हित परस्पर विरोधी हैं और ब्रिटिश सरकार को सहयोग करके भारत को कभी भी पूर्ण स्वराज्य प्राप्त नहीं हो सकता।

विपिनचन्द्र पाल ने कहा था कि, युद्ध के बिना भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। उग्रवादियों का उदारवादियों की भाँति अंग्रेजों की न्यायप्रियता में बिल्कुल भी विश्वास नहीं था। उदारवादी नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश सरकार जैसे ही यह महसूस करेगी कि हमारी माँगे उचित हैं, वह तुरन्त उन्हें स्वीकर कर लेगी। परन्तु इसके विपरीत लाला लाजपतराय का यह मानना था कि, व्यापारियों का यह राष्ट्र केवल दबाव की भाषा ही समझता है। तिलक ने 1907 में कहा था कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ। अतः उसका अन्त करने के लिए एक प्रबल आन्दोलन करना चाहिए। स्पष्ट है कि उग्रवादी भारत में अंग्रेजी राज्य को समाप्त करके पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने के पक्ष में थे।

कार्य पद्धति और साधन-
लोकमान्य तिलक ने एक बार मेनचेस्टर गार्जियन के प्रतिनिधि नेविन्सन से कहा था कि, अपने उद्देश्यों के कारण नहीं, वरन् उसे प्राप्त करने के उपायों के कारण हमें उग्रवादियों की उपाधि मिली है। उदारवादी संवैधानिक तरीकों में विश्वास करते थे और उनका विचार था कि इन साधनों को आधार बनाकर हम स्वतन्त्रता प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। इसलिए वे अपनी माँगे मनवाने के लिए प्रार्थना-पत्र, स्मृति-पत्र एवं शिष्ट मण्डल आदि सरकार के पास भेजते थे। उग्रवादियों का संवैधानिक तरीकों में विश्वास नहीं था। वे याचना करके अपनी माँगे मनवाना पसन्द नहीं करते थे। उनका विश्वास था कि राजनीतिक सत्ता प्रार्थना करने अथवा राजनीतिक सुधारों की भीख माँगने से नहीं मिल सकती। उदारवादियों के तरीकों को वे राजनीतिक भिक्षावृत्ति के नाम से पुकारते थे। तिलक ने कहा था कि, हमारा उद्देश्य आत्म-निर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं। विपिनचन्द्र पाल का कहाना था कि, स्वराज्य स्वालम्बन के आधार पर ही प्राप्त किया जा सकता है। वे कहा करते थे कि, हमें अपनी राष्ट्रीय शक्तियों को इस प्रकार संगठित करना चाहिए कि कोई भी शक्ति जो हमारे विरूद्ध हो, हमारे सम्मुख झुकने के लिए बाध्य हो जाए। पुनः उन्होंने कहा था कि, यदि सरकार मेरे पास आकर कहे कि स्वराज्य ले लो, तो मैं उपहार के लिए धन्यवाद देते हुए उससे कहूँगा कि मैं उस वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकता, जिसको प्राप्त करने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है।

राजनीतिक सुधार तथा भिक्षावृत्ति के विपरीत उग्रवादी विरोधी आन्दोलन के प्रबल समर्थक थे। 1905 में लाला लाजपतराय ने कहा था कि, भारतीयों को आत्म-निर्भर बनना चाहिए और ब्रिटिश सरकार के सहयोग की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। उग्रवादियों का मानना था कि भारतीयों को मातृभूमि के लिए कष्ट सहन करने एवं त्याग करने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। उनका विचार था कि प्रार्थना लिखने, भाषण देने और प्रस्ताव पास करने से स्वराज्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतः जनता को जाग्रक करके राजनीतिक आन्दोलन द्वारा सरकार पर अधिक दबाव डालना चाहिए। उग्रवादियों का विश्वास निष्क्रिय प्रतिरोध अथवा सत्याग्रह में था। इस निष्क्रिय प्रतिरोध के बारे में विपिनचन्द्र पाल ने कहा था कि, सरकार के कार्य को कई प्रकार से ठप्प किया जा सकता है। ऐसा सम्भव नहीं है कि प्रत्येक मजिस्ट्रेट कार्य करने से इन्कार कर दे तथा एक व्यक्ति के त्याग-पत्र देने पर उसके स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति न मिले। परन्तु यदि यह भावना सारे देश में जाग्रत हो जाए, तो समस्त सरकारी कार्यालयों में हड़ताल की जा सकती है-हम उस भारतीय की स्थिति, जो सरकारी कर्मचारी है, ऐसा कर सकते हैं कि जैसे वह भारतीय नागरिक के सम्मान के नीचे गिर गया हो। लाला लाजपतराय ने निष्क्रिय विरोध के दो लक्षण बताएँ हैं-प्रथम भारतीयों के मन सें ये भावना दूर करना कि ब्रिटिश सर्वशक्तिशाली हैं और भारत का हित करना उसका मुख्य उद्देश्य है। द्वितीय, देशवासियों में स्वतन्त्रता के लिए त्याग व कष्ट सहन करने की क्षमता उत्पन्न करना।

बहिष्कार, स्वदेशी तथा राष्ट्रीय शिक्षा-
जिस प्रकार उदारवादियों के साधन प्रार्थना-पत्र, स्मृति-पत्र एवं शिष्ट मण्डल थे। उसी प्रकार, उग्रवादियों के साधन बहिष्कार, स्वदेशी तथा राष्ट्रीय शिक्षा थे। बहिष्कार से तात्पर्य विदेशी वस्तुओं, सरकारी नौकरियों, प्रतिष्ठानों तथा उपाधियों का बहिष्कार था। उग्रवादियों का विश्वास था कि बहिष्कार का सीधा प्रभाव ब्रिटिश सरकार पर पड़ेगा। लाला लाजपतराय कहा करते थे कि, दुकानदारों की जाति ब्रिटिश राष्ट्र को नैतिकता के ऊपर आश्रित तर्कों की अपेक्षा व्यापार में घाटा होने की बात अधिक प्रभावित कर सकती है। अरविन्द घोष के अनुसार, बहिष्कार का अन्तिम उद्देश्य भारत में विदेशी प्रशासन को पंगु बना देना था। उनकी दृष्टि में आर्थिक माल का बहिष्कार उस व्यापक बहिष्कार का एक अंग था, जिसके अनुसार उस हर वस्तु का बहिष्कार कर देना था, जो कि ब्रिटिश हो। बहिष्कार के आन्दोलन में निहित विचारधारा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पुनः लिखा है कि, हम अपने मुख सरकारी भवनों से हटाकर साधारण जनों की कुटिया की तरफ ले जाना चाहते हैं। बहिष्कार आन्दोलन का यही मनोवैज्ञानिक, यही नैतिक और यही आध्यात्मिक महत्त्व है। स्वदेशी से तात्पर्य स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना एवं स्वदेशी व्यवस्था की स्थापना से था। उग्रवादी स्वदेशी को ही मुक्ति का मार्ग समझते थे।

उदारवादी और उग्रवादी के व्यक्तित्व और विचाराधारा में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर था। उदारवादी पाश्चात्य शिक्षा के परिणाम थे। अतः उनका झुकाव पश्चिमी शिक्षा की ओर था। इसके विपरीत उग्रवादी भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक नवजागरण के परिणाम थे। अतः वे राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे, जिसमें भारतीयों का राष्ट्रीय हित निहित था। विपिनचन्द्र पाल ने कहा था कि, राष्ट्रीय शिक्षा वह शिक्षा है, जो राष्ट्रीय रूप-रेखाओं के आधार पर चलाई जाए, जो राष्ट्र के प्रतिनिधियों द्वारा नियन्त्रित हो और जो इस प्रकार नियन्त्रित तथा संचालित की जाए कि राष्ट्रीय भाग्य की प्राप्ति इसका उद्देश्य बने। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु तिलक ने दक्षिण शिक्षा समाज नामक संस्था की स्थापना की थी।

अन्य विशेषताएँ- उग्रवादियों की कुछ अन्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-
1.
उग्रवादी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से घृणा करते थे और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को उससे श्रेष्ठ तथा उच्च मानते थे। उन्हें भारत के धर्म जागरण से विशेष प्रेरणा मिली थी।
2. उग्रवादियों का ब्रिटिश जाति की न्यायप्रियता, उदारता एवं सर्वशक्तिशीलता में तनिक भी विश्वास नहीं था।

3. उग्रवादी स्वराज्य के अतिरिक्त भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के अनुरूप देशवासियों का चरित्र निर्माण करना चाहते थे।
4. उग्रवादियों का ईश्वर, राष्ट्र एवं आत्म-निर्भरता में विश्वास था।
5. भारतीयों में नई राष्ट्रीयता को जगाना और त्याग व कष्ट सहने के मार्ग को अपनाना उग्रवादियों के प्रमुख साधन थे।
6. उग्रवादियों का मानना था कि भारत और ब्रिटेन के आर्थिक हितों में विरोध है। उनके अनुसार ब्रिटेन की आर्थिक नीति के कारण भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होता जा रहा है। अतः वे जल्दी से जल्दी ब्रिटेन से आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध समाप्त करने के पक्ष में थे। इसी हेतु उन्होंने बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी आन्दोलन को एक राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग करना चाहा।
बहिष्कार एवं स्वदेशी आन्दोलनों में काफी सफलता मिली। कलकत्ता के एंग्लो इण्डियन समाचार पत्र द इंग्लिश मैन ने लिखा था कि, यह बिल्कुल सत्य है कि कलकत्ता के गोदामों में कपड़ा इतना भरा हुआ है कि वह बेचा नहीं जा सकता। अनेक मारवाड़ी फर्मे नष्ट हो जाती हैं और की बड़ी से बड़ी युरोप निर्यात दुकानों को या तो बन्द करना पड़ा है या उनका व्यापार बहुत ही मन्द गति पर आ गया है। बहिष्कार के रूप में राज्य के शत्रुओं ने देश में ब्रिटिश हितों पर कुठारघात करने का एक अत्यन्त प्रभावशाली शस्त्र पा लिया है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बहिष्कार आन्दोलन की लोकप्रियता के बारे में लिखा है, परीक्षार्थियों ने विदेशी कागज की कॉपियों छूने से इन्कार कर दिया, बच्चों ने विदेशी जूते पहने या ज्वर में विदेशी दवा लेने से इन्कार कर दिया और विवाह में मिली ऐसी विदेशी भेटें भी अस्वीकार की जाने लगीं, जो भारत में भी बन सकती थीं।
इन बहिष्कार आन्दोलनों के कारण वस्त्र उद्योग को सहायता देने के लिए राष्ट्रीय कोष में रकम एकत्रित की गई। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एक सार्वजनिक सभा में 70 हजार रूपए एकत्रिए किए थे। इससे वस्त्र उद्योग को अपूर्व बल मिला।

उग्रवादियों तथा उदारवादियों की तुलना

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दो धाराएँ रही हैं-उग्रवादी एवं उदारवादी। उदारावादी दल के नेताओं में दादाभाई नौरोजी, महादेव गोविन्द रानाडे, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता एवं गोपालकृष्ण गोखले के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपिनचन्द्र पाल एवं अरिवन्द घोष जैसे लोग उदारवादियों के विपरीत उग्रवादी कहे जाते हैं। इन दोनों की धाराओं का मूल उद्देश्य भारतीय जनता का हित था। उनके लक्ष्य में बहुत कुछ समानता थी, लेकिन उसकी पूर्ति के साधनों में मूल अन्तर था। इन दोनों विचारधारों के अनतर को निम्न प्रकार बतलाया जा सकता है-

1. राष्ट्रवाद की इन दोनों धाराओं का उद्देश्य एक ही था-स्वशासन की प्राप्ति, लेकिन स्वशासन से दोनों दलों का आशय भिन्न था। उदारवादी क्रमिक राजनीतिक सुधारों के पक्ष में थे। वे ब्रिटिश शासन के छत्र-छाया में प्रतिनिध्यात्मिक संसदीय संस्थाओ की स्थापना करना चाहते थे। इसके विपरीत उग्रवादी किसी भी रूप में ब्रिटिश शासन को बनाए रखने के विरूद्ध थे। उनकी स्वराज्य की धारणा में ब्रिटिश सम्राट के प्रति भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं था। वे भारतीयता पर आधारित स्वराज्य तथा ब्रिटेन से शीघ्रातिशीघ्र सम्बन्ध विच्छेद करने के पक्ष में थे।

2. उदारवादियों का अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा परोपकारिता में पूर्ण विश्वास था। उनका सोचना था कि यदि अंग्रेजों को भारतीय दृष्टिकोण समझाया जाए, तो वे उसे स्वीकार कर लेंगे। इसके विपरीत उग्रवादियों का अंग्रेजों की नियत तथा उदारता में जरा भी विश्वास नहीं था। श्रीमती एनीबेसेण्ट के अनुसार, उग्रवादियों को सरकार के अच्छे इरादों पर तनिक भी विश्वास नहीं था, जबकि उदारवादियों की आशा का आधार शासन की निश्चलता थी।

3. इन दोनों धाराओं के साधनों में भी अन्तर था। उदारवादी संवैधानिक तरीकों का प्रयोग उचित समझते थे। वे अपनी माँगें मनवाने के लिए सरकार को प्रार्थना-पत्र, स्मृति-पत्र एवं शिष्ट मण्डल आदि भेजते थे। दूसरे शब्दों में, उदारवादी अपनी माँगे मनवाने के लिए सरकार से प्रार्थना और याचना करते थे। उनका मानना था कि सरकार आवश्यक सुधार अपने आप करेगी। इसके विपरीत उग्रवादीन इन तरीकों को नापसन्द करते थे तथा इन्हें अपनाना अपने आत्म-सम्मान के विरूद्ध भी मानते थे। इसलिए वे इसे राजनीतिक भिक्षावृत्ति की संज्ञा देते थे। वे राजनीतिक भिक्षावृत्ति की अपेक्षा आत्म-निर्भरता तथा जन साधारण के कार्य में विश्वास करते थे। उग्रवादी अपनी माँगे मनवाने के लिए स्वदेशी माल का प्रचार, विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी संस्थाओं का निर्माण और विकास आदि साधनों के अपनाने पर बल देते थे। उग्रवादियों का मानना था कि अंग्रेज सरकार भिक्षा देने वाली नहीं है। यहि हमें पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करना है, तो संघर्ष करना होगा। इसके लिए वे त्याग और कष्ट सहन को आवश्यक मानते थे।
4. उदारवादियों के विचार में ब्रिटेन तथा भारत के हितों में कोई गम्भीर विरोध नहीं था। वे ऐसा सोचते थे कि ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भी भारत का हित सम्भव है। किन्तु इसके विपरीत उग्रवादियों की धारणा थी की ब्रिटेन तथा भारत के हित एक-दूसरे के विरूद्ध हैं। अंग्रेजों का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करना है, वे भारत का हित बिल्कुल नहीं चाहते। अतः भारत के विकास के लिए अंग्रेजों से सहयोग की आशा व्यर्थ और निर्मूल है। ब्रिटिश शासन भारत के विकास में कभी भी सहायक हो ही नहीं सकता, ऐसी उनकी मान्यता थी।

5. उदारवादी पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित थे, इसलिए वे पश्चिमीकरण के प्रबल समर्थक थे। इसके विपरीत उग्रवादीन प्राचीन हिन्दू धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति तथा उसके आधार पर विकसित हिन्दू राष्ट्रीयता के पोषक थे। उदारवादियों को प्रेरणा पश्चिमी से मिली थी, जबकि उग्रवादियों को पूरव से।

6. उदारवादी आराम कुर्सी की राजनीति में विश्वास करते थे। गोखले जैसे नेता को छोड़कर सामान्यतः वे देश हित के लिए त्याग और कष्ट सहने के लिए तैयार नहीं थे। इसके विपरीत उग्रवादी देश हित के लिए त्याग और कष्य सहने को आवश्यक मानते थे। अरविन्द घोष ने कहा था कि, हमारा वास्तविक शत्रु कोई बाहरी शत्रु नहीं, बल्कि हमारी अपनी शिथिलता और कायरता है। एक अधीन राष्ट्र स्वतन्त्रता द्वारा उन्नति के द्वार खोलता है और स्वतन्त्रता के लिए बलिदान की आवश्यकता है। राजनीति की आराम कुर्सी पर बैठकर विदेशी सत्ता नहीं हिलाई जा सकती। भारत अपने पराक्रम और शक्ति से ही विदेशी शासन का विरोध कर सकता है।

उदारवादी और उग्रवादी राष्ट्रीय आन्दोलन में अन्तर बताते हुए लाला लजपतराय ने लिखा है कि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्मदाताओं ने अपना आन्दोलन शासन की प्रेरणा से और उच्च पदों की छाया में या उच्च पद ग्रहण करने की आकांक्षा से प्रारम्भ किया, लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन के संचालकों ने अपना प्रचार शासन और शासकीय कृपा के बहिष्कार से प्रारम्भ किया। पूर्ववर्ती नेता ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश राष्ट्र से अपील करते थे, जबकि ये उग्रवादी नेता अपने देशवासियों और अपने ईश्वर से अपील करते थे।

निष्कर्षतः-
उदारवादियों
तथा उग्रवादियों में उपरोक्त अन्तर होते हुए भी दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं थे, अपितु सच्चे भक्त तथा देशप्रेमी थे। अतः उन्हें एक-दूसरे का पूरक कहना अधिक उपयुक्त होगा। श्री रामनाथ सुमन ने हमारे राष्ट्र निर्माता नामक पुस्तक में लिखा है कि, जब हम नरम एवं गरम दोनों दलों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण और अध्ययन करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि हमारी राष्ट्रीयता के विकास में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और हमारी राजनीति के स्वाभाविक उपकरण है। वस्तुतः वे दोनों एक ही आन्दोलन के दो पक्ष हैं। एक ही दीपक के दो परिणाम हैं। पहला प्रकाश का द्योतक हैं, तो दूसरा उष्मा का। पहला बुद्धिपक्ष है, तो दूसरा भाव पक्ष। पहला जहाँ कुछ सुविधाएँ प्राप्त करना चाहता था, वहाँ दूसरे का उद्देश्य राष्ट्र में मानसिक परिवर्तन करना है। सर जॉन कर्मिंग ने अपनी पुस्तक राजनीतिक भारत में इन दोनों दल के बारे में लिखा है कि, कांग्रेस के सम्पूर्ण इतिहास में, समय-समय पर बने दलों के नामों के नीचे, तरीकों के आधार पर विभाजित दो विचारधाराएँ देखी जा सकती हैं। यह विचारधारा के मानने वालों ने भारत के लिए स्वशासन व स्वराज्य निर्धारण के ध्येय को अपनाया है, जिसके दर्शन ब्रिटिश उग्रवादियों जैसे रहे और इसके तरीके संसद के विरोधी दल जैसे रहे।

इसे दक्षिणपंथी विचारधारा कह सकते हैं। दूसरी अर्थात् वामपंथी विचारधारा के समर्थकों ने स्वशासन के ध्येय को, वर्तमान संस्थाओं को क्षीण बनाकर उनके स्थान पर नई संस्थाएँ निर्मित करने के द्वारा प्राप्त करना चाहता है। इसका झुकाव सीधी और असंसदीय कार्यवाहियों की ओर रहा है।


उग्रवादी आन्दोलन की प्रगति

कांग्रेस में फूट (गमर दल तथा नरम दल)
बनारस में कांग्रेस का अधिवेशन एवं उग्रवादी दल का जन्म
भारतीय राजनीति में उग्रवाद के उदय से कांग्रेस संगठन का प्रभावित होना नितान्त आवश्यक था। 1905 ई. में कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में बालगंगाधर तिलक तथा उनके कुछ समर्थकों ने उदारवादियों की कार्यविधियों की आलोचना करते हुए उसे राजनीतिक भिक्षावृत्ति की संज्ञा दी और एक नई नीति अपनाने का सुझाव दिया। अरविन्द घोष के शब्दो में, इस नीति का सार यह था कि सरकार के साथ उस समय तक असहयोग किया जाना चाहिए, जब तक कि वह भारतीयों को प्रशासनिक तथा वित्तीय क्षेत्र में अधिक अधिकार न दे। उग्रवादियों ने कहा कि, कांग्रेस निष्क्रिय प्रतिरोध के मार्ग को अपना कर ही भारत के राष्ट्रीय जीवन पर से विदेशी नौकरशाही के प्रभुत्व का अन्त कर सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि ब्रिटिश माल और सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया जाएं एवं स्वेदशी के पक्ष में आन्दोलन चलाया जाए। परन्तु यह बात उदारवादियों के गले नहीं उतरी। उनका विचार था कि इसे अपनाने से भारत की राष्ट्रीय प्रगति में बाधा पड़ेगी। उदारवादियों का अब भी ब्रिटिश न्याय भावना और संवैधानिक साधनों की प्रभावदायकता में विश्वास था।

इसी अधिवेशन में कांग्रेस के दोनों वर्गों द्वारा स्वराज्य की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की गई। उदारवादियों के अनुसार इसका तात्पर्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत औपचारिक स्वराज्य की स्थापना करना था। इसके विपरीत उग्रवादी इसका आशय पूर्ण स्वराज्य प्राप्त होने से लेते थे। परस्पर विरोधी विचार के कारण बनारस अधिवेशन में कांग्रेस के दो दल बन गए थे। उन दिनों प्रिन्स ऑफ वेल्स भारत आने वाला था। अतः उदारवादियों ने एक प्रस्ताव रखा कि उसका स्वागत किया जाना चाहिए। सर्वप्रथम लाला लाजपतारय ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि, देश में भीषण दुर्भिक्ष है, त्राहि-त्राहि मची हुई है और लोग भूख से मर रह हैं। इसके अतिरिक्त लार्ड कर्जन के शासन ने भारी असन्तोष उत्पन्न कर दिया है। ऐसे अवसर पर युवराज को आमन्त्रित करना नौकरशाही की चालकी है। इसका वास्तविक उद्देश्य जनता का ध्यान राजनीतिक असन्तोष से हटाकर जुलूसों और तमाशों की ओर लगाना है। हमें उनके धोखे में नहीं आना चाहिए। बालगंगाधर तिलक सहित अनेक नवयुवकों ने लालाजी के इस विचार का समर्थन किया।

उग्रवादी दल का जन्म 1907 ई. में कांग्रेस में सूरत में फूट के बाद हुआ, परन्तु नींव बहुत पहले ही रखी जा चुकी थी। उदारवादियों के असफलता के परिणामस्वरूप कांग्रेस में कुछ ऐसे लोगों का पर्दापण हुआ, जो उग्र तथा क्रान्तिकारी मार्ग पर चलने के पक्ष मे थे। धीरे-धीरे कांग्रेस दो दलों-नरम और गमर दल में बँट गई। उदारवादियों का दल नरम दल तथा उग्रवादियों का दल गरम दल कहलाने लगा। नमर दल के प्रमुख नेता गोपालकृष्ण गोखले, फीरोजशाह मेहता और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी थे। दूसरी ओर गरम दल के नेता बालगंगाधर तिलक, लाला लजपतराय एवं विपिनचंद्र पाल आदि थे, जो लाल-बाल-पाल के नाम से प्रसिद्ध थे। दोनों दलों के बीच पहली बार 1905 में बनारस में अधिवेशन में खुला संघर्ष हुआ। परस्पर विरोधी विचारों के कारण ही इस अधिवेशन में कोई भी महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित नहीं हो सका। कांग्रेस के अधिवेशन की समाप्ति के बाद उग्रवादियों की पृथक् बैठक हुई, जिसे लोकमान्य तिलक ने सम्बोधित किया। इस प्रकार, अनादधिकार रूप से उग्रवादी या गरम दल का जन्म हुआ।

कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन और बल परीक्षा (1906)
1906
में कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस के अन्दर नरम और गमर दलों पर फूट ओर भी गहरी हुई। उग्रवादी नेता तिलक को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे और उदारवादी इस प्रस्ताव के विरूद्ध थे। अतः इस प्रश्न पर दोनों दलों में झगड़ा होना अनिवार्य था। ऐसी स्थिति में उदारवादियों ने दादाभाई नौरोजी को इंग्लैण्ड से बुलाकर सभापति पद पर आसीन कर दिया। दादाभाई नौरोजी की उम्र उस समय 82 वर्ष के थे। अतः उन्हें भारतवर्ष का पितामह कहा जाता था। गमर दल वालों के हृदय में नौरोजी के लिए विशेष सम्मान था। इस प्रकार, वयोवृद्ध दादाभाई ने अपनी योग्यता और चार्तुय से कांग्रेस में फूट उत्पन्न न होने दी। दादाभाई की प्रभावपूर्ण अध्यक्षता में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ, वह महान् था। परन्तु विषय निर्वाचिनी समिति के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि, मैंने जितने अधिवेशन देखे हैं, वह उनमें सबसे अधिक कोलाहल तथा विद्रोह से पूर्ण था। असहिष्णुता का बाजार गर्म था और वृद्ध नेताओं के प्रति अभद्रता भी दिखाई गई। अन्त में, भीष्म पितामह दादाभाई के प्रभाव तथा प्रयत्नों से समझौता हुआ। उस समय तो समझौता हो जाने के कारण कांग्रेस का अधिवेशन टूटने से बच गया, परन्तु परिणाम अच्छा नहीं हुआ क्योंकि दोनों पक्ष उस समझौते की अपने अनुकूल व्याख्या करते रहे। सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा है कि, दोनों दल में जो मतभेद था, उसमें निरन्तर वृद्धि होती गई तथा 1906 के शीतकाल तक वह ऐसा उग्र होता गया कि 82 वर्ष के वयोवृद्ध दादाभाई तो इंग्लैण्ड से भारत बुलाकर अध्यक्ष बनाने के अतिरिक्त कांग्रेस का अधिवेशन करना असम्भव प्रतीत हो रहा था।

दादाभाई ने दूरदर्शिता से काम लेते हुए अध्यक्षीय भाषण का प्रारम्भ सर हेनरी बैरमैन के इस वाक्य से कि, सुराज्य किसी भी दशा में स्वराज्य का स्थापन्न नहीं हो सकता। इस प्रकार, उन्होंने कांग्रेस का लक्ष्य स्वराज्य घोषित किया। नौरोजी के सभापति होने पर भी गर्म दल वाले, स्वराज्य, स्वदेशी आन्दोलन, विदेशी बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा का समर्थन आदि प्रस्तावों को पास करवाने में सफल हुए। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि, कांग्रेस, अधिवेशन में इस प्रकार के प्रस्ताव पारित होना वस्तुतः उग्र दल की ही विजय थी। इन प्रस्तावों के पास हो जाने से उग्रवादियों को काफी सन्तोष हुआ तथा कांग्रेस की एकता बनी रही। यह इस बात का प्रमाण था कि भारतीय राजनीति में उदारवादियों का पहला-सा प्रभाव तथा सम्मान नहीं रहा था।
सूरत कांग्रेस में फूट (1907)
कांग्रेस का अगला अधिवेशन 1907 में सूरत में हुआ, जो कांग्रेस के इतिहास में महत्त्पूर्ण स्थान रखता है। स्वराज्य के अर्थ तथा उसकी प्राप्ति के साधनों को लेकर नरम दल और गरम दल में तीव्र मतभेद था। उग्रवादी चाहते थे कि कांग्रेस स्वराज्य की प्राप्ति के लिए सक्रिय आन्दोलन करे, जबकि उदारवादी किसी प्रकार का आन्दोलन करने के लिए तैयार नहीं थे। इसी बीच लार्ड मिण्टो ने प्रशासनिक सुधारों के सम्बन्ध में घोषणा की, जिससे दोनों पक्षों में मतभेद और तीव्र हो गए। परिणामस्वरूप सूरत अधिवेशन में संकट का जन्म हुआ। सूरत अधिवेशन में अध्यक्ष के चुवानों के प्रश्न को लेकर दोनों गुटों में फिर मतभेद उत्नपन्न हो गया। उग्रवादी सूरत कांग्रेस का अध्यक्ष लाला लजपतारय को बनाना चाहते थे, जबकि उदारवादी रास बिहारी घोष को। उदारवादियों का उस समय कांग्रेस में बहुमत था, इसलिए ऐसी परिस्थिति में लाला लाजपतराय ने, जो सम्मान तथा प्रतिष्ठा के भूखे नहीं थे, उदारता से अपना नाम वापस ले लिया। परिणामस्वरूप उदार दल के स्तम्भ डॉ. रास बिहारी घोष इस अधिवेशन के सभापति नियुक्त हुए। उग्रवादियों ने इसका विरोध किया। फलतः अध्यक्ष के भाषण से पूर्व ही हो-हल्ला शुरू हो गया और थोड़ी ही समय में स्थिति नियन्त्रण से बाहर हो गई। कहा जाता है कि सदस्यों में आपस में जूते और लाठियाँ तक चल गई और पुलिस ने बलपूर्वक कांग्रेस भवन को खाली करा दिया। इस घटना के साथ ही कांग्रेस दो दला मेें विभाजित हो गई। अगले दिन 1600 प्रतिनिधियों में से 900 साथ ही प्रतिनिधियों की, जो उदारवादी थे, एक सभा हुइ, जिसमें यह निश्चय किया गया कि 100 व्यक्तियों की एक समिति कांग्रेस का विधान तैयार करे। इन व्यक्तियों ने कांग्रेस का विधान तैयार किया, इस समय उदारवादियों ने उग्रवादियों को कांग्रेस से निकाल दिया, जिसके कारण कांग्रेस स्पष्ट रूप से दो दलों में विभाजित हो गई। प्रथम गरम दल, जिसके नेता लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक एवं विपिनचन्द्र पाल थे एवं द्वितीय दल नरम दल, जिसके नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे।

उदारवादियों के नये विधान की प्रथम धारा में कहा गया था, भारत की राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य है कि भारत की जनता को उसी प्रकार की शासन व्यवस्था प्राप्त हो, जिस प्रकार की शासन व्यवस्था ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों में प्रचलित है और उनके समान ही भारतवासी भी साम्राज्य के अधिकारों तथा उत्तदायित्वों के भागी बनें। इन उद्देश्यों की प्राप्ति वर्तमान शासन व्यवस्था में धीरे-धीरे सुधार कर, राष्ट्रीय एकता तथा जनोत्साह को बढ़ावा देकर और देश के मानसिक, नैतिक, आर्थिक एवं औद्योगिक साधनों को सुसंगठित कर वैधानिक रीति से की जाए। सन् 1916 तक उग्रवादी कांग्रेस में सम्मिलित नहीं हुए और कांग्रेस परउदारवादियों का प्रभुत्व बना रहा। 1916 में इन दोनों पक्षों में समझाता हुआ और उसके परिणामस्वरूप ये दोनों दल सम्मिलित रूप से कार्य करने लगे। श्रीमती एनीबेसेण्ट ने सत्य ही हा था कि, सूरत की घटना कांग्रेस के इतिहास में सबसे अधिक दुःखद घटना थी।

उग्रवादियों का दमन
ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की फूट का लाभ उठाते हुए उग्रवादियों का कठोरता के साथ दमन करने की नीति अपनाई। मई, 1907 ई. में पंजाब के लाला लाजपतराय और सरदार अजीतसिंह को बिना मुकदमा चलाए मांडले की जेल में बन्द कर दिया गया। बंगाल की सराकर ने अरविन्द घोष के ऊपर अभियोग चलाने का निष्फल प्रयास किया। बंगाल के अनेक व्यक्तियों पर आतंककारी कार्यों के लिए मुकदमा चलाकर उन्हें दण्डित किया गया। 1908 ई. में समाचार-पत्र अधिनियम में केसरी नामक समाचार-पत्र में सरकार के विरूद्ध लिखे हुए लेखों के आधार पर लोकमान्य तिलक को राजद्रोह के आरोप में 6 वर्ष का कारावास देकर मांडला जेल भेज दिया गया। इसके अलावा बंगाल में कई नेताओं तथा समाचार-पत्रों के सम्पादकों को बिना मुकदमा चलाए कैद में डाल दिया गया। 1911 ई. में षड्यन्त्रकारी सभा अधिनियम लागू किया गया, जिसके द्वारा सरकार के विरूद्ध सभाएं आयोजित करने पर सख्त प्रतिबन्ध लगा दिया। अंग्रेज सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति के फलस्वरूप देश में क्रान्ति और आंतकवादी आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ।
महाराष्ट्र में उग्रवादी आन्दोलन
महाराष्ट्र में तिलक ने उग्रवादी आन्दोलन का नेतृत्व किया। तिलक एक महान् देशभक्त तथा स्वतन्त्रा प्रेमी थे। उन्होंने अपनी विलक्षण बुद्धि, विद्वता, धर्मनिष्ठा तथा त्याग के द्वारा न केवल महाराष्ट्र के लोगों का ही दिल जीता, अपितु वे सम्पूर्ण देश के प्रिय नेता बन गए। तिलक ने 1880 ई. में केसरी एवं मराठा नामक दो समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इन पत्रों के द्वारा उन्होंने नवयुवकों में आत्म-विश्वास तथा आत्म-निर्भरता की भावनाएँ जाग्रत करने का विशेष प्रयास किया। तिलक पाश्चात्य संस्कृति की गरिमा के विरोधी थे। वे भारतीय सभ्यता तथा सस्कृति के महान् पुजारी थे। भारत में विदेशी शासकों के अत्याचारों के विरूद्ध जनता को संगठित करने तथा उसमें साहस और बलिदान की भावना जाग्रत करने के लिए गणपति उत्सव का आयोजन आरम्भ किया। वह नवयुवकों को संगठित करने तथा उन्हें राजनीतिक शिक्षा देनें में काफी लोकप्रिय रहा।

शिवाजी का नाम सम्पूर्ण महाराष्ट्र में एकता, शक्ति, देश प्रेम और बलिदान का प्रतीक माना जाता था। महाराष्ट्र की जनता में शिवाजी के प्रति अटूट श्रद्धा विद्यमान थी। इसीलिए तिलक ने शिवाजी उत्सव मानने का निश्चय किया, ताकि जनता को संगठित किया जा सके। तिलक मंे महान् स्वतन्त्रता सेनानी एवं वीर योद्धा शिवाजी का आदर्श महाराष्ट्र वासियों के समाने रखा। तिलक ने शिवाजी उत्सव के अवसर पर कहा कि, महापुरूष सामान्य नैतिक सिद्धान्तों के ऊपर होते हैं। गीता में कृष्ण ने कहा है कि यदि हम स्वार्थ की भावनाओं से प्रेरित न हों, तो अपने गुरूओं और सम्बन्धियों की हत्या में कोई पाप नहीं होता। शिवाजी ने अपने के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने दूसरों की भलाई के प्रशंसकीय उद्देश्य से ही अफजल खाँ की हत्या की थी। ईश्वर ने हिन्दुस्तान को मलेच्छोंं को नहीं दिया था। कूपमंडूक की भाँति अपने दृष्टिकोण को सीमित न कर दण्ड संहिता के ऊपर उठकर श्रीमद्भगवगीता के पवित्र वातावरण में महापुरूषों के कृत्यों पर विचार करो। शिवाजी उत्सव और गणपति उत्सव ने राष्ट्रीय शक्ति को संगठित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

तिलक ने महाराष्ट्र में अकाल और प्लेग फैलने पर जनता की सहायता के लिए अकाल सहायता कोष की स्थापना की। इस समय उन्होंने अपने समाचार-पत्रों में सरकार की अकाल और प्लेग की निवारण नीति की कटु आलोचना की। उनके इन विचारों से प्रभावित होकर दामोदर तथा बालकृष्ण चपेलकर नामक दो नवयुवकों ने मि. रैंड और लेफ्टिनेन्ट आयर्स्ट इन दो प्लेग अधिकारियों को गोली से उड़ा दिया। सरकार ने इसके लिए तिलक को दोषी ठहराया और उन पर मुकदमा चलका उन्हें 18 मास का कठोर कारवास का दण्ड दिया गा। इससे सम्पूर्ण देश की जनता में रो, उत्पन्न हो गया और उग्रवादी आन्दोलन को और अधिक बल मिला। कांग्रेस के 13वें अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि, तिलक की कैद पर सम्पूर्ण राष्ट्र रो रहा है। सरकार की दमन नीति के कारण असन्तोष की चिन्गारी और अधिक भड़क उठी। लार्ड एल्गिन ने अवकाश ग्रहण करते समय शिमला के यूनाइटेड सर्विसेज क्लब में भाषण देते हुए एक बेवकूफी की घोषाणा की कि, हिन्दुस्तान को तलावर के जोर से जीता गया था और तलवार के जोर से ही उसकी रक्षा की जाएगी।
1908 ई. में किसी क्रान्तिकारी ने बम फैंक कर मिसेज कैनेडी की हत्या कर दी। तिलक ने अपने समाचार-पत्र में इस हत्या को उचित ठहराया। परिणामस्वरूप उन पर राजद्रोह का अपराध लगाकर मुकदमा चलाया गया। न्यायालय के निर्णय के बाद तिलक ने कहा था कि, मैं केवल यह जानना चाहता हूँ कि जूरी का निर्णय चाहे जो हो, मैं अपने आपको निश्चित रूप से निर्दोष मानता हूँ। विभिन्न वस्तुओं के भाग्य का संचाल करने के लिए उच्चतर शक्तियाँ हैं और प्रतीत होता है कि जिस आदर्श का मैं प्रतिनिधित्व करता हूँ, वह ईश्वरेच्छा के अनुसार मेरे स्वतन्त्र रहने की अपेक्षा मेरे कष्टों से अधिक फलीभूत होगा। सरकार ने तिलक को 6 वर्ष का कठोर कारवास देकर मांडले (बर्मा) की जेल में भेज दिया। उनकी अनुपस्थिति में राष्ट्रीय आन्दोलन नेतृत्व विहीन हो गया। परिणामस्वरूप वह मन्द पड़ गया।

पंजाब में उग्रवादी आन्दोलन
पंजाब के उग्रवादी आन्दोलन का नेतृत्व लाला लाजपतराय ने किया। वे एक शिक्षा सुधारक, समाज और धर्म सुधारक थे। उन्होंने आर्य समाज की उन्नति में विशेष योगदान दिया। उनके भाषणों से जनता प्रभावित हुए बिना नहीं रहती थी। इस सम्बन्ध में सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा है कि, एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में लॉडर्स जार्ज तथा लाला लाजपतराय दोनों का एक साथ स्मरण करता हूँ। जनता के रोष को जाग्रत कर देने की दोनों में समान क्षमता थी। लाल लाजपतराय ने जनता में आत्म-विश्वास और आत्म-बल की भावना जाग्रत करने का प्रयास किया, ताकि भारतीयों को स्वतन्त्रता की लड़ाई में सफलता प्राप्त हो सके।
बंगाल में उग्रवादी आन्दोलन
लार्ज कर्जन ने अपने शासनकाल में कई ऐसे कार्य किए, जिससे जनता में असन्तोष की भावना चरम सीमा पर जा पहुंची। परन्तु भारत में कर्जन के शासनकाल का सबसे मूर्खतापूर्ण कार्य बंगाल विभाजन था। कर्जन 19 जुलाई, 1905 को भारत की राष्ट्रीय एकता को कुचलने के उद्देश्य से बंगाल विभाजन की घोषणा की। भारतीयों ने इसका विरोध किया। फिर भी, 16 अक्टूबर को इसे कार्यन्वित कर दिया गया। बंगाल में विभाजन का तीव्र विरोध करने के लिए जूलुस निकाले गए, प्रदर्शन किए गए तथा अनेक सभाएँ आयोजित की गईं। वन्दे मातरम् के गान से सारा बंगाल गूँज उठा और सार्वजनिक सभाओं के आयोजन ने एक नया वातावरण पैदा कर दिया। इन सभाओं में राष्ट्रीय उद्घोषणा पढ़ी जाती थी। इसमे कहा गया था कि, चूँकि सरकार ने सर्वव्यापी विरोध के होते हुए भी बंगाल विभाजन के निर्णय को लागू किया है, हम यह अहद और उद्घोषणा करते हैं कि हम अपने प्रान्त के खण्डने के बुरे प्रभावों को रोकने और अपनी जाति की एकता को बनाए रखने के लिए यथाशक्ति सब कुछ करेंगे, ईश्वर हमारी सहायता करे।

ब्रिटिश सरकार ने इस आन्दोलन का दमन करने के लिए असंख्य लोगों को दण्डित किया। इसके बावजूद आन्दोलन का क्षेत्र व्यापक होता चला गया। उग्रवादियों ने स्वेदशी और बहिष्कार की नीति अपनाई। विभाजित प्रान्तों की एकता के प्रतीक स्वरूप पुरूषों की कलाइयों में लाल धागे बाँधे गए। आन्दोलनकारियों ने घर-घर जाकर जनता से अपील की और स्वदेश व्रत की प्रतिज्ञा करवाई। स्वदेशी व्रत इस प्रकार था, ईश्वर की साक्षी देकर और आने वाली पीढ़ियों के सामने खड़े हुए, हम यह गम्भीर व पवित्र व्रत लेते हैं कि हम देश में बनाई हुई वस्तुओं का प्रयोग करेंगे और विदेशी माल के प्रयोग से बचेंगे, अतः ईश्वर हमारी सहायता करे।
इस आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं की दुकानों पर धरना दिया गया और स्थान-स्थान पर विदेशी वस्तों की होली जलाई गई। बंगाल में इस आन्दोलन का नेतृत्व विपिनचन्द्र पाल एवं अरविन्द घोष जैसे नेताओं ने किया। बंगाल के नवयुवकों ने भी इस आन्दोलन में उत्साह से भाग लिया। इस उग्रवादी आन्दोलन ने धीरे-धीरे आतंकवादी रूप धारण कर लिया। ब्रिटिश सरकार इस आन्दोलन को कुचलने में असफल रही। अन्ततः सरकार ने 1911 ई. में बंगाल के विभाजन को रद्द कर दिया। इस काल में उग्रवादी आन्दोलन ने राष्ट्रीय चेतना को नई दिशा प्रदान करने में आशातीत सफलता प्राप्त कर ली।


उग्रवादी आन्दोलन का मूल्यांकन
उग्रवादी आन्दोलन का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा, इस सत्य को मानने से इन्कार नहीं किया जा सकता। उदारवादी भी देशभक्त थे, परन्तु उनके साधन प्रभावदायक नहीं थे। उग्रवादियों का मानना था कि प्रार्थना-पत्रों से सरकार राजनीतिक सुधार भी नहीं करेगी, स्वतन्त्रता देना तो बहुत दूर की बात है। अतः उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नया मोड़ दे दिया। उग्रवादियों ने स्वदेशी आन्दोलन तथा बहिष्कार के साधन अपनाए, जिसने जनता में आत्म-निर्भरता और राष्ट्रीयता की नई लहर उत्पन्न कर दी। परिणामस्वरूप यह आन्दोलन एक जन-आन्दोलन बन गया। इस आन्दोलन से देश के कोने-कोने में हलचल मच गई। उग्रवादियोंं के स्वदेशी आन्दोलन तथा बहिष्कार के साधनों को महात्मा गाँधी ने भी अपने असहोयग आन्दोलन का मुख्य आधार बनाया। उग्रवादियों ने एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की योजना बनाई, जो भारत की युवा पीढ़ी में राष्ट्रीयता की भावना का संचार करे तथा उनमें अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति निष्ठा भी उत्पन्न कर सके। उग्रवादियों का यह कार्य अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण था। उग्रवादी आन्दोलन से ब्रिटिश सरकार बहुत प्रभावित हुई और उसने राष्ट्रीय आन्दोलन की बागड़ोर उग्रवादियों के हाथ में जाने से रोकने के लिए 1909 ई. में र्माले-मिण्टो सुधार पारित किए। यदि उग्रवादी आन्दोलन प्रारम्भ न होता, तो इन सुधारों के पारित होने में कुछ अधिक समय लग सकता था।

किसी भी पराधीन राष्ट्र को स्वतन्त्रता तभी प्राप्त हो सकती है, जबकि आन्दोलन का नेतृत्व करने वाला वर्ग स्वयं कष्ट और त्याग के लिए तत्पर हो। अधिकांश उदारवादी नेताओं में इस प्रकार की त्याग भावना का अभाव था, लेकिन उग्रवादी, प्रत्येक कष्ट और त्याग के लिए तत्पर थे। बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय एवं विपिनचन्द्र पाल आदि उग्रवादी दल के नेता सही अर्थों में सच्चे लोकनायक थे। 1908 में जब तिलक को 8 वर्ष का कठोर कारवास का दण्ड दिया गया, तो इस अन्याय के विरूद्ध कई स्थानों पर दंगे हुए। ब्रिटिश सरकार के इस कार्य के विरोध में बम्बई के मिलों के मजदूरों द्वारा एक व्यापक हड़ताल की गई। इस सम्बन्ध में लेनिन ने कहा था कि, यह हड़ताल भारत के श्रमिक वर्ग की पहली राजनीतिक कार्यवाही है। इस प्रकार, उग्रवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया।

उग्रवादी राष्ट्रवाद की प्रतिगामिता
हिन्दू धर्म और संस्कृति से प्रभावित होने के कारण उग्रवादियों को भारत के हिन्दुओं को संगठित करने में अपूर्व सफलता प्राप्त हुई, परन्तु इसने राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति मुसलमानों में उदासीनता ला दी। ब्रिटिश शासन और सरकारी अधिकारियों ने उग्रवादियों की धार्मिक निष्ठा का मुसलमानों में प्रचार कर उन्हें हिन्दुओं के विरूद्ध भड़काने का सफल प्रयास किया। उन्होंने मुसलमानों से कहा कि यह जो ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन चलाया जा रहा, उसका मुख्य उद्देश्य भारत में विशुद्ध हिन्दू राज्य की स्थापना करना है। इस प्रकार के भ्रामक प्रचार के कारण साधरण मुस्लिम जनता अंग्रेजों के बहकावे में आ गई। परिणामस्वरूप मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति सन्देह उत्पन्न हो गया और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के निर्देशानुसार अपने लिए मुस्लिम लीग नामक संस्था की स्थापना की। इस प्रकार, उग्र राष्ट्रीयता के युग में भारत में साम्प्रदायिकता का बीज बोया गया, जो आगे चलकर अखण्ड भारत के लिए घातक सिद्ध हुआ। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, उग्र राष्ट्रीयता सामाजिक रूप से निश्चिततः प्रतिक्रियावादी थी।

 

7. उग्रवादी राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता

उग्रवादी राष्ट्रीयता के प्रमुख नेता लाल-बाल-पाल थे, जिनके जीवन चरित्र एवं राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है


बाल गंगाधर तिलक

उग्र राष्ट्रवाद के जन्मदाता एवं भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नई दिशा देने वाले महान् नेता थे-बालगंगाधर तिलक, जिन्हें श्रद्धा से लोकमान्य कहकर पुकारा जाता है। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को, जो मात्र उदारवादियों तक सीमित था, जनता तक पहुँचा दिया। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि, अपने परिश्रम तथा अथक् प्रयत्नों के परिणामस्वरूप बालगंगाधार तिलक लोकमान्य कहलाए जाने लगे और उनकी एक देवता के समान पूजा होने लगी। वह जहाँ कहीं भी जाते थे, उनका राजकीय स्वागत और सम्मान किया जाता था। उनके द्वारा अभूतपूर्व बलिदानों ने उन्हें पहले महाराष्ट्र का और बाद में सम्पूर्ण भारत का छत्र रहित सम्राट बना दिया था।
संक्षिप्त जीवन परिचय -
बालगंगधार तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 ई. को महाराष्ट्र के रत्नगिरि में एक चितवाहन ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जो पेशवाओं से सम्बन्धित था। उनके पिता गंगाधर पन्त आरम्भ में एक अध्यापक थे, किन्तु उन्नति करते-करते सहायक निरीक्षक के पद तक पहुँच गए थे। उनकी माता पार्वती बाई एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। इनके बचपन का नाम बलवन्तराय था, किन्तु इनके माता-पिता स्नेह से इन्हें बाल कहकर पुकारते थे एवं इसी नाम से आगे चलकर वे प्रसिद्ध हुए। जब वे 10 वर्ष के थे, तभी उनकी माता की मृत्यु हो गई।

तिलक एक प्रतिभावान विद्यार्थी थे, जिन्होंने कई बार अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। एक बार अध्यापक ने उनसे किसी प्रश्न का उत्तर पूछा, तो तिलक ने कहा कि इसका उत्तर मेरे मस्तिष्क में है। वस्तुतः बुद्धिमत्ता एवं विलक्षणता में उन्हें नेपोलियन के समकक्ष मानना ही उचित होगा। उन्होंने पूना में एक विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। इनके रूढ़िवादी पिता ने 1871 ई. में 15 वर्ष की आयु में इनका विवाह तापीबाई नामक कन्या से करवा दिया। शिक्षा से तिलक का प्रेम इस हद तक था कि उन्होंने दहेज में भी पुस्तकें ही लीं। एक वर्ष बाद उनके पिता की मृत्यु हो गई। 1876 ई. में प्रथम श्रेणी में उन्होंने बी.ए. पास की। कानून की डिग्री के सम्बन्ध में पूछे जाने पर उन्हों कहा कि, मैं अपना जीवन देश के जन-जागरण में लगाना चाहता हूँ और मेरा विचार है कि इस काम के लिए साहित्य अथवा विज्ञान की किसी उपाधि की अपेक्षा कानून का ज्ञान अधिक उपयोगी होगा। मैं एक ऐसे जीवन की कल्पना नहीं कर सकता, जिसमें मुझे ब्रिटिश शासकों से संघर्ष न करना पड़े।
शिक्षा समाप्त होने के बाद तिलक ने एक शिक्षक के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत की। उन्होंने 1 जनवरी, 1880 ई. को अपने मित्र विष्णु शास्त्री की मदद से एक प्राइवेट स्कूल की स्थापना की, जिसका नाम न्यू इंग्लिश स्कूल रखा गया। वे एक महान् पत्रकार भी थे। उन्होंने अपने मित्र चिपलूणकर आगरकर एवं नाम जोशी की मदद से मराठी भाषा में केसरी तथा अंग्रेजी भाषा में मराठा नामक समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इन समाचार-पत्रों में विविध लेखों से सरकार की नीतियों की कटु आलाचना की जाती थी एवं जनतमा में चेतना उत्पन्न करने का प्रयास किया जता था।

महाराष्ट्र में शिक्षा के विकास के उद्देश्य से तिलक ने 1884 ई. में पूना में एक सार्वजनिक सम्मेलन आयोजित किया। उन्होंने शिक्षा की प्राप्ति हेतु दक्षिणी शिक्षा समाज नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के प्रयत्नों से 2 जनवरी, 1885 ई. को एक कॉलेज की नींव रखी गई, जो फरग्यूसन कॉलेज के नाम से विख्यात हुआ। इससे शिक्षा का बहुत विकास हुआ।
तिलक 1889 ई. में सर्वप्रथम एक जन-प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। वे कांग्रेस के काम करने के उदार तथा नम्र तरीकों से सहमत नहीं हुए तथा उन्होंने इसमें परिवर्तन की माँग की। उन्होंने 1893 ई. में गणपति उत्सव तथा 1895 ई. में शिवाजी उत्सव मनाना शुरू किया, ताकि जनता में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न की जा सके। उन्होंने 1897 ई. में अकाल के समय तथा प्लेग के समय जनता की बहुत सेवा की। उनके द्वार सरकार नीतियों की कड़ी आलनोचा करने के कारण सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए 1897 ई. में 18 माह का कारवास दिया।
तिलक ने 1905 में किए गए बंगाल विभाजन का जमकर विरोध किया। वे 1906 ई. के कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित हुए तथा उन्होंने अपनी स्वराज्य की मांग को रखा। उन्होंने उदारवाद का विरोध किया, जिसके फलस्वरूप कांग्रेस नरम तथा गरम इन दो दलों में विभक्त हो गई। 1908 ई. में एक लेख में उन्होंने सरकार की नीतियों की कटु आलोचना की, अतः एक बार पुनः ब्रिटिश सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए 6 वर्ष कारावास दिया। उन्हें मांडले की जेल में रखा गया। जेल में उन्हें मांडले की जेल में रखा गया। जेल मे उन्होंने दो पुस्तकें लिखीं-(1) आर्किटक होम इन द वेदाज, एवं (2) गीता रहस्य।
1916 ई. में तिलक तथा श्रीमती एनीबेसेण्ट ने मिलकर होमरूप आन्दोलन चलाया, जिसका लक्ष्य भारत के लिए स्वराज्य प्राप्त करना था। वे 1920 ई. तक इस आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे। 20 जुलाई, 1920 ई. में बम्बई में उनका देहान्त हो गया था। निश्चित रूप से यह भारतीय राष्ट्रीयता की घातक एवं अपूरणीय क्षति थी।

तिलक के सामाजिक विचार तथा सुधार-
तिलक एक महान् सामाजिक सुधारक भी थे तथा समाज में धीरे-धीरे सुधार लाने के समर्थक थे। उनका मानाना था कि समाज में सुधार कानून के माध्यम से नहीं आ सकते, बल्कि जनता कि इच्छा से ही आ सकते हैं एव जनता में यह इच्छा तभी उत्पन्न हो सकती है, जबकि उसमें इस सम्बन्ध में चेतना उत्पन्न की जाए। जनता की इच्छा से लाए गए ये सुधार स्थायी होंगे, जबकि कानून द्वारा लाए गए सुधार अस्थायी। अतः सरकार द्वारा कानून बनाकर समाज में सुधार करने के प्रयासों का तिलक ने सदैव डटकर विरोध किया। सरकार ने 1891 ई. में विवाह सहमति वय विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार ऐसी लड़की, जिसका बचपन में विवाह कर दिया गया हो, वयस्क होने पर इस विवाह को अपनी इच्छा से तोड़ सकती थी। तिलक ने इसे हिन्दुओं के सामाजिक जीवन में सरकार का अनुचित हस्तक्षेप बताते हुए डटकर विरोध किया।

तिलक का मानना था कि नेताओं अथवा समाज सुधारकों द्वारा केवल मात्र उपदेश देने से ही समाज का उद्धार नहीं हो सकता है, बल्कि समाज में सुधार तभी सम्भव है, जबकि पहले वे इन उपदेशों को अपने व्यावहारिक जीवन में लागू करे। तिलक ने जो भी कहा, उसे अपने व्यावहारिक जीवन में भी लागू किया। जैसे उन्होंने अपनी दोनों पुत्रियों के विवाह उनके 16 वर्ष की हो जाने के बाद ही किए। सामाजिक सुधार के लिए तिलक ने निम्नलिखित सुझाव दिए-

1. लड़के का विवाह 20 वर्ष तथा लड़कियों का विवाह 16 वर्ष की आयु के पहले नहीं किया जाना चाहिए।
2. 40 वर्ष के बाद व्यक्ति को विवाह नहीं करना चाहिए। इस आयु के बाद यदि व्यक्ति विवाह करना ही हो, तो केवल विधवा से ही करे।
3. विधावों के मुण्डन की प्रथा को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
4. तिलक ने दहेज प्रथा को भी समाप्त करने पर बल दिया।
5. उन्होंने समाज सुधारकों को अपनी आय का 1/10 भाग समाज सुधार के लिए व्यय करने का परामर्श दिया।
तिलक ने छुआ-छूत एवं भेदभाव का विरोध किया। उनकी धारणा भी थी कि मनुष्य जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से महान होता है। 25 मार्च, 1918 ई. को बम्बई में दलित जाति के सम्मेलन में तिलक ने कहा था कि, यदि ईश्वर की अस्पृश्यता को सहन करे, तो मैं उसे भी ईश्वर के रूप में सहन नहीं करूँगा। विभिन्न अवसरों पर निम्न जाति के लोगों के साथ शामिल होकर एवं उनके साथ भाजो करके उन्होंने अपनी इस धारणा को सिद्ध भी कर दिया।
तिलक ने नशाबन्दी के लिए भी सरकार पर दबाव डाला। सरकार की मद्य नीति का विरोध करते हुए तिलक ने कहा था कि, सरकार से ऐसी आशा करना मूर्खता है कि वह मद्यपान को बन्द कर देगी। युवकों को चाहिए कि वे मद्यपान के विरूद्ध अपना विचार प्रकट कर दें। उन्होंने अपने लेखों एवं भाषणों के द्वारा सरकार की इस नीति के विरूद्ध जनता को उकसाया एवं शराब की कई दुकानों पर धरना देकर उन्हें बन्द करवा दिया। इस पर सरकार ने उन्हें बन्दी बना लिया, किन्तु तिकल का संघर्ष जारी रहा।
तिलक ने बाल विवाह, अनमेल विवाह आदि बुराइयों की निन्दा की तथा विधवा विवाह पर बल दिया। उनका मानना था कि समाज सुधारों में महत्त्वपूर्ण देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता है एवं देश के स्वतन्त्र होने पर समाज में स्वतः ही सुधार होने लगेंगे।

शिक्षा के क्षेत्र में विचार-
तिलक एक महान् शिक्षक थे तथा शिक्षा के सम्बन्ध में उनके विचार भी बड़े उत्तम थे। वे एक महान् विद्वान थे। तिलक ने तकनीकि तथा प्राविधिक शिक्षा पर जोर दिया। भारत में प्रचलित तत्कालीन शिक्षा प्रणाली की निन्दा करते हुए तिलक ने कहा था कि, यह मात्र छोटे-छोटे कर्मचारियों को पैदा करती है। शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि पढ़ना-लिखना सीख लेना ही शिक्षा नहीं। शिक्षा वही है, जो हमे जीविकोपार्जय योग्य बनाए। देश का सच्चा नागरिक बनाए, हमे हमारे पूर्वजों का ज्ञान और अनुभव दे।
तिलक ने देश में एकता की भावना उत्पन्न करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। इसके लिए उन्होंने महाराष्ट्र में न्यू इंग्लिश स्कूल, दक्षिण शिक्षा समाज, फर्ग्यूसन कॉलेज आदि संस्थाएँ स्थापित की। 1907 ई. महाराष्ट्र में विद्या प्रसारक मण्डल की स्थापना में तिलक का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। विद्यार्थियों को धार्मिक शिक्षा दिए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए तिलक ने कहा था कि, किसी को अपने धर्म पर अभिमान कैसे हो सकता है, यदि वह इससे अनभिज्ञ हो। धार्मिक शिक्षा का अभाव ही इस बात का एकमात्र कारण है कि देशभर में मिशनरियों ईसाई पादरियों का प्रभाव बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण हेतु भी धार्मिक शिक्षा आवश्यक है।

मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की आवश्यकता पर बल देते हुए तिलक ने कहा था कि, आज जो व्यक्ति अच्छी-अच्छी अंग्रेजी लिख-बोल लेता है, वही शिक्षित माना जाता है, किन्तु किसी भाषा का ज्ञान हो जाना ही सच्ची शिक्षा नहीं है। मातृभाषा के माध्यम से जो शिक्षा 7-8 वर्ष में प्राप्त की जा सकती है, उसमें अब 20-25 वर्ष लग जाते हैं। अंग्रेजी तो हमें सीखना है, पर उसकी शिक्षा अनिवार्य किए जाने का कोई कारण नहीं है।
राष्ट्रीय भाषा के सम्बन्ध में तिलक ने 1905 ई. की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्मेलन में कहा था कि, एक लिपि राष्ट्रीय आन्दोलन का अंग है। हमे समस्त भारत के लिए एक ही भाषा बनानी चाहिए। यदि राष्ट्र को संगठित करना है, तो उसके लिए राष्ट्र भाषा से बड़ी शक्ति कोई नहीं हो सकती। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने पर बल दिया।
साहित्यिक देन -
तिलक एक महान लेखक भी थे। उन्होंने तीन ग्रंथ लिखे- 1. ओरियन,
2. आर्कटिक होम इन द वेदाज, एवं
3. गीता रहस्य।
(1) ओरियन-
इस ग्रन्थ में तिलक ने आर्य सभ्यता का वर्णन करते हुए ज्योतिष सम्बन्धी उद्धरणों तथा वैदिक साहित्य के नक्षत्रों के आधार पर उसका काल 6000 से 4000 ई. पू. तक माना है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काल 4000-2500 ई. पू. माना है।

(2) आर्कटिक होम इन वेदाज-
तिलक ने अपनी इस पुस्तक में वेदों, ईरानी ग्रन्थ जिन्द अवेस्ता एवं अन्य विविध प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि आर्य उत्तरी ध्रुव के निवासी थे। उनका यह मत पूर्णतः सत्य न होते हुए भी सम्माननीय है। बोस्ट विश्वविद्यालय के एफ.डब्ल्यू. वारेन ने तिलक के सम्बन्ध में लिखा था कि, एक लेख में तिलक के तर्कों का संक्षिप्त विवरण देना असम्भव है। इतना ही कहना काफी होगा कि मेरे विचार में जितने तर्क और प्रमाण इस पुस्तक में मौजूद है, उतने किसी भी भारतीय एवं ईरानी विद्वान के आज तक अपने निष्कर्यों की पुष्टि में नहीं दिए। पूरी पुस्तक में ऐतिहासिक व वैधानिक अनुसंधान के सिद्धांतों व खोज प्रणालियों का पूरा पालन किया गया है।
(3) गीता रहस्य-
इस ग्रंथ में तिलक ने प्रवृत्तिवाद की व्याख्या की है। इससे पहले हिन्दू समाज में यह धारणा थी कि मानव जीवन का सर्वप्रथम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है एवं मोक्ष प्राप्ति सन्यासी बनने पर ही सम्भव है। अतः लोगों का सांसारिक रूचियों से ध्यान हट रहा था। अतः उन्हें तिलक ने श्रीमद्भागवद्गीता के प्रवृत्तिवाद की नए अर्थों में व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि श्रीमद्भागवद्गीता में निवृत्ति (सन्यास) के स्थान पर प्रवृत्ति कर्म पर बल दिया गया है। उन्होंने निष्काम कर्म पर बल देते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को सांसारिक जीवन में कर्त्तव्यों का पालन करते हुए धर्मानुसार मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।

शंकराचार्य तथा ज्ञानेश्वर महात्मा ने श्रीमद्भागवद्गीता पर अपनी जो टीकाएँ लिखीं थीं, उनमें उन्होंने कहा था कि श्रीमद्भागवद्गीता सन्यास पर अधिक बल देती है, किन्तु तिलक ने इस धारणा का खण्ड करते हुए प्रवृत्तिवाद को एक नए अर्थ में जनता के सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अर्जुन युद्ध से विमुख हो चुका था, किन्तु भगवान विष्णु ने उसे कर्त्तव्य का मार्ग दिखलाया, जिसके कारण वह पुनः युद्ध करने को तैयार हो गया। रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है, श्रीमद्भागवद्गीता एक बार तो भगवान श्रीकृष्ण के मुख से कही गई तथा दूसरी बार उसका सच्चा आख्यान लोकमान्य तिलक ने किया है। इन दोनों के बीच की अन्य सारी टीकाएँ तथा व्याख्याएँ श्रीमद्भागवद्गीता के सत्य पर केवल बादल बनकर छाती रही हैं।
श्रीमद्भागवद्गीता के निष्कर्ष के सम्बन्ध में तिलक ने कहा था कि, श्रीमद्भागवद्गीता का उपदेश है कि ज्ञान तथा भक्ति द्वारा ईश्वर के साथ एकाकार हुए व्यक्ति के लिए भी जगत् में कर्म करते रहना अनिवार्य है। कर्म का सम्पादन ईश्वर द्वारा निर्दिष्ट विकास के पथ पर जगत् को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है। यह कर्म बिना फल की इच्छा किए तथा ईश्वर के उद्देश्य में सहायक होने की दृष्टि से किया जाना चाहिए। ऐसा करने पर कर्ता कर्मफल के बन्धन से मुक्त रहता है। श्रीमद्भागवद्गीता की यही शिक्षा है। गीता में ज्ञान योग है, भक्ति योग है, किन्तु वे दोनों गौण हैं और कर्मयोग की प्रधानता है। वस्तुतः श्रीमद्भागवद्गीता में ज्ञान योग, कर्म योग एवं भक्ति योग इन तीनों ही योगों का समन्वय है।

तिलक का मानना था कि यद्यपि श्रीमद्भागवद्गीता के अनुसार व्यक्ति ज्ञान व भक्ति योग से भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है, किन्तु फिर भी कर्म की प्रधानता है। श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवद्गीता में कहा है कि, मुझे तीनों लोगों में से कुछ नहीं चाहिए। फिर भी मैं कर्म करता हूँ, क्योंकि यदि में कर्म नहीं करूँगा, तो जगत् नष्ट हो जाएगा। इसके आधार पर तिलक ने कहा कि, यदि मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे जगत् के हित को ध्यान में रखते हुए निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। इस प्रकार तिलक ने जनता के समाने कर्म का महत्त्व रखा, ताकि वह देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर सकें। उनका मानना था कि भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति तथा आधुनिक भारत का निर्माण कर्म के आधार पर ही सम्भव है। निश्चितः यह तिलक की महान् देन थी। रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि, हिन्दू जाति लोकमान्य की चिरऋणी रहेगी कि निवृत्ति का आलस छुड़ाकर उन्होंने उसे प्रवृत्ति की ओर लगा दिया।
तिलक एवं राष्ट्रीय आन्दोलन-
तिलक ने अपने राजनीतिक जीवन का आरम्भ महाराष्ट्र में किया था। वे 1889 ई. में कांग्रेस के सदस्य बने तथा 1920 ई. तक देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने अपने भाषणों एवं लेखों के माध्यम से जनता में चेतना उत्पन्न कर राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन के रूप में परिणित कर दिया तथा कांग्रेस को जन-साधरण की संस्था बना दिया।

(1) सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के जनक-
तिलक को अपनी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति पर गर्व था। उनका विश्वास था कि भारतीयों को अपनी संस्कृति के गौरव से परिचित करवाने पर ही उनमें आत्म-गौरव एवं राष्ट्रीयता की भावना पैदा की जा सकती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने समाचार-पत्र मराठा में लिखा था कि, सच्चा राष्ट्रवाद पुरानी नींव पर हो निर्माण करना चाहता है। जो सुधार पुरतान के प्रति घोर असम्मान की भावना पर आधारित है, उसे सच्चा राष्ट्रवाद रचनात्मक कार्य नहीं समझता। हम अपनी संस्थाओं की ब्रिटिश ढाँचें में नही ढालना चाहते, सामाजिक तथा राजनीतिक सुधार के नाम पर हम उनका अराष्ट्रीयकरण नहीं करना चाहते। अतः वे भारतीय संस्कृति के गौरव के आधार पर देशवासियों में राष्ट्र प्रेम उत्पन्न करना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने व्यायाम शालाएँ, अखाड़े, गौ-हत्या विरोधी संस्थाएँ स्थापित कीं तथा हिन्दू देवताओं एवं वीरों की पूजा पर बल दिया। इस सम्बन्ध में गणपति तथा शिवाजी उत्सव प्रमुख हैं ः
i. गणपति उत्सव- हालांकि यह उत्सव पहले भी महाराष्ट्र में प्रचलित था, किन्तु तिलक ने इसे सामुहिक रूप से मानाने पर बल देकर राष्ट्रीय उत्सव बना दिया। नगरों एवं ग्रामों में व्यायामम हेतु गणपति संस्थाएँ स्थापित की गईं। इस उत्सव में जुलूस निकाले जाते थे, संगीत का कार्यक्रम होता था तथा भाषण दिए जाते थे। इस उत्सव द्वारा तिलक जनता में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना चाहते थे।
ii. शिवाजी उत्सव- सारे महाराष्ट्र में शिवाजी का नाम वीरता, एकता, देशभक्त व देश प्रेम तथा श्रद्धा का प्रतीक माना जाता था। अतः जनता को एकता के सूत्र में बाँधने हेतु तिलक ने यह उत्सव मानना शुरू किया। सर्वप्रथम यह उत्सव 1895 ई. में रायगढ़ में तीन दिन तक मनाया गया। इसके बाद सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाए जाने के बावजूद यह उत्सव तिलक की अध्यक्षता में मनाया जाता रहा। तिलक ने शिवाजी का उदाहरण देते हुए कहा कि, जिस प्रकार शिवाजी ने स्वतन्त्रता हेतु आजीवन मुगलों से संघर्ष किया था, उसी प्रकार हमें भी अंग्रेजों से संघर्ष करना चाहिए।

एक सभा में उन्होंने कहा था कि, हम स्वराज्य की माँग कर हैं, और इसलिए शिवाजी उत्सव मनाना हमारे लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। अगर शिवाजी दो सौ साल पहले स्वराज्य स्थापित कर सकते थे, तो हम भी किसी दिन इसे प्राप्त कर सकते हैं। स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। नरम दल वालों की तुलना शिवाजी के पिता शाहजी से की जा सकती है जो सदा अपने बेटे को दक्षिण के ताकतवर मुसलमान शासक के खिलाफ हथियार न उठाने की सलाह दिया करते थे। तब शिवाजी ने, जिनकी तुलना आज गरम दल वालों से की जा सकती है, घटनाचक्र की दिशा ही बदल दी। हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं और उसे तभी बना सकते हैं, जब हम उसे बनाने का पक्का इरादा कर लें। स्वराज्य हमसे बहुत दूर नहीं है। यह उसी क्षण हमारे पास आ जाएगा, जिस क्षण हम अपने पाँवों पर खड़ा होना सीख लेंगे। इन सभाओं मं उनका नारा था, स्वराज्य मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूँगा। (Swaraj is my birthright and I shall have it.)
शिवाजी का उदाहरण देते हुए एक बार तिलक ने युवाओं से कहा था कि, शिवाजी ने अच्छे उद्देश्य से, दूसरों के लाभ के लिए अफजल खाँ की हत्या की थी, उसी प्रकार अगर हमारे मकान में चोर घुस आएँ और उनको भगाने की ताकत न हो, तो हमें निःसंकोच उन्हें बन्द कर जिन्दा जला देना चाहिए। उन्होंने कहा था कि, भाट की तरह गुणगान करने से स्वतन्त्रता नहीं मिल जाएगी। स्वतन्त्रता के लिए शिवाजी की भाँति साहसी कार्य करने पड़ेगे। 1897 ई. में पूना में शिवाजी उत्सव के अवसर पर तिलक ने शिवाजी को राष्ट्र निर्माता बताया। गणपति उत्सव एवं शिवाजी उत्सव के द्वारा शिवाजी जनता में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने में सफल रहे।

वेलेन्टाइन शिरोल ने तिलक को साम्प्रदायिक व्यक्ति के रूप में सिद्ध करने की चेष्टा की। उसने कहा था कि, तिलक हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा के होने के कारण मुस्लिम विरोधी थे, परन्तु उसके ये आरोप सत्य से परे हैं। सच्चाई तो यह है कि तिलक के हृदय में मुसलमानों के प्रति कोई द्वेषभाव नहीं था। वे स्वतन्त्रता के सामान्य लक्ष्य के लिए मुसलमानों से भी राष्ट्रीय सहयोग की अपेक्षा करते थे। अतः तिलक पर धार्मिक सहिष्णुता का आरोप लगाना अनुचित एवं निराधार है। तिलक की राष्ट्रवादी भावनाओं की प्रशंसा स्वयं जिन्ना, डॉ अन्सारी एवं हसन इमाम ने की थी।
(2) दक्षिण भारत में अकाल एवं प्लेग निवारण में योगदान-
1896-97
ई. में दक्षिणी भारत में भयंकर दुर्भिक पड़ा। सरकार की उदासीनता से लाखों लोग मर गए। राहत कार्य के स्थान पर सरकार ने भूमि कर बढ़ा दिया। तिलक ने अपने समाचार-पत्रों में सरकार की इन नीतियों की कटु आलोचना करते हुए अकाल पीड़ितों की हर तरह से सेवा की। उन्होंने किसानों को सरकार से असहयोग करने व भूमिकर न चुकाने के लिए प्रेरित किया। अतः किसान तिलक के भक्त बन गए। श्री तहमनकर ने लिखा है कि, तिलक के इन प्रयासों से न केवल दक्षिण के किसानों के हृदय को ही जीत लिया, बल्कि उनके दृष्टिकोण को भी बदल दिया। वे कायरता को त्यागकर वीर एवं देशभक्त बन गए।

1897 ई. में महाराष्ट्र में प्लेग फैला, जिसमें लाखों लोग मारे गए। तिलक ने इस समय प्लेग के रोगियों की अभूतपूर्व सेवा की। उन्होंने अपने समाचार-पत्रों में सरकार की प्लेग नीति की तीव्र निन्दा की। उन्होंने लिखा कि सैनिक एवं अधिकारी कीटाणुओं की जाँच के बहाने भारतीयों के घरों में घुसकर उनके घरों तथा मन्दिरों को अपवित्र कर रहे हैं एवं उनकी स्त्रियों की इज्जत पर भी हमला कर रहे हैं। रामगोपाल ने लिखा है कि, रेण्ड के पीछे-पीछे पुलिस और सेना चलती थी और वे बीमारे वाले मकानों को गिरा देते थे तथा मकानों के निवासियों को जबरदस्ती कैम्पों में भेज दिया जाता था। बहुत से स्थानों पर प्लेग के किटाणुओं को नष्ट करने के लिए बिस्तर एवं कपड़े जला दिए गए। यदि इसी तरह वस्त्रहीन किए गए लोगों को किटाणु रहित कपड़े दिए जाते, तो यह सहन कर लिया जाता, किन्तु ऐसा नहीं किया गया। इसी तरह जिन्दगी की जरूरी चींजे नष्ट कर दी गईं तथा उनके स्वामियों को रोने-बिलखने के लिए बेघर छोड़ दिया गया। रेण्ड मकान के हर हिस्से में, यहाँ तक कि रसोई में और मन्दिर में भी घुस जाता था। यह देखने के लिए ताले बेधड़क तोड़ दिए जाते थे कि मकान के अन्दर प्लेग का कोई रोगी तो नहीं छिपाया गया है। शस्त्रहीन हिन्दुस्तानी पुलिस और रिवाल्वरधारी यूरोपियन सैनिक स्त्रियों के कमरे में घुस जाते थे। खुले हुए कमानों से घरेलु चीजें उठा ली जाती थीं, जो कभी लौटाई नहीं जाती थीं। झौपडों को जला दिया जाता। कुछ सैनिक दुकानदारों की तिजोरियाँ तोड़ डालते थे। कुछ सैनिक यह समझते थे कि सिलाई की मशीनें किसी बी तरह कीटाणु रहित नहीं की जा स कती, अतः उन्हें जला ही दिया जाना चाहिए। सारा काम इस ढंग का था कि जैसे दुश्मन द्वारा जीते गए किसी शहर को फूंका जा रहा हो। तिलक ने अपने समाचार-पत्र केसरी में इसकी निन्दा करते हुए लिखा था कि, सरकार द्वारा नियुक्ति किए गए इन अधिकारि ोयं की प्लेग ग्रस्त लोगों से तनिक भी सहानभूति नहीं है। वे उनकी सेवा करने के स्थान पर उनका अपमान करते हैं, जिससे लोग प्लेग की अपेक्षा इन सरकारी अधिकारियों से अधिक डरते हैं। विचारों से प्रेरित होकर दामोदर एवं बालकृष्ण चपेलकर नामक दो युवकों ने 1897 ई. में मि. रेण्ड एवं मि. आयर्स्ट इन दो प्लेग कमिश्नरों की हत्या कर दी। सराकर ने इस घटना के लिए तिलक पर राजद्रोह का अभियोग लगाते हुए उन्हें 18 माह का कठोर कारवास का दण्ड किया। इस बात की सर्वत्र निन्दा की गई। मद्रास टाइम्स ने लिखा था कि, तिलक को सजा होने की खबर एक राष्ट्रीय दुर्घटना के रूप में आई है। बहुत समय तक इसे भुलना कठिन है और यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह घटना इस देश के भारतीयों और एंग्लो-इण्डियन समुदायों के मौजूदा सम्बन्धों को दृढ़ करने में सहायक होगी। हिन्दू में लिखा था कि, श्री तिलक की सजा से भारतीय जनता और भारत में ही मौजूद उसके दुश्मनों के बीच बड़ी शरारत भीर निन्दनीय मुखालफत की शुरूआत होती है, क्योंकि वे दुश्मन बड़े ताकतवर हैं। वे शासकों के पास आजादी से पहुँचे सकते हैं और उन्हें इंग्लैण्ड के टोरी अखबारों की सेवाएँ प्राप्त है। वे निःसन्देह खुशियाँ मना रहे होंगे। दो महीने पहले जब मुकदमे की शुरूआत हुई थी, तह बमने इस बात पर खेद प्रकट किया था कि मुकदमा ऐसे समय शुरू किया गया है, जब अंग्रेजों की भानवा भारतीयों के इतना विरूद्ध है। हमने कहा था कि यह असम्भव है कि ऐसी भावना होते हुए अंग्रेज भारतीय अखबारों द्वारा की जाने वाली ब्रिटिश सरकार की आलोचनाओं पर निष्पक्ष या नरम फैसला करर सके। हाल ही की सजाओं में हमारे भय को उचित सिद्ध कर दिया है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि, श्री तिलक के लिए मेरा हृदय सहानुभूति से भरा हुआ है। मेरा मन जेलखाने में उनके साथ है। सारा राष्ट्र आज आँसू बहा रहा ह। भारतीय पत्र जगत् की ओर से मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि हम तिलक को सर्वथा निर्दोष समझते हैं। इसके विपरित साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के रासत् गरोफ्तर ने लिखा था कि, हमें अपने पाठकों को यह सूचित करते हुए खुशी होती है कि सबसे बड़े राजद्रोह फैलाने वाले तिलक को उचित दण्ड मिल गया अगले 18 माह के लिए उसे बन्द कर दिया गया है, पर कैद का समय थोड़ा होने पर भी यह उसके बात पर विचार करने के लिए काफी है कि शिवाजी के शब्दों की नकाब डालकर अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है कि कानून की भुजाएँ उस नकाब को फाड़ डालने में समर्थं है, फिर भी जेल से बाहर आने पर राजद्रोह का प्रचार करना फायदेमंद होगा या नहीं। सरकार की इस दमन नीति का परिणाम बताते हुए आर.सी. दत्त ने लिखा है कि, अंग्रेज शासकों की न्यायप्रियता और समृद्धिदृष्टि में भारतीय जनता का जो विश्वास था, वह ऐसा हिल गया, जैसे कि पहेल कभी नहीं हिला था।
तिलक ने तन-मन-धन से इन प्लेग पीड़ितों की सेवा की तथा इनकी सहायता न करने वाले भारतीयों की आलोचना की। इन कारण तिलक इन प्लेग पीड़ितों में बहुत लोकप्रिय हो गए। इन अगले 18 माह के लिए उसे बन्द कर दिया गया है, पर कैद का समय थोड़ा होने पर भी यह उसके बात पर विचार करने के लिए काफी है कि शिवाजी के शब्दों की नकाब डालकर अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है कि कानून की भुजाएँ उस नकाब को फाड़ डालने में समर्थं है, फिर भी जेल से बाहर आने पर राजद्रोह का प्रचार करना फायदेमंद होगा या नहीं। सरकार की इस दमन नीति का परिणाम बताते हुए आर.सी. दत्त ने लिखा है कि, अंग्रेज शासकों की न्यायप्रियता और समृद्धिदृष्टि में भारतीय जनता का जो विश्वास था, वह ऐसा हिल गया, जैसे कि पहेल कभी नहीं हिला था।
तिलक ने तन-मन-धन से इन प्लेग पीड़ितों की सेवा की तथा इनकी सहायता न करने वाले भारतीयों की आलोचना की। इन कारण तिलक इन प्लेग पीड़ितों में बहुत लोकप्रिय हो गए।

तिलक और कांग्रेस-
भारतीय राजनीति में उग्र राष्ट्रवादी भावना का जन्मदाता तिलक को माना जाता है। तिलक के पहले कांग्रेस का प्रभाव शिक्षित लोगों तक ही सीमित था, लेकिन उन्होंने कांग्रेस को एक जन-आन्दोलन के रूप में परिणित कर दिया। उन्हें उदारवादियों के अनुनय-विनय और भिक्षावृत्ति नीति पसन्द नहीं थी। वे अंग्रेजों की ईमानदारी एवं न्यायप्रियता में तनिक भी विश्वास नहीं करते थे। उनका मानना था कि भीख माँगने से कभी स्वतन्त्रता नहीं मिलेगी, अपितु इसे प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा और हर प्रकार का बलिदान देना पड़ेगा। 1896 ई. में तिलक ने कहा था कि, गत् 12 वर्षों से हम चिल्ला रहे हैं कि शासन हमारी बातों को सुने परन्तु सरकार हमारी आवाज को नहीं सुनती, वह बन्दूक की आवाज सुनती है। हमारे ऊपर अविश्वास किया है। अब हमें शक्तिशाली साधनों के आधार पर अपनी बात सुनानी चाहिए।
प्रसिद्ध अमेरिकन विद्वान डॉ. एलशे ने तिलक की राजनीतिक विचारधारा के बारे में लिखा है कि, जब भारत में वास्तविक राजनीतिक जाग्रति आरम्भ हुई, तो सर्वप्रथम तिलक ने ही स्वराज्य की आवश्यकता और उनके लाभों की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया था। उन्होंने ही सर्वप्रथम स्वदेशी वस्तुओं के प्रति अनुराग, राष्ट्रीय ढंग की शिक्षा, जन प्रिय संयुक्त राजनीतिक मोर्चे इत्यादि की खोज की, जिनके द्वारा स्वराज्य के लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिली। तिलक जी ने ही सर्वप्रथम यह नारा दिया था, स्वतन्त्रता मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा। धीरे-धीरे कांग्रेस में तिलक जी का प्रभाव बढ़ता गया और वे कांग्रेस के प्रमुख उग्रवादी नेता बन गए। बंगाल विभाजन के समय उन्होंने अपने एक लेख, संकट आ रहा है में लिखा, नरम दल की नीति अब अधिक समय के लिए उपयोगी नहीं हो सकती। सरकार की नीति चाहे कितनी ही दमनकारी क्यों न हो, हमें साहस से आगे बढ़ना चाहिए तथा तनिक भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
तिलक ने स्वराज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष का मार्ग दिखाया। उनकी यह प्रमुख देन थी कि उन्होंने भारतीय जनता को अवज्ञा का दर्शन सिखाया। तिलक ने स्वराज्य प्राप्ति के लिए चार सूत्री कार्यक्रम पर अमल करने पर जोर दिया-
1. स्वदेशी अर्थात् भारत में बनी हुई वस्तुओं का प्रयोग करना,
2. विदेशी माल, सरकारी नौकरियों तथा प्रतिष्ठा की उपाधियों का बहिष्कार करना,
3. राष्ट्रीय शिक्षा, एवं
4. निष्क्रिय प्रतिरोध।

तिलक ने बहिष्कार के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि, आप में से बहुत-से हथियारों को पसन्द नहीं करते और न ही हमारे पास हथियार हैं। परन्तु आप आत्म-त्याग द्वारा ब्रिटिश सरकार को अपने ऊपर शासन करने में सहयोग न दें। हमारे पास बहिष्कार का राजनैतिक हथियार है। यदि हम उन्हें राजस्व जमा करने और शान्ति स्थापित करने मं सहयोग न दें, हम उन्हें भारत से बाहर, भारतीय जन-जन से लड़ने में सहायता न दे, हम उन्हें न्याय करने में सहायता न दें तो कल से ही आप स्वतन्त्र हैं। तिलक का य ही कहना था कि, हमारे पास हथियार नहीं और हमें हथियारों की जरूरत भी नहीं है। बहिष्कार ही हमारा जबर्दस्त राजनीतिक हथियार है। मुट्ठीभर अंग्रेज यह शासन हमारी सहायता से ही करते हैं।
बहिष्कार आन्दोलन की शक्ति स्वीकार करते हुए कलकत्ता एंग्लो-इण्डियन समाचार-पत्र दी इंग्लिशमैन ने लिखा था कि, यह बिल्कुल सत्य है कि कलकत्ता के गोदामों में कपड़ा इतना भरा हुआ है कि वह बेचा नहीं जा सकता।...कई बड़ी से बड़ी यूरोपियन दुकानों को या तो बन्द करना पड़ा है या उनका व्यापार बहुत बन्द गति पर आ गया है। बहिष्कार के रूप में राज के शत्रुओं ने देश में ब्रिटिश हितों पर कुठाराघात करने का एक अत्यन्त प्रभावशाली अस्त्र पा लिया है। इस आन्दोलन की शक्ति की व्याख्या करते हुए पूना के एक भाषण में तिलक ने कहा था कि, तुम्हें जनना चाहिए कि तुम उस शक्ति के एक महान् तत्त्व हो, जिससे भारत में प्रशासन चलाया जाता है। ब्रिटिश शासन रूप यह शक्तिशाली यंत्र बिना तुम्हारी सहायता से नहीं चलाया चा सकता। अपनी इस दलित तथा उपेक्षित अवस्था में भी तुम्हें अपनी शक्ति की चेतना होनी चाहिए कि यदि तुम चाहो, तो प्रशासन को असम्भव बना दो। तुम्हीं डाक और तार का प्रबन्ध करते हो, तुम्हीं भूमि का बन्दोबस्त करते हो और तुम्हीं कर वसूल करते हो। वास्तव में प्रशासन के लिए सबी काम तुम्हीं करते हो, यद्यपि अधीनता की स्थिति में तुम्हें विचार करना चाहिए कि क्या तुम इस प्रकार के कार्य की अपेक्षा अपने राष्ट्र के लिए कोई और अधिक उपयोगी कार्य नहीं कर सकते।
तिलक ने जनता से यह भी कहा था कि, हमारे उद्देश्य आत्म-निर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं। हमें अपने राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
1906 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में तिलक ने भाग लिया। उन्होंने कांग्रेस के समक्ष स्वराज्य की माँग को रखा तथा उसकी नम्र नीति का विरोध किया। वे गोखले के इस मत से सहमत नहीं थे कि जब अंग्रेजों को यह विश्वास हो जाएगा, तब वे स्वयं भारतीयों को सत्ता सौंपकर इंग्लैण्ड चले जाएँगे। उनका मानना था कि स्वतन्त्रता अपने आप नहीं आएगी, अपितु इसे अंग्रेजों से छीनना पड़ेगा।
तिलक के उग्रवादी विचार उदारवादियों को अच्छे नहीं लगे। 1907 के सूरत विच्छेद से पूर्व तिलक ने अपने एक भाषण में राजनीतिक उग्रता का परिचय देते हुए कहा था कि, हमारे उद्देश्य स्वशासन है और इसे यथासम्भव शीघ्र ही प्राप्त करना चाहिए। हमारा राष्ट्र आतंकवादी दमन के लिए नहीं है। आप लोग भीरू और कायर न बनें। जब आप स्वदेशी को स्वीकार करते हैं, तो आपको विदेशी का बहिष्कार करना होगा।...हमारा उद्देश्य पुर्ननिर्माण है, हमारा स्वराज्य का आदर्श विशिष्ट लक्ष्य है, जिसे जन समुदाय समझे। स्वराज्य में जनता का शासन जनता के लिए होगा। उदार पंथियों डरिए मत। बहिष्कार करना दलित राष्ट्र के लिए एक मात्र साधन है। स्वराज्य और बहिष्कार के उपरान्त हमारा तीसरा आदर्श राष्ट्रीय शिक्षा है, जिसके सम्बन्ध में पिछली कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया था। एक अमेरिकी विद्वान् ने कहा था कि, जब भारत में वास्तविक राजनीतिक जाग्रति आरम्भ हुई, तो सर्वप्रथम तिलक ने ही स्वराज्य की आवश्यकता और उसके लाभों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया।

तिलक ने उग्र विचारों ने कांग्रेस के सदस्यों को बहुत प्रभावित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब 1907 ई. में सूरत में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, तो कांग्रेस दो दलों में विभाजित हो गई (1) नरम दल और (2) गरम दल। नरम दल का नेतृत्व गोखल ने किया, जबकि लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय और विपिनचन्द्र पाल आदि नेताओं ने गरम दल बनाकर उसका नेतृत्व किया। 1908 ई. में किसी क्रान्तिकारी ने बम फैंक कर मिसेज केनेडी की हत्या कर दी। तिलक ने अपने समाचार-पत्र में इस हत्या को उचित ठहराया। परिणामस्वरूप सरकार ने उन पर राजद्रोह का अपराध लगाकर मुकदमा चलाया और 6 वर्ष का कठोर कारावास का दण्ड देकर मांडले बर्मा की जेल में भेज दिया। निर्णय से पहले जज ने उन्हें एक बार बोलने का अवसर दिया, तो उन्होंने कहा कि, मैं केवल यह चाहता हूँ कि जूरी का निर्णय चाहे जो भी हो, मैं अपने आपको निश्चित रूप से निर्दोष मानता हूँ। विभिन्न वस्तुओं के भाग का संचालन करने के लिए उच्चतर शक्तियाँ हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि जिस आदर्श का मैं प्रतिनिधित्व करता हूँ, वह ईश्वर इच्छा के अनुसार मेरे स्वतन्त्र रहने की अपेक्षा मेरे कष्टों में अधिक फलीभूत होगा।
तिलक के कारावास के समाचार से देश में अव्यवस्था फैल गई। वेलेन्टाइन शिरोल ने लिखा है कि, पुलिस का अच्छा प्रबन्ध होने पर भी अभियोग के बाद कई बड़े दंगे हुए और कभी-कभी तो इन दंगो ने बड़ा उग्र रूप धारण कर लिया। दंगो की शुरूआत से इस बात का पता चलता है कि केवल उच्चवर्गीय लोगों के ऊपर ही नहीं, वरन् समाज के निम्न वर्गों पर भी तिलक का जबरदस्त प्रभाव था।
तिलक 1908 ई. से 1914 तक मांडले की जेल में रहे। उनकी अनुपस्थिति में सरकार दमन कार्य से उग्रवादी आन्दोलन का दमन करने लगी। जेल में उन्होंने गीता रहस्य व आर्कटिक होम इन द वेदाज नामक ग्रन्थ लिखे। एन.सी. केलकर ने इन सम्बन्ध में लिखा है कि, तिलक अक्सर कहा करते थे कि मेरे मन का सच्चा सम्मान प्रोफेसर बनकर ग्रन्थ लिखने का है। मैं केवल परिस्थितियों के प्रभाव से राजनीति में खेंच गया और सम्पादक बना।
जेल से रिहा होती ही उन्होंने पुनः राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। श्रीमती एनीबेसेण्ट के प्रयासों से कांग्रेस के गरम दल और नरम दल में एकता स्थापित हो चुकी थी। 1916 ई में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया। तिलक ने भी इस अधिवेशन में भाग लिया। इसमें कांग्रेस ने भारत के लिए स्वायत्त शासन की माँग का प्रस्ताव पारित किया था। 1916 ई. में तिलक ने श्रीमती एनीबेसेण्ट के साथ मिलकर होम रूल आन्दोलन प्रारम्भ किया, जिसका उद्देश्य भारत को स्वतन्त्रता दिलवाना था। तिलक के प्रयासों से 1916 ई. में लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लगी के बीच समझौता सम्भव हो सका। उन्होंने नारा दिया, स्वन्त्रता मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा। स्वराज्य के सम्बन्ध में उन्होंने कहा, प्रगति स्वराज्य में ही निहित है। यदि हम स्वराज्य प्राप्त नहीं करते, तो कोई औद्योगिक प्रगति नहीं होगी। यदि हम स्वराज्य प्राप्त नहीं करते, तो किसी भी रूप में राष्ट्र के लिए उपयोगी शिक्षा व्यवस्था की कोई सम्भावना नहीं है। पर्वते ने लिखा है, तिलक के साथ जो विविध सम्भावित सम्बोधन जोड़े जाते हैं, उनमें लोकतान्त्रिक स्वराज्य के प्रतिपादक अवश्य जुड़ जाना चाहिए। सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा है कि, स्वतन्त्रता प्राप्ति उनके जीवन का चरम लक्ष्य था और अपने समकालीन राजनीतिज्ञों में उन्होंने इसके लिए सबसे अधिक कष्ट सहन किए।

कुछ व्यक्ति तिलक को साम्प्रदायिक मानते हैं, किन्तु लखनऊ समझौते में तिलक की भूमिका उन्हें सर्वथा असाम्प्रदायिक एवं सच्चा राष्ट्रीय नेता सिद्ध करता है। डॉ. जकारिया ने लिखा है कि, 1916 ई. का लखनऊ समझौता लोकमान्य तिलक की विवेकपूर्ण सलाह से ही सम्पन्न हुआ था और जिन्ना, डॉ. एम.ए. अन्सारी व हसन इमाने भी तिलक के राष्ट्रीय दृष्टिकोण औरसमझौते की भावना की भूरी-भूरी प्रशंसा की है। शौक्त अली और हसरत मोहानी तो उन्हें अपना राजनीतिक गुरू मानते थे।
1919 ई. में तिलक के नेतृत्व में कांग्रेस का एक शिष्ट मण्डल इंग्लैण्ड गया। तिलक ने भारत की निर्धनता व पिछड़ेपन के लिए अंग्रेजों को उत्तरदायी ठहराया। उसने प्रभावित होकर लेबर पार्टी ने खजान्ची मि. आर्थर हैंडरस ने कहा कि, हमें भारतीयों की स्वराज्य की माँग से पूर्ण सहानुभूति है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि हमारा दल आपकी तथा भारतीय लोकतन्त्र की सहायता के लिए यथासम्भव सभी प्रयत्न करेगा। इस बारे में डी.वी. तहमनकर ने लिखा है कि, तिलक द्वारा लेबर पार्टी के साथ स्थापित किए गए मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का ही यह परिणाम था कि मि. एटली ने 1947 में भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की।

1919 ई. में पेरिस शान्ति सम्मेलन के समय उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन को आत्म-निर्णय के अधिकार के सम्बन्ध में एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा था कि, एशिया और संसार की शक्ति के दृष्टिकोण से यह बात नितान्त आवश्यक है कि भारत को स्वायत्त शासन प्रदान करके पूर्व में उसे स्वतन्त्रता का गढ़ बना लिया जाए। 24 जुलाई, 1920 ई में उनकी मृत्यु हो गई। उनके शब्द थे, देश के लिए जिसने अपने जीवन का बलिदान कर दिया, मेरे हृदय मन्दिर में उसी के लिए स्थान है, जिसके हृदय में माता की सेवा का भाव जाग्रत है, वही माता का सच्चा सपूत है। इस नश्वर शरीर का अब अन्त होना ही चाहता है। हे भारतमाता के नेताओं और सपूतों में अन्त में आप लोगों से यही चाहता हूँ कि मेरे इस कार्य को उत्तरोत्तर बढ़ाना।
तिलक की मृत्यु पर सारा राष्ट्र आँसू बहा रहा था। लाला लाजपतराय ने कहा भारत में दहाड़ने वाला शेर चला गया। पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा, उन्होने देश के लिए असीम आपत्तियाँ उठाईं, क्योंकि बारत का प्रेम ही उनके हृदय की प्रधान भावना थी। मरते दम तक स्वराज्य ही उनका ध्येय रहा। इस प्रकार तिलक ने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की आधार शिला रखी। उन्होंने भारतीय जनता में राजनीतिक चेतना जाग्रत की। उनके ही प्रयासों के कारण देश के राष्ट्रीय आन्दोलन ने एक जन-आन्दोलन का रूप ले लिया।

तिलक का व्यक्तित्व
तिलक एक महान् स्वतन्त्रता सेनानी थे। उन्होंने जनता में चेतना उत्पन्न की तथा राष्ट्रीय आन्दोलन का जन-आन्दोलन बना दिया। उन्होंने स्वराज्य को अपना जन्मसिद्ध अधिकार घोषित किया। सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा है कि, स्वराज्य प्राप्ति उनके जीवन का चरम लक्ष्य था, जब कभी वे किसी बात पर तत्पर हो जाते थे, तो फिर पीछे हटना उनके लिए सम्भव नहीं था। उन्होंने अपने विचारों तथा कार्यों के लिए समकालीन राजनीतिज्ञों में सबसे अधिक कष्ट सहन किए। बम्बई के गवर्नर ने इस सम्बन्ध में भारत मन्त्री को लिखा था कि, तिलक मुख्य षड्यन्त्रकारियों में से है और सबसे प्रमुख षड्यन्त्रकारी है। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन की कमजोरियों का बड़ी सावधानी से अध्ययन किया है। उनके गणपति उत्सव, शिवाजी उत्सव, पैसा फण्ड और राष्ट्रीय स्कूल इन सबका एक ही उद्देश्य है कि ब्रिटिश शासन को उखाड़ फैंका जाए। वे राष्ट्रीयता के अग्रदूत थे। शिरोल ने लिखा है कि, यदि कोई व्यक्ति भारतीय अशान्ति का जनक होने का दावा कर सकता है, तो वह बाल गंगाधर तिलक है। भारत मन्त्री मॉण्टेग्यू ने एक बार कहा था कि, भारत में केवल एक ही अकृत्रिम उग्र राष्ट्रवादी था और वह था तिलक।

आधुनिक भारत का कौटिल्य -
तिलक को आधुनिक भारत का कौटिल्य माना जाता है। उनका मानना था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु अपनाए गए सभी साधन उचित हैं। उन्होंने कहा था कि, महापुरूष सामान्य नैतिक सिद्धान्तो से ऊपर होते हैं। श्रीमद्भागवद्गीता का उदाहरण देते हुए उन्होने कहा था कि, यदि हम स्वार्थ की भावनाओं से प्रेरित नहीं, तो अपने गुरूजनों तथा सम्बन्धियों की हत्या में भी कोई पाप नहीं होगा। उन्होंने निष्काम कार्य पर बल दिया। जनवरी, 1920 ई. यंग इण्डिया में लिखे हुए एक पत्र में उन्होंने कहा था, उनका विचार यह नहीं है कि राजनीति में सब कुठ ठीक होता है, बल्कि उनका विचार केवल यह है कि धम्मपद के प्रतिपादित घृणा पर प्रेस से विजय प्राप्त करने का बुद्धिवादी सिद्धान्त सभी परिस्थितियों में नहीं अपनाया जा सकता।

महान् राजनीतिज्ञ -
तिलक बड़े दूरदर्शी थे। उन्होंने 1896 ई. में स्वराज्य की बात कही तथा 1907 ई. में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने पर बल दिया। वे रेलवे के राष्ट्रीयकरण एव धर्म निरपेक्ष राजनीति के पक्षधर थे। अमेरिकन इतिहासकार डॉ. शेने लिखा है कि, जब भारत में वास्तविक राजनीतिक जाग्रति प्रारम्भ हुई, तो सर्वप्रथम तिलक ने ही स्वराज्य की आवश्यकता और उसके लाभों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया था।
वास्तव में तिलक के विचार अपने समय से काफी आगे थे। उन्होंने स्वराज्य की प्राप्ति, राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन बनाना, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा आदि विचारों को जन्म दिया, जो आगे चलकर महात्मा गाँधी के समय में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख आधार बने। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि तिलक एक महान् राजनीतज्ञ और महान् राष्ट्रवादी थे। वे गाँधीजी के अग्रगामी थे। रामगोपाल ने लिखा है कि, महात्मा गाँधी ने तिलक की मृत्य के बाद जितने आन्दोलन किए, वे सब तिलक ने पहले ही कर लिए थे। लगान न देने का आन्दोलन, सरकारी नौकरियों का बहिष्कार, शराब बन्दी और स्वदेशी इन सबका तिलक ने प्रचार किया था। उनका जीवन दिव्य जीवन था तथा उनके देशवासियों ने न केवल लोकमान्य की उपाधि दी, बल्कि तिलक भगवान कहकर भी पुकारा। वे चारों ओर के अँधेरे में प्रकाश ज्योति की तरह सामने आए।

तिलक का मूल्यांकन -
तिलक एक महान् राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने चेतना उत्पन्न की तथा अवज्ञा का दर्शन प्रदान किया। स्वामी श्रद्धानन्द के अनुसार, महाराज तिलक का राजनीतिक कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं में बहुत ऊँचा स्थान है। उन्होंने सबसे पहले राजनीति एकता के सिद्धान्त का प्रचार किया। मातृभूमि की सेवा के लिए और किस वीर पुरूष ने इतने कष्ट सहे हैं, जितने इस महापुरूष ने। क्या मातृभूमि की सेवा करने वाले सैनिक इस बूढ़े सेनापति के आगे सिर नहीं झुकाएँगे। वास्तव में किसी भी भारतीय ने अपने दशे के लिए इतने कष्ट नहीं सहे, जितने की तिलक ने। 1908 में मार्निंग लीडर ने तिलक के बारे में यह लिखा था, इंग्लैण्ड में बहुत ही थोड़े आदमी होंगे, जो यह समझ सकें कि पूना के राष्ट्रीय नेता श्री बालगंगाधर तिलक की गिरफ्तारी का भारत में वास्तव मंे क्या अर्थ है। उनका निजी प्रभाव देश पर और सब राजनीतिज्ञों से बढ़कर है। वे अपने दक्षिण के सबसे प्रमुख व्यक्ति हैं और बम्बई से लेकर बंगाल की खाड़ी तक प्रत्येक गरम विचारों वाला एक तरह की धार्मिक भावना से पूजा करता है। सूरत में नेशनल कांग्रेस की फूट उनका ही काम था। उन्होंने ही इसकी योजना बनाई, उन्होंने ही इसका प्रचार किया और उन्होने ही उस असाधारण आन्दोलन को दिशा दी, जिसके खिलाफ नौकरशाही अब अपने सब साधनों को इकट्टा कर रही है। वे एक साथ, विचारक भी हैं और योद्धा भी। अरिवन्द ने लिखा है कि, श्री तिलक का नाम राष्ट्र निर्माता के रूप में आधा दर्जन महानतम् राजनीतिक पुरूषों, स्मरणीय व्यक्तियों, भारतीय इतिहास के इस संकटमय काल के राष्ट्र के प्रतिनिधी व्यक्तियों में होने के नाते सदैव अमर रहेगा और इसे लोग तब तक कृतज्ञतापूर्वक स्मरण रखेंगे, जब तक कि देश में अपने भूतकाल पर अभिमान और भविष्य के लिए आशा बनी रहेगी।

वस्तुतः तिलक एक महान् राष्ट्रीय नेता थे, जिन्होंने भारत को स्वराज्य के निकट पहुँचाया। गांधीजी ने कहा था कि, आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें आधुनिक भारत के जन्मदाता के रूप में याद रखेंगी।
तिलक और गोखले की तुलना -
गोखले उदारवाद के नेता थे, जबकि तिलक उग्रवाद के। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने इन दोनों की तुलना इस प्रकार की है, गोखले और तिलक दोनों उच्च कोटि के देशभक्त थे। दोनों ने अपने जीवन में महान् त्याग किए, किन्तु दोनों का स्वभाव एक-दूसरे से नितान्त भिन्न है। गोखले उदारवादी थे और तिलक उग्रवादी। गोखले का उद्देश्य प्रचलित संविधान में सुधार करना, परन्तु तिलक इसका पुननिर्माण करना चाहते थे। गोखले के लिए नौकरशाही के साथ मिलकर काम करना आवश्यक था, जबकि तिलक की उससे मुठभेड़ होना जरुरी था। गोखले का मत था कि जहाँ तक सम्भव हो, सरकार को सहयोग दो और जहाँ तक आवश्यक हो, (उसका) विरोध करो। तिलक सरकार के कार्य में रोड़ा अटकाने की नीति के समर्थक थे। गोखले शासन प्रबन्ध तथा राष्ट्र निर्माण के कार्य को अपना प्रथम उद्देश्य मानते थे। गोखले का आदर्श था-सेवा और कष्ट झेलना। गोखले की कार्य प्रणाली का उद्देश्य विरोधियों के हृदय को जीतना था, तिकल उन्हें देश से बाहर निकलना चाहते थे। गोखले दूसरों की सहायता में विश्वास करते थे, तिलक स्वावलम्बन पर। गोखले उच्च वर्ग तथा बुद्धिवादियों की तरफ देखते थे, किन्तु तिलक सर्व-साधरण तथा करोड़ों की ओर। गोखले का अखाड़ा ता कौंसिल भवन, तो तिलक की अदारत थी गाँव की चौपाल। गोखले अंग्रेजी में लिखते थे, तिलक मराठी में। गोखले का लक्ष्य था-स्वशासन, जिसे योग्य लोग अपने को अंग्रेजों की कसौटी पर कसकर प्राप्त करें, परन्तु तिलक का लक्ष्य था-स्वराज्य, जो कि प्रत्येक भारतीय का जन्म-सिद्ध अधिकार है तथा जिसे वह विदेशियों की सहायता अथवा बाधा की परवाह न करते हुए प्राप्त कनरा चाहते थे। गोखले अपने समय के साथ थे, तिलक अपने समय से काफी आगे थे।

लाला लाजपतराय

लाला लाजपतराय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के एक आगामी नेता थे। वे पंजाब केसरी कहलाते हैं। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाना योग्य है। उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वे उग्रवादी आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। वीरता, आत्म-बलिदान, निडरता आदि गुण उनमें कूट-कुटकर भरे हुए थे। उन्होंने उदारवादियों की नरम नीति का विरोध किया। उन्होंने कहा था कि, यदि भारत स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहता है, तो उसे अंग्रेजों से भिक्षावृत्ति का परित्याग कर स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा। उनका मानना था कि स्वतन्त्रता माँगने से नहीं, लड़ने से मिलेगी।
लाला लाजपतराय एक महान् सामाजिक कार्यकर्ता एवं शिक्षाविद् भी थे। इस दृष्टि से उनका स्थान बहुत ऊँचा हो जाता है। डॉ. वी.पी. वर्मा ने लिखा है कि, वे निश्चित रूप से महाराजा रणजीतसिंह के बाद के सबसे महान् पुरूष थे। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानायकों में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त है।

लाला लाजपतराय का जन्म 28 जनवरी, 1865 ई, को पंजाब के फीरोजपुर जिले के ढोंडी नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता राधाकृष्ण जी एक शिक्षक थे। उनकी माताजी गुलाब देवी एक धार्मिक प्रवृति की तथा उदार महिला थी। उन पर अपने माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने लिखा है, दान, आतिथ्य, उदारता के गुण मुझमें माता से आए। मेरे व्यक्तिगत चरित्र का बहुत कुछ निर्माण मेरी माता ने किया। उन्होंने आगे लिखा है, अपने व्यक्तित्व के लिए मैं पिता का कम आभारी नहीं। आपने मेरे धार्मिक विचारों को बनाया, मुझमें विद्या का व्यसन पैदा किया और मुझे देशभक्ति के पाठ पढ़ाए। जो बीज अन्त में फल लाए, वे उन्हीं के बोए हुए थे।
लालाजी एक प्रतिभावान छात्र थे। उन्होंने 1880 ई. में मैट्रिक पास की तथा लाहौर कॉलेज में बी.ए. की। 1885 ई. में वकालत पास कर वे वकील बन गए। अपनी तर्कबुद्धि एवं योग्यता से उन्होंने बहुत ख्याति प्राप्त की। इसके बाद वे लाहौर में वकालत करने लगे। उन्होंने काफी धन कमाया। इस समय पंजाब में आर्य समाज आन्दोलन निरन्तर लोकप्रिय हो रहा था। इस आन्दोलन में प्रभावित होकर वे स्वामी दयानन्द सरस्वती के भक्त बन गए। स्वामी के सम्पर्क में उनमें उग्र राष्ट्रवाद के भाव पैदा होने लगे। उनका पंजाब में वही स्थान बना, जो महाराष्ट्र में तिलक था।

राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान
लाला लाजपतराय ने अपने सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ आर्य समाज के साथ जुड़कर किया। वे 1888 ई. में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में शामिल हुए तथा अन्तिम समय तक इससे जुड़े रहे। अपनी प्रतिभा, वाकपटुता, तार्किक बुद्धि एवं देश प्रेम के बल पर वे शीघ्र ही कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में आ गए। 1901 ई. में अकाल आयोग के समक्ष उनके द्वारा दी गई गवाही का सरकारी नीति पर प्रभाव पड़ा। 1905 ई. से ही वे राजनीति में सक्रिय हो गए। इस वर्ष ही वे कांग्रेस के शिष्ट मण्डल में इंग्लैण्ड गए तथा अपने विचारों से उन्होंने वहाँ की जनता को बहुत प्रभावित किया। वापस लौटने पर उन्होंने देशवासियों से कहा कि, अंग्रेजों से स्वशासन की आशा करना व्यर्थ है। 1906 के बनारस के कांग्रेस अधिवेशन में लालाजी ने कहा था कि, एक अंग्रेज भिखारी से सबसे अधिक घृणा करता है। मेरा विचार है कि भिखारी हैं भी इस योग्य की उनसे घृणा की जाए। इसलिए हमारा राष्ट्रीय कर्त्तव्य है कि, हम अंग्रेजों को दिखा दें कि हम भिखारी नहीं हैं।
1905 ई. में कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया था। इस पर लाला जी ने बंगाल विभाजन की कटु आलोचना की तथा अपने ओजस्वी भाषण द्वारा इसके विरूद्ध चल रहे आन्दोलन को गति प्रदान की। कांग्रेस के अधिवेशन में बंग-भंग विष्यक मुख्य रूप से प्रस्ताव पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था, गिड़गिड़ाते रहने की नीति अब हमने छोड़ दी है।...वस्तुतः अंग्रेज स्वयं किसी भी बात से इतनी घृणा नहीं करते, जितनी की भिक्षावृत्ति से और मेरा भी दृढ़ मत है कि भिखारी सच ही इस योग्य होता कि उसे नफरत की जाए। अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम अंग्रेजों को यह दिखा दे कि अब हम पहले के से भिखारी नहीं हैं। सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा है कि, एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में मैं लॉयड जॉर्ज तथा लाला लाजपतराय दोनों का एक साथ स्मरण करता हूँ। जनता के रोष को जाग्रत करने की दोनों में समान क्षमता थी।

1907 ई. में कांग्रेस का विभाजन होने पर लाला जी तिलक के सहयोगी बन गए। उन्होंने पंजाब के निवासियों में निड़रता तथा साहस की भावना उत्पन्न की। 1907 ई. में उन्होंने सरदार अजीतसिंह के साथ मिलकर कोलोनाइजेशन बिल का जोरदार विरोध किया, अतः इन दोनों को मांडले (बर्मा) की जेल में बन्द कर दिया गया, किन्तु बाद में रिहा कर दिया गया। 1907 ई. में तिलक ने उनका नाम कांग्रेस अध्यक्ष के लिए रखा था, किन्तु टकराव की स्थिति देखते हुए वापिस ले लिया।
लाला जी यद्यपि उग्रवादी विचारों के थे, किन्तु फिर भी कांग्रेस के विभाजन को टालने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते रहे, किन्तु विफल ही रहे। 1914 ई. में लाला जी इंग्लैण्ड चले गए। इसी समय प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हो जाने पर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लौटने की अनुमति नहीं दी। अतः लाला जी अमेरिका चले गए तथा प्रथम विश्व युद्ध के अन्त तक वहीं रहे। अमेरिका में उन्होंने इण्डियन होमरूल तथा इनफर्मेशन ब्यूरो नामक दो संस्थाओं की स्थापना की तथाय यंग इण्डिया नामक समाचार-पत्र निकाला। इससे अमेरिकनों की भारत की स्वतन्त्रता के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हुई। उन्होंन यंग इण्डिया नामक पुस्तक भी लिखा, जिसकी बिक्री पर ब्रिटिश सरकार ने भारत तथा इंग्लैण्ड में प्रतिबन्ध लगा दिया। अमेरिका में रहते हुए लाला जी ने 40 हजार रूपए एकत्रित कर गाँधीजी को दक्षिण अफ्रीका भेजे, जो वहाँ रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष कर रहे थे।

जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के समय वे अमेरिका में थे एवं इससे वे तिलमिला उठे। वे भारत लौटना चाहते थे, किन्तु विवश थे। उन्होंने अपनी भावना को इस प्रकार व्यक्त किया, मैं इस अवसर पर, जबकि देशवासी ऐसी विकट आपदाओं का सामाना करते हुए देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, उस संग्राम में अपना योगदान अदा करने के लिए देश में न रहने के कारण एक कटु आत्म-ग्लानि और लज्जा के भाव से दबा जा रहा हूँ। यहां तक कि यह तथ्य भी भारत में न जा पाने की अपनी इस विवशता से स्वतः मेरा कोई अपराध नहीं है, मेरे लिए कोई सांत्वना की बात नहीं है। यद्यपि भारत के लिए होमरूल के पक्ष में बाहरी दुनिया में अनुकूल मत उत्पन्न करने का यह का भी एक महत्त्व का काम है, फिर भी हमारा सच्चा कार्यक्षेत्र तो है भारत वर्ष ही। वस्तुतः सारे संसार का नैतिक समर्थन प्राप्त कर लेने पर भी हमें निर्णायत्मक रूप से सहायता नहीं पहुँच सकेगी। भारत की यर्थाथ स्वतन्त्रता तो स्वयं भारतीयों द्वारा भारत में ही सिद्ध हो सकेगी।

1920 में लाला जी भारत लौटे तथा कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के सभापति बने। इस सम्मेलन में गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव रखा। आन्दोलन के पक्ष में न होते हुए भी लाला जी ने बहुमत को देखते हुए न केवल इसे अपनी स्वीकृति दी, बल्कि पंजाब में इसका नेतृत्व भी किया। उन्होंने कहा कि, हम अपने चेहरे सरकारी भवनों की ओर से मोड़कर जनता की झोपड़ियों की ओर करना चाहते हैं। शीघ्र ही लाला जी एवं गाँधी मे मतभेद उभरने लगे। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि, लाला लाजपतराय यौद्धा थे, सत्याग्रही नहीं। अपने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया, किन्तु चौरा-चोरी घटना के बाद तेजी से चलते हुए आन्दोलन को बन्द करने के गाँधी के विचार से सहमत नहीं थे।
1921 ई. में लाला जी ने लोक सेवक मण्डल की स्थापना कर जनता में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। अतः सराकर उन्हें 3 दिसम्बर, 1921 को बन्दी बना लिया। अपनी गिरफ्तारी के समय उन्होंने कहा था कि, मैं अमेरिका से चलते समय खुद सोचता था कि मैं बहुत थोड़े समय तक ही जेल के बाहर रह सकूँगा। मैं अपनी गिरफ्तारी पर बहुत खुश हूँ, क्योंकि हमारा ध्येय पवित्र है। हमने जो कुछ किया है, अपनी आत्मा और परमात्मा के इच्छानुकूल ही किया है। हमारा मार्ग ठीक है। इसलिए मुझे विश्वास है कि हमें अपने उद्देश्य सिद्धि में अवश्य सफलता मिलेगी। मुझे यह भी यकीन है कि मैं बहुत ही जल्द वापस आकर आपकी खिदमत करूँगा। लेकिन अगर ऐसा न भी हो, तो भी मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि खुद में अपने परमात्मा के सामने हाजिर हो जाऊँगा। उन्हें कारावास की अवधि के पहले ही रिहा कर दिया गया।
1923 ई. में वे स्वराज्य दल की तरफ से केन्द्रीय धारा सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। वे मानते थे कि विधान परिषदों के अन्दर एवं बाहर दोनों स्थानों पर अंग्रेजों से संघर्ष किया जाना चाहिए। कुछ समय पश्चात् उन्होंने अपना पृथक् स्वतन्त्र कांग्रेस दल गठित किया। अगले निर्वाचनों में वे दो स्थानों से चुने गए तथा विधान परिषद् में उन्होंने अपने दल का नेतृत्व किया। शिमला सम्मेलन में उन्होंने शांति रक्षा बिल का जोरदार विरोध किया।

1925 ई. में लाला जी हिन्दू महासभा के कलकत्ता सम्मेलन में सभापति चुने गए। लाला जी ने हिन्दू महासभा को राष्ट्रीय हित पर आधारित संस्था बनाने का प्रयत्न किया। इस संस्था के साम्प्रदायिक मनोवृत्ति वाले सदस्यों के नाम उन्होंने एक पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया था कि, हिन्दू नेताओं ने स्वराज्य आन्दोलन को विकसित रूप देने के लिए अब तक जो कुछ किया है, उस पर मुझे तनिक भी दुःख नहीं है। मुझे आशा है कि भावी इतिहासकार उन नेताओं की ऐसे आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रशंसा ही करेंगे। हमें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि कोई भी जीवित राष्ट्र राजनीति की उपेक्षा नहीं कर सकता। राजनीति संघटित जीवन का प्राण है और सामाजिक उन्नति और राष्ट्रीय समृद्धि के लिए उचित ढंग से की राजनीति के क्रियाकलाप नितान्त आवश्यक हैं। राजनीति के कार्यकलाप दो प्रकार के हैं-सरकार विरोध तथा सरकार के पक्ष में। केवल विरोध करने के उद्देश्य से सरकार का विरोध करना मूर्खता होगी। साथ ही व्यक्तिगत या जातिगत हितों के लिए सरकार की सहायता करना भी कम मूर्खता न होगी। अब तक हिन्दूओं ने राष्ट्रीय नीति बरती है और में समझता हूँ कि उन्हें इस नीति पर दृढ़ रहना चाहिए। यदि वे राष्ट्रीयता का स्थान साम्प्रदायिकता को देंगे, तो उनके लिए उससे बड़े कलंक की बात दूसरी नहीं होगी।

ब्रिटिश सरकार ने 1919 ई. के सुधारों पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए एक साइमन कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन के सारे सदस्य अंग्रेज होने के कारण भारतीय जनता ने इसका विरोध किया। स्थान-स्थान पर इसके विरोध में हड़तालें हुईं तथा जुलूस निकाले गए। 30 अक्टूबर, 1928 ई. को यह कमीशन लाहौर पहुँचा, जहाँ लाला जी ने इसके विरूद्ध निकाले गए शान्तिपूर्ण जुलूस का नेतृत्व किया। पुलिस कप्तान साण्डर्स ने जान-बूझकर प्रदर्शनकारियों पर विशेषतः लाला जी पर लाठियों की वर्षा करवाई। इससे लाला जी पुरी तरह घायल हो गए। घायलावस्था में उन्होंने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि, मैं इस मंच पर खड़ा होकर यह घोषणा करता हूँ कि आज हम पर जो वार हुआ है, वह ब्रिटिश साम्राज्य का अन्त निकट आ जाने की सूचना देता है। जिस किसी ने पुलिस के इस क्रूर कर्म को देखा है, वह इसे कभी नहीं भूल सकता। वह दृश्य हमें पुरी तरह अंतर्हित हो गया है। हमें इस कायरता पूर्ण आक्रमण का बदला चुकाना है। बदला चुकाने से मेरा मतलब खून-खराबा नहीं, ब्लकि स्वाधीनता प्राप्त करना है। मैं सरकार को चेतावनी देना चाहता हूँ कि अगर इस देश में रक्तरंजित क्रान्ति हो गई, तो उसकी जिम्मेदारी आज का सा दुष्कर्म करने वाले गोरे अफसरों की होगी। हमारा ध्येय तो यही है कि हम स्वराज्य का युद्ध शान्तिपूर्ण एवं अहिंसात्मक ढंग से लड़ें, लेकिन अगर सरकार और सरकारी अफसरों के यही ढंग रहे और इसके जवाब में हमारे नौजवानों ने हमारे कहने की परवाह न करके यह निश्चिय कर लिया कि अपने मुल्क की आजादी हासिल करने के लिए जो कुछ करना पड़े, वह सब ठीक है तो, उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। मैं नही जानता कि मैं उस दिन को देखने के लिए जिन्दा रहूँगा या तब तक मर जाऊँगा, लेकिन चाहे मैं जिन्दा रहूँ या मर जाऊँ और मेरे देश के नौजवानों को लाचार होकर उस दिन का सामना करना ही पड़ेगा, तो मेरी आत्मा उन्हें युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए आशीर्वाद देगी।

घायलावस्था में उन्होंने कराहते हुए कहा, मेरे शरीर पर किया गया लाठी का एक-एक प्रहार ब्रिटिश सरकार के कफन की कील बनकर रहेगा। इस महान् देशभक्त का 17 नवम्बर, 1928 ई. में निधन हो गया। गाँधी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि, मैं इस हानि को हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा दुर्भाग्य समझता हूँ। उनकी स्थानपूर्ति असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। उन जितनी सार्वजनिक सेवाएँ करने का शायद ही किसी जीवित नेता को सौभाग्य प्राप्त हुआ है। स्वराज्य प्राप्ति ही उनकी सबसे बड़ी यादगार है।
महान् वक्ता
लालाजी एक उच्च कोटि के वक्ता थे। अपनी विलक्षण वक्तव्य कला के कारण ही वे शेर-ए-पंजाब कहलाते थे। उनके भाषणों का भारत एवं इंग्लैण्ड दोनों की जनता पर बहुत प्रभाव पड़ा।
महान् लेखक
लालाजी बहुत बड़े लेखक थे, जिन्होंने एक दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिखीं। इनमें यंग इण्डिया प्रमुख है। हांलाकि इस पर सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया, किन्तु यह इंग्लैण्ड एवं भारत में बहुत लोकप्रिय हुई। उन्होंने शिवाजी, श्रीकृष्ण, गैरीबाल्डी, दयानन्द आदि की जीवनियाँ भी लिखीं, ताकि युवकों को प्रेरणा मिल सके। श्रीमद्भगवद्गीता का सन्देश, ब्रिटेन का भारत के प्रति ऋण, दुःखी भारत, हिन्दू-मुस्लिम एकता, तरूण भारत आदि उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। उन्होंने पंजाबी, ऊर्दूं, दैनिक, वन्दे मातरम् एवं दी पीपल आदि समाचार-पत्र भी निकाले।

सामाजिक क्षेत्र में देन
लालाजी एक उच्च कोटि के सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने दलितोद्वार तथा अछूतोद्वार के लिए काफी प्रयास किए। 1905 के भूकम्प तथा तत्पश्चात् बिहार एवं उत्तर प्रदेश में दुर्भिक्ष के समय-समय उन्होंने जनता की बहुत सेवा की। उन्होंने दलितोद्वार एवं अछूतोद्वार के उद्देश्य से भार सेवक समाज नामक संस्था की स्थापना की। उन्होंने अनाथ बालकों एवं बीमार स्त्रियों हेतु कई औषधालयों की स्थापना की। उन्होंने पंजाब नेशलन बैंक के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके प्रयासों से लाहौर में डी.ए.बी. कॉलेज स्थापित हुए। उन्होंने तिलक स्वराज्य फण्ड हेतु मात्र 10 दिनों में 9 लाख रूपए की राशि एकत्रित की थी।
धार्मिक विचार
लालाजी ने धर्म को राजनीति से अलग रखने पर बल दिया। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे, किन्तु उन्होंने तुष्टिकरण की नीति का विरोध किया। जब मुसलमानों में साम्प्रदायिक भावना उत्पन्न होने लगी, तो वे हिन्दू महासभा से जुड़ गए एवं हिन्दू राष्ट्रीयता के पक्षधर बन गए। उन्होंने हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता की। वे देश को धर्म के ऊपर मानते थे। उन्होंने स्वयं के बारे में अपने दैनिक पत्र वन्दे मातरम् में लिखा था कि, मेरा महजब हक परस्ती, मेरी अदालत-अन्तकरणः तथा मेरी ज्यादाद मेरी कलम, मेरी मिल्लत कौम परस्ती, मेरी अदालत अन्तःकरण तथा मेरी जायदाद मेरी कलम।

लाला लाजपतराय महान् देशभक्त थे एवं अपने देश से उन्हे बहुत प्रेम था। राष्ट्रीय आन्दोलन में उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। वे महान देशभक्त राष्ट्रीयता के प्रबल पक्षधर, महान् लेखक, पत्रकार एवं कुशल वक्ता थे। आने वाली पीढ़ियाँ आदर के साथ उनका नाम लेती रहेंगी। उनकी मृत्यु पर गाँधी ने कहा था, भारतीय गगन मण्डल से एक महान् नक्षत्र का लोप हो गया। उनकी मृत्यु से दुःखी होने के बजाय हमें उनके अदम्य साहस, आदरणीय चरित्र, परिश्रम तथा देश प्रेम के गुणों से प्रेरित होकर स्वराज्य प्राप्ति के लिए यथा-शक्ति प्रयत्न् करना चाहिए। एक अन्य अवसर पर गाँधी ने कहा था कि, लाला लाजपतराय जैसे व्यक्ति की मौत उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक कि भारतीय आसमान में सूरज चमकता है। लालाजी स्वयं एक संस्था थे। उन्होंने अपने देश से प्यार किया, क्यांकि वे दुनियां को प्यार करते थे।


विपिनचन्द्र पाल

विपिनचन्द्र पाल भी एक महान् देशभक्त थे, जिनका राष्ट्रीय आन्दोलन में अत्यन्नत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि, उनकी वाणी में इतना जादू था कि उनके भाषण शिक्षित तथा अशिक्षित सभी व्यक्तियों को एक समान प्रभावित करते थे। स्वदेशी आन्दोलन, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा आदि के सम्बन्ध में उनके विचार तिलक से भी आगे थे। वे भारत को पूर्णतः स्वतन्त्र करवाने के पक्ष में थे।
राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान
विपिनचन्द्र पाल न्यू इण्डिया के सम्पादक थे तथा उनके ओजपूर्ण लेख वन्दे मातरम् में भी प्रकाशित होते थे। वे 1887 ई. में कांग्रेस में सम्मिलित हुए तथा तिलक के विचारों से प्रभावित होकर उनके सहयोगी बन गए। उन्होंने उदारवादियों की राजनीतिक भिक्षावृत्ति का विरोध करते हुए कहा था कि, स्वराज्य संघर्ष से मिलेगा। उन्होंने कहा था कि, यदि सरकार मुझसे आज कहे कि लो स्वराज्य ले लो, तो मैं उत्तर दूँगा कि उपहार के लिए धन्यवादा, परन्तु मुझे ऐसा कुछ स्वीकार नहीं है, जो मैंने अपने बाहुबल से न लिया हो। उनका विचार था कि, हम देश में ऐसे कार्य करेंगे, जनता को ऐसे साधन उपलब्ध करवाएँगे, राष्ट्र की शक्ति इस प्रकार सुसंगठित करेंगे, जनता में स्वराज्य की ऐसी भावना जाग्रत करेंगे कि हम किसी भी शक्ति को जो हमारा विरोध में खड़ी हुई हो, पराजित करने में सफल होंगे।

विपिनचन्द्र पाल ने बंगाल विभाजन की कटु आलोचना की एवं इसके विरोध में अत्यन्त उत्तेजक लेख लिखे, जिससे उन्हें काफी लोकप्रियता मिली। विपिनचन्द्र पाल एवं सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बंगाल विभाजन के विरोध में कलकत्ता में टाऊन हॉल में एक सार्वजनिक सभा आयोजित की, जिसमें बहिष्कार तथा स्वदेशी के प्रयोग का प्रस्ताव पारित किया गया। इसके बाद उन्होंने मद्रास जाकर वहाँ के युवकों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न की। सरकार ने उन्हें मद्रास छोड़ने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने 1906 में दादा भाई नौरोजी द्वारा रखे गए साम्राज्य के भीतर स्वराज्य के प्रस्ताव को अव्यवहारिक बताया। वे भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दिलवाना चाहते थे।
विपिनचन्द्र पाल ने इन कार्यों से ब्रिटिश सरकार उनकी शत्रु बन गई तथा उन्हें बन्दी बनाने के लिए बहाना ढूंढ़ने लगी। 1907 ई. में उन्हें अरविन्द घोष पर चलाए जा रहे अभियोग के सम्बन्ध में गवाही देने के लिए बुलाया, किन्तु उन्होने आने से मना कर दिया। अतः अदालत की मान-हानि के अपराध में 6 माह की कैद दी गई। 1908 ई. में वे इंग्लैण्ड चले गए तथा तीन वर्ष वहीं रहे। विपिनचन्द्र पाल को भारत से निष्कासित करने की अनुमति प्राप्त करने के लिए भारत मन्त्री ने वायसराय को जो पत्र लिखा था, वह राष्ट्रीय आन्दोलन में विपिनचन्द्र पाल के योगदान को स्पष्ट करता है, पाल का व्यवहार दानवी है और हम उनके खतरे को नजर अन्दाज नहीं कर सकते। इस प्रकार के अपराधियों पर मुकदमा चलाने की नीति है, पर कलकत्ते में कोई ऐसा जूरी नहीं मिलेगा, जो विपिनचन्द्र को धारा 124 ए (राजद्रोह) में अपराधी घोषित कर दे। विपिनचन्द्र पाल जैसे खास मामलों में निष्कासन ज्यादा सीधा और कारगर तरीका होगा, बनिस्पत मुकदमा चलाने के इस पर उतना ध्यान आकृष्ट नहीं होगा।
1911 ई. में बंगाल विभाजन रद्द होने के बाद विपिनचन्द्र पाल राजनीति में निष्क्रिय होने लगे। आन्दोलन से सहमत न होने पर 1920 ई. में उन्होंने कांग्रेस से त्याग-पत्र दे दिया। 1920 ई. में वे अन्तिम बार लखनऊ में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे। 1932 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। अपना राजनीतिक जीवन छोटा होते हुए भी विपनचन्द्र पाल अपनी एक अलग छाप छोड़ने में सफल रहे।


अरविन्द घोष

हमारे देश के अधिकतर लोग अरविन्द को महर्षि अरविन्द के रूप में ही जानते हैं, जिन्होंने आज के इस वैज्ञानिक युग में भी योग साधना के माध्यम से अमूल्य सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। यद्यपि यह सत्य है कि अरविन्द बहुत अच्छे योग साधक थे, पर वे अपने प्रारम्भिक जीवन में इसके अतिरिक्त कुछ और भी थे। प्रश्न है, वे कुछ औ भी क्या थे? उत्तर है, वे बंगाल के महान् क्रान्तिकारी थे और उन्होंने क्रांतिकारी आन्दोलन को अत्यधिक प्रेरणा दी थी। उन्हीं के प्रेरणा से सैकड़ों बंगाली युवकों ने हँसते-हँसते देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। यही नहीं, उनके छोटे भाई बारीन्द्र ने भी उन्हीं से प्रेरणा ली थी। यद्यपि यह सत्य है कि क्रान्तिकारी के रूप में अरविन्द घोष ने न तो बम बनाया और न पिस्तौल से किसी अंग्रेज अत्याचारी अफसर की हत्या की, तथापि इस बात को स्वीकार करने से इन्कार नहीं किया जा सकता हि उनके ओजस्वी भाषणों से ही सशस्त्र सैनिकों करने के लिए प्रेरणा प्राप्त हुई थी। जब भी भारतीय स्वन्त्रता का इतिहास लिखा जाएगा, उनके त्याग, देश प्रेम एवं साहस की चर्चा बड़े गर्व से की जाएगी।
अरविन्द स्वतन्त्रता का संदेश लेकर ही भारत की धरती पर आए थे। उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 ई. में बंगाल में हुआ था। आश्चर्य की बात यह है कि उनके जन्म पर ही 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वतन्त्रता प्राप्त हुई थी। दोनों के साम्य से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अरविन्द का जन्म भारत की स्वतन्त्रता के लिए ही हुआ था। उनकी क्रान्तिकारी एवं महान् योगी के रूप में की गई साधना का फल हमारी अमूल्य स्वतन्त्रता है, जिसका हम आज उपभोग कर रहे हैं।
अरविन्द के पिता नाम के.डी. घोष था, जो बंगाल के खुलना के अस्पताल में सिविल सर्जन के पद पर प्रतिष्ठित थे। वे उदार प्रवृति थे एवं दानी थे। उन्होंने शिक्षा प्रेमी होने के कारण अपने सभी पुत्रों को अच्छी शिक्षा दिलाई थी।

अरविन्द चार भाई थे। उनके सबसे छोटे बाई बारीन्द्र कुमार घोष महान् क्रान्तिकारी थे। उन्होंने जीवनभर क्रान्ति के पथ पर चलकर देश की सेवा की वे देश की स्वतन्त्रता के लिए ही वन्दे मातरम् का गान गाते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झुल गए।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि के.डी. घोष अंग्रेजों के प्रशंसक एवं उनकी सभ्यता के पोषक थे। पर उन्हीं के दो-दो पुत्रों ने अंग्रेज राज्य को उलटने में महान कीर्ति प्राप्त की। प्रायः लोग यह कहते हैं कि सन्तानें भी माता-पिता के नक्शे कदम पर चलती हैं, किन्तु के.डी. घोष की सन्तानें उनकी प्रवृत्ति के बिल्कुल विपरीत थीं।
अरविन्द ने प्रारम्भिक शिक्षा खुलना में एवं उच्च शिक्षा इंग्लैण्ड में प्राप्त की। उन्होंने इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्राचीन दर्शन की सफलतापूर्वक शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा भी दी। सभी विषयों में उत्तीर्ण भी हो गए थे, परन्तु घुड़सवारी में उत्तीर्ण नहीं हो सके थे। यदि वह घुड़सवारी में उत्तीर्ण हो जाते, तो भारत में बहुत बड़े अफसर बन जाते, परन्तु उन्हें वह गौरव प्राप्त नहीं हो पाता, जो महान् क्रान्तिकारी एवं महान् योगी बनने के कारण प्राप्त हुआ।
1903 में अरविन्द ने गायकवाड़ नरेश से भेंट की, जो उनके ज्ञान व विचारों से बहुत प्रभावित हुए। गायकवाड़ नरेश ने अरविन्द को अपने निजी सचिव के पद पर प्रतिष्ठ कर दिया।

अरविन्द कई वर्षों तक बड़ौदा में रहे। वहाँ रहते हुए उन्होंने दो कार्य किए। एक तो यह कि वे बड़ौदा के राजा के सचिव थे और दूसरा यह कि बड़ौदा राज्य के राजकीय विद्यालय के प्राधानाचार्य के पद भी प्रतिष्ठित थे। इसलिए बड़ौदा नरेश उनका बहुत आदर एवं सम्मान करते थे।
1905 ई. में बंगाल विभाजन के विरूद्ध सारे बंगला में बड़े जोरों से आन्दोलन आरम्भ हो गया। आन्दोलन गुप्त एवं प्रकट दोनों ही प्रकार से चलाया जा रहा था। अहिंसा के समर्थक नेताओं द्वारा प्रकट आन्दोलन चलाया जा रहा था। गुप्त आन्दोलन क्रान्तिकारियों के द्वारा चलाया जा रहा था। बंगाल में दोनों ही प्रकार के आन्दोलनों की घूम मची हुई थी।
बंग-भंग विरोध आन्दोलन के साथ-साथ स्वदेशी आन्दोलन भी चल रहा था, जिसके द्वारा न केवल स्वदेशी अपितु विप्लववाद का प्रचार भी किया जा रहा था। एक ओर आन्दोलन चल रहा था, दो दूसरी ओर सरकार इसको कुचलने के लिए दमन चक्र चला रही थी। रोज ही गिरफ्तारियाँ होती थीं और रोज ही कारवास, फाँसी एवं काले पानी की सजाएँ दी जाती थीं।

जब अरविन्द को दमन चक्र के बारे में सूचना प्राप्त हुई, तो बड़ौदा छोड़कर कलकत्ता आ गए। वहाँ रहकर उन्होंने प्रमुख कार्य (1) स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार, (2) नेशनल कॉलेज के प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करते हुए राष्ट्रीय चेतना जागृत करना, एवं (3) वंदे मातरम् का सम्पादन किया।
अरविन्द ने स्वदेशी का प्रचार करने हेतु सारे देश का दौरा किया, अप्रैल, 1807 ई. में कलक्ता में आयोजित एक सभा में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, बंगाल की जनता जाग उठी है। वह अंग्रेजो के दमन से कदापि न झुकेगी। इसके विपरीत अंग्रेजी सरकार को ही घुटने टेकने पड़ेगे, जनता के समाने झुकना पड़ेगा।
अरविन्द ने न केवल अपने भाषणों से, अपितु, वन्दे मातरम् एवं युगान्तर नामक पत्रों के माध्य से भी स्वेदशी का प्रचार किया। उन्होंने इन दोनों समाचार-पत्रों में कोइ ओजस्वी लेख लिखे, जिनमें स्वदेशी के प्रचार पर जोर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कटु आलोचना की जाती थी।
जब अरिवन्द नेशलन कॉलेज के प्रधानाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित थे, तब उन्होंने सैकड़ों बंगाली युवकों के हृदय में क्रान्ति के बीज बोये तथा उन्हें देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लेने की प्रेरणा दी।
अरविन्द के इन कार्यों के कारण अंग्रेजी सरकार के कान खड़े हो गए। उसने वन्दे मातरम् में प्रकाशित लेखों के आधार पर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर उन्हें जेल की सजा दी गई। इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि, जेल की सजाओं, लाठियों की चोटों और फाँसियों से आन्दोलन दबेगा नहीं। एक दिन आएगा, जब भारत स्वन्त्र होगा और अंग्रेजों को भारत छोड़ कर चले जाना पड़ेगा।

जेल की सजा पूरी करने के लिए अरविन्द को अलीपुर जेल में रखा गया, वहाँ उन्होंने अपना अधिकांश समय तप और साधना में व्यतीत करना शुरू कर दिया। कहा जाता है कि वे दिन-रात भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे और बड़े प्रेम से श्रीमद् भागवत्गीता का स्वाध्याय करते थे। कहा जाता है कि अरविन्द की साधना एवं भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ज्योति के रूप में दर्शन दिए थे। उनकी जीवन की घटना का चित्र निम्नलिखित पंक्तियों में इस प्रकार खींचा गया है-
मिले कृष्ण जब कारागृह में, तो जीवन की धारा बदली, दूर हुआ तम-तोम हृदय का, दिव्य ज्ञान की ज्योति खिली।
जेल में अरिवन्द के विचारों में परिवर्तन आ जाने के कारण उनका जीवन भी बदल गया था। अब उन्होंने यह अनुभव किया कि भारत की स्वतन्त्रता हिंसा से नहीं, अपितु साधना से प्राप्त हो सकती है। साधना के प्रकाश से दासता के अंधकार को दूर किया जा सकता है।
अरविन्द के जेल से बाहर आते ही गुप्तचर उनके पीछे लग गए। यद्यपि वे अब किसी आन्दोलन में भाग नहीं लेना चाहते थे और शांतिपूर्वक प्रभु की साधना एवं भक्ति करना चाहते थे। पर अंग्रेज सरकार उन्हें अपने लिए संकट समझती थी। अतः वह उन्हें जेल से बाहर नहीं देखना चाहती थी।
ऐसी स्थिति में अरविन्द कलकत्ता छोड़कर गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए, जहाँ पर फ्रांसीसियों का राज्य था। यहाँ पर अंग्रेज फांसीसियों की बिना अनुमति के बन्दी नहीं बना सकते थे। जब अंग्रेजों को अरविन्द के पांडिचेरी में होने की सूचना मिली, तो उन्होंने अरविन्द को बन्दी बनाने के लिए एड़ी-चोटी का पूरा जोर लगा दिया, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली।

अरिवन्द ने पांडिचेरी में रहकर योग के द्वारा साधना कर सिद्धि प्राप्त की। उन्होंने आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यह दिखा दिया की योग सादना द्वारा मनुष्य सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है।
5 नवम्बर, 1950 ई. को महर्षि अरविन्द ने निर्वाण प्राप्त कर लिया। वे अपने ज्ञान, देशप्रेम एवं दिव्यता के रूप में आज भी हमारे बीच विद्यमान हैं और हमेशा रहेंगे।

8. क्रांतिकारी आन्दोलन

ब्रिटिश शासन की दमन नीति के परिणामस्वरूप 20वीं शताब्दी के आरम्भ में भारत में राष्ट्रीय जाग्रति की लहर दो धाराओं में बंट गई। एक तो उग्रवादी राष्ट्रवादी धारा, जिसका नेतृत्व लाल-बाल-पाल के द्वारा किया जा रहा था। वे शान्तिपूर्ण आन्दोलन के समर्थक थे। वे स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध के सिद्धान्त के आधार पर सरकार के विरूद्ध संघर्ष करना चाहते थे, ताकि सरकार शासन का संचालन करने में असमर्थ हो जाए और अंग्रेज विवश होकर भारत छोड़कर चले जाएँ। स्पष्ट है कि उग्रवादी भारत में अंग्रेजी शासन को समाप्त करना चाहते थे, परन्तु हिंसात्मक साधनों का उपयोग करने के पक्ष में नहीं थे। वे जन आन्दोलन के बल पर स्वराज्य प्राप्त करना चाहते थे। किन्तु इसी समय देश में कुछ ऐसे देशभक्त भी विद्यमान थे, जिनका शांतिपूर्ण संघर्ष में विश्वास नहीं था, वे हिंसा तथा आतंक द्वारा शासकों को भयभीत कर विदेशी शासन को समूल नष्ट करना चाहते थे। वे खून का बदला खून से लेना चाहते थे।

क्रांतिकारी आन्दोलन का उदय
सूरत कांग्रेस के अधिवेशन के पश्चात सरकार ने दमन नीति का पालन करते हुए बड़े नेताओं को जेलों में ठूसना शुरू कर दिया, जुलूसों तथा सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया और हजारों लोगों पर अत्याचार किए। सरकार की दमन नीति के परिणामस्वरूप, भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में उग्रवादी आन्दोलन की एक नई विचारधारा का उद्भव हुआ, जिसे आतंकवादी या क्रांतिकारी कहते हैं। इसके समर्थक हिंसात्मक साधनों द्वारा अंग्रेजी शासन को नष्ट करके स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे विदेशी सहायता तक प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील थे। क्रांतिकारियों ने अनेक स्थानों पर गुप्त समितियाँ स्थापित कीं, हत्याकाण्ड किए, बम फेंके, गोलियाँ चलाई, रेलों की पटरियाँ उखाड़ दीं तथा अनेक प्रकार से अंग्रेज शासन को आतंकित किया, ताकि अंग्रेज सरकार उससे प्रभावित होकर भारत पर अत्याचार करना छोड़ दे सारांश यह है कि उग्रवादियों ने सभा, जुलूस एवं बहिष्कार आदि साधनों की सफलता के बाद कुछ युवकों ने आतंकवादी साधनो को अपनाना शुरू कर दिया। डॉ. परमात्मा शरण ने लिखा है कि, 1907 और 1908 में बने राजद्रोहात्मक सभा अधिनियम, समाचार-पत्रों के अधिनियम तथा अन्य दमनकारी कानूनों ने भी किसी भी अन्य प्रकार का राजनीतिक आन्दोलन सिवाय उसमें, जिसे नौकरशाही सहन कर सकती थी, खुले रूप से चलाना असम्भव बना दिया। अतः विशेषकर बंगाल में तथा अन्य प्रान्तों में भी क्रांतिकारी संगठन बने, जो छुपकर अपना कार्य करते तथा प्रचार करते थे। भारत सचिव लार्ड मॉलें द्वारा 1908 ई. में वायर राय लार्ड मिण्टो को लिखा गया था कि, राजद्रोह और अन्य अपराधों के सम्बन्ध में जो दिल दहला देने वाले दण्ड दिए जा रहे है, उनके कारण मैं चिन्तित और चकित हूँ।...हम व्यवस्था चाहते हैं, लेकिन व्यवस्था लाने के लिए घोर कठोरता के उपयोग से सफलता नहीं मिलेगी इसका परिणाम उलटा होगा और लोग बम का सहारा लेंगे। मांटेग्यू ने 1910 ई. में ब्रिटिश सरकार की दण्ड नीति के बारे में कहा था कि, दण्ड संहिता की सजाओं ने और चाकू चलाने की नीति ने साधारण और बिगड़े हुए नवयुवकों को शहीद बनाया और विप्लकारी पत्रों की संख्या बढ़ा दी। स्पष्ट है कि ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति के परिणामस्वरूप ही आतंकवाद का उदय हुआ था।

क्रांतिकारी आन्दोलन का उद्देश्य
अंग्रेजों ने इस आन्दोलन के नेताओं को हत्यारों, डाकुओं, आतंकवादियों तथा अराजकतावादियों का नाम देकर उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया, परन्तु उनकी यह नीति न्यायसंगत नहीं थी। क्रांतिकारी भारत से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना चाहते थे। इसलिए अंग्रेज कान्तिकारियों से अत्यधिक घृणा करते थे। क्रांतिकारियों ने कभी भी देश में अराजकता फैलाने का प्रयास नहीं किया। यद्यपि उनके द्वारा अपनाए गए साधनों को गलत नहीं कहा जा सकता, तथापि वे लुटेरे और हत्यारे नहीं थे। उनका मूल उद्देश्य लूट-मार तथा हत्या करना नहीं था, वरन विदेशी शासन का अन्त कर भारत में सच्चा लोकतन्त्र स्थापित करना था। उनमें देशभक्ति, आदर्शवादिता तथा बलिदान की भावनाएँ बहुत प्रबल थीं। इन क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहना भी अनुचित होगा, क्योंकि इनका उद्देश्य समाज में आतंक का राज्य स्थापित करना नहीं था, अपितु वे तो ब्रिटिश शासकों के मन में अत्याचारों के विरूद्ध आतंक उत्पन्न करना चाहते थे। क्रांतिकारी नेता केवल उसी ब्रिटिश अधिकारी की हत्या करते थे, जो भारतीय देशभक्तों पर बहुत अधिक अत्याचार करते थे। उदाहरणार्थ, पंजाब के गर्वनर ओडवायर के आदेश पर जब जनरल डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में निर्दोष भारतीयों के खून से होली खेली, तो क्रांतिकारी सरदार उद्यमसिंह ने प्रतिशोध के रूप में इंग्लैण्ड जाकर ओडवायर को गोली मार दी। इसी प्रकार, 1927 ई. में पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लाला लाजपतराय पर इतनी लाठियाँ बरसाई कि उनकी मृत्यु हो गई, तो सरदार भगतसिंह और उसके साथियों ने साण्डर्स को मौत के घाट उतार कर ही चैन की सांस ली। हत्या की ये घटनाएँ व्यक्तिगत प्रतिशोध के स्थान पर राष्ट्रीय प्रतिशोध का परिणाम थीं।

क्रांतिकारी साहित्य के द्वारा जनता में राष्ट्रीय भावनाएँ जाग्रत करते थे। मातृभूमि के नाम पर सैनिकों को ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित करते थे और संगठित क्रांति के लिए योजनाएँ बनाते थे। इसलिए हम उन्हें क्रांतिकारी कह सकते हैं, क्योंकि वे क्रांति द्वारा देश को पराधीनता से मुक्त करवाना चाहते थे तथा असमानताओं पर आधारित समाज को बदलकर समानता के आधार पर राष्ट्र का नव-निर्माण करना चाहते थे।

क्रांतिकारियों के विचार एवं कार्य पद्धति
क्रांतिकारियों
का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन का अन्त करना था। इसके लिए वे हिंसा, लूट एवं हत्या जैसे साधनों का उपयोग आवश्यक मानते थे। उनका मानना था कि, अंग्रेजी शासन पाशविक बल पर स्थित है और यदि हम अपने आपको स्वतन्त्र करने के लिए पाशविक बल का प्रयोग करते हैं, तो वह उचित ही है। उनका मानना था कि जो लक्ष्य अनेक युक्ति युक्त और नैतिक साधनों से प्राप्त नहीं हो सकता, उसे हिंसा और बल से प्राप्त किया जा सकता है। उनका संदेश था कि, तलवार हाथ में लो और सरकार को मिटा दो। क्रांतिकारी अंग्रेजों के विरूद्ध शस्त्रों का प्रयोग करना चाहते थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेता श्री बारीन्द्र कुमार घोष ने युगान्तर नामक समाचार-पत्र के एक लेख में लिखा था कि, क्या शक्ति के उपासक बंगवासी रक्त बहाने से घबरा जाएँगे? इस देश में अंग्रेजों की संख्या एक-डेढ़ लाख से अधिक नहीं तथा एक जिले में उनकी संख्या बहुत ही कम है। यदि तुम्हारा संकल्प दृढ़ हो, तो अंग्रेजी राज एक दिन में ही समाप्त हो सकता है। देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन अर्पण कर दो, परन्तु उससे पहले कम से कम एक अंग्रेज का जीवन समाप्त कर दो। देवी की आराधना पूरी न होगी यदि तुम एक और बलिदान दिए बिना देवी के चरणों अपनी बलि चढ़ाओगे।

क्रांतिकारियों ने कहा था कि, प्राण देने से पूर्व प्राण ले लो। 4 जून, 1929 ई. को सरदार भगतसिंह और बटुकेश्‍वर दत्त के द्वारा सेशन जज के सम्मुख जो बयान दिए गए थे, उससे क्रांतिकारी आन्दोलन का उद्देश्य बहुत अच्छे से स्पष्ट हो जाता है। उनके वक्तव्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश इस प्रकार था-क्रांति के विरोधियों द्वारा भ्रान्तिवश इस विचार को अपना लिया गया है कि क्रांति का तात्पर्य शस्त्रों, हथियारों या अन्य साधनों से हय्ता या हिंसक कार्य करना है, लेकिन क्रांति का अभियान बम और पिस्तोल मात्र नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है कि आज की वस्तुस्थिति और समाज व्यवस्था जो स्पष्ट रूप से अन्याय पर टिकी हुई है, को बदला जाए। क्रांति व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण को समाप्त करने और माहरे राष्ट्र के लिए पूर्ण आत्म-निर्णय का अधिकार प्राप्त करने के लिए है। स्वतन्त्रता व्यक्ति द्वारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इस उच्च आदर्श की प्राप्ति हेतु सभी प्रकार के त्याग करने व कष्ट सहने के लिए तत्पर हैं। क्रांति जिन्दाबाद।

क्रांतिकारियों की कार्यप्रणाली के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें शामिल थीं-
(1) लेखों, भाषणों और गुप्त प्रचार द्वारा शिक्षित भारतीयों के मस्तिष्क में विदेशी दासता के प्रति घृणा की भावना उत्पन्न करना।
(2) संगीत, नाटक एवं साहित्य द्वारा बेकारी और भूख से त्रस्त लोगों को निडर बनाकर उनमें मातृभूमि और स्वतन्त्रता का प्रेम भरना।

(3) शत्रु को प्रदर्शनों एवं आन्दोलनों में व्यस्त रखना।
(4) बम बनाना, बन्दूक, पिस्तौल आदि चोरी से मंगवाना और विदेशों से शस्त्र प्राप्त करना।
(5) चन्दा, दान तथा क्रांतिकारी डकैतियों के माध्य मे व्यय के लिए धन की व्यवस्था करना।
क्रांतिकारी भारतीय सैनिकों को भी विदेशी शासकों के विरूद्ध शस्त्र उठाने की प्रेरणा देते थे। उनका विचार था कि आवश्यकता पड़ने पर गुरिल्ला युद्ध किया जाए। वे एक देशव्यापी संगठित क्रांति करके विदेशी शासन को भारतवर्ष से उखाड़ फैंकना चाहते थे। अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्रांतिकारी गुप्त समितियाँ स्थापित करते थे, जिसके सदस्यों को शस्त्र चलाने तथा बम बनाना सिखाया जाता था। क्रांतिकारी साहित्य द्वारा वे अपने विचारों का प्रसार करते थे। इसके अतिरिक्त शिवाजी, भिवानी, दुर्गा एव काली आदि वीर-वीरांगनाओं की पूजा द्वारा विदेशी शासकों के हृदय में आतंक उत्पन्न करते थे। क्रांतिकारियों को आदेश था कि, वे अक्सर मृत्यु की परछाई की भाँति छिपे रहें और विदेशी अधिकारियों पर घातक वार करें। उन्हें अपने उन भाइयों को याद रखना था, जो जेलों में सड़ रहे थे, मर गए, पागल हो गए थे। अत्याचारी शासकों से बदला लेने के लिए क्रांतिकारी उन पर बम फैंकते तथा गोली चालते थे यदि वे पकड़े जाते, तो सरकार द्वारा दिए जाने वाले कठोर दण्ड को मातृभूमि के लिए हँस-हँसकर गले से लगा देते थे।

ब्रिटिश सरकार ने 1918 ई. में राजद्रोह सम्बन्धी जाँच समिति नियुक्त की थी। इसने अपने प्रतिवेदन में क्रांतिकारियों द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक के सार का उल्लेख इन शब्दों में किया, यूरोपियनों को गोली से मारने के लिए अधिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है। छिपे ढंग से शस्त्र, हथियार तैयार किए जा सकत हैं और भातीयों को हथियार बनाने का कार्य सिखाने के लिए विदेशों में भेजा जा सकता हैं। भारतीय सैनिकों की सहायता अवश्य ली जानी चाहिए और उन्हें देशवासियों के कष्टों की दुर्दशा के बारे में समझाना चाहिए। शिवाजी की वीरता अवश्य ही याद रहे। क्रांतिकारी आन्दोलन के प्रारम्भिक व्यय के लिए चन्दा किया जाए, परन्तु जैसे ही काम बढ़े समाज (अर्थता धनियों) से शक्ति द्वारा धन प्राप्त किया जाना जरूरी है। चूँकि इस धन का प्रयोग समाज कल्याण के लिए होगा, अतः ऐसा करना उचित है। राजनीतिक डकैती में कोई पाप नहीं लगता।
क्रांतिकारी क्रियाकलाप
क्रांतिकारियों की गतिविधियों के मुख्य केन्द्र बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब, मद्रास एवं राजस्थान इत्यादि थे।

बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन
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वीं शताब्दी के आरम्भ में क्रांतिकारी आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र बंगाल था। बंगाल में विभाजन की घोषणा से बंगाल में क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ बढ़ने लगीं। बंगाल में इस आन्दोलन के प्रसिद्ध नेता अरविन्द बाबू के छोटे भाई बारीन्द्र कुमार घोष और स्वामी विवेकान्द के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त थे। इन्होंने युगान्तर तथा संध्या नामक समाचार-पत्रों के माध्यम से सरकार की कटु आलोचना करते हुए नवयुवकों को क्रांतिकारी कार्यों के लिए प्रेरित करना प्रारम्भ कर दिया। इस समय उन्होंने घोषणा की कि, इस देश में अंग्रेजों की संख्या 1-1.50 लाख से अधिक नहीं है, प्रत्येक जिले में अंग्रेज पदाधिकारियों की संख्या कितनी है? यदि आप अपने संकल्प में दृढ़ हैं, तो एक ही दिन में ब्रिटिश शासन का अन्त कर सकते हैं। अपने प्राण दे दीजिए, लेकिन पहले प्राण ले लीजिए। बारीन्द्र कुमार घोष तथा उनके अनुयायियो ने अनुशीलन समिति नामक एक क्रांतिकारी संस्था की स्थापना की, जिसका एक प्रमुख केन्द्र कलकत्ता तथा दूसरा ढाका को बनाया गया। अकेली ढाका में ही 500 शाखाए स्थापित हो गईं। ये संस्थाएँ रूस तथा इटली की गुप्त संस्थाओं के आधार पर बनाई गई थी तथा उनके कार्यक्रम में आतंकवाद को मुख्य स्थान प्राप्त था। इनके सदस्यों को माँ काली के समक्ष अपने कार्यों को ठीक से करने हेतु व्रत लेना पड़ता था।

इन समीतियों के परिणामस्वरूप 1907-14 के बीच बंगाल में कई क्रांतिकारी घटनाएँ घटीं। 6 दिसम्बर, 1907 को मिदानपुर के निकट उप-गर्वनर की रेलगाड़ी को बम से उड़ा देने का प्रयास किया। जिला मजिस्ट्रेट घायल तो हो गया, किन्तु मरा नहीं। इसके पश्चात् क्रांतिकारियों ने मुजफ्फपुर के जज किंग्स फोर्ड को माने की योजना बनाई। 3- अप्रैल, 1908 ई. में किंग्स फोर्ड के बंगले की ओर से गाड़ी आ रही थी। क्रांतिकारीयोंने उस पर बम फैंका था। गाड़ी में किंग्स फोर्ड के स्थान पर दो अंग्रेज महिलाएँ (श्रीमती कैनेडी एवं उसकी पुत्री) थी, जिनकी घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। क्रांतिकारियों की खोज की गई और इस सम्बन्ध में 16 वर्षीय युवक खुदीराम बोस को पकड़कर फांसी पर लटका दिया गया। इस सम्बन्ध में सर वेलैंटाइन शिरोल ने लिखा है कि, इस प्रकार, वह (खुदीराम बोस) बंगाल के क्रांतिकारियों के लिए राष्ट्रीय वीर तथा शहीद बन गए। विद्यार्थियों तथा अन्य व्यक्तियों ने उनके लिए शोक के वस्त्र ग्रहण किए। दो-तीन दिन स्कूल बन्द कर दिए गए और उनकी स्मृति में श्रद्धांजलियाँ अर्पित की गईं। बहुत से लोगों ने ऐसी धोतियाँ पहनी, जिनके किराने पर खुदीराम बोस का नाम अंकित था तथा उनके चित्र भी बाँटे गए।
इसके पश्चात् एक और घटना 1910 ई. में घटी, जो अलीपुर केस के नाम से प्रसिद्ध है। सरकार को ककत्ता में क्रांतिकारी षड्यन्त्र को बोध हुआ जिसमें कुछ बम, डायनेमाइट तथा कारतूस बराबद हुए। इस घटना के सम्बन्ध में 39 क्रांतिकारी पकड़े गए। अरविन्द घोष भी उनमें से एक थे। 12 फरवरी, 1910 ई. को केस के निर्णय में अरविन्द घोष तथा उनके कुछ साथी आरोप सिद्ध न होने के कारण छोड़ दिए गए, परन्तु शेष को कठोर दण्ड दिया गया।

महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आन्दोलन
क्रांतिकारी आन्दोलन बंगाल से भी पहले महाराष्ट्र में प्रारम्भ हो गया था। 1899 ई. में पूना में चापेकर बन्धुओं ने प्लेग कमिश्नर मि. रैण्ड तथा आयर्स्ट की हत्या कर क्रांति का बिगुल बजा दिया था। महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आन्दोलन के अन्य नेता श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर बन्धु (वीर विनायक दामोदर सावरकर एवं गणेश सावरकर) थे। ऐसा कहा जाता है कि मि. रैण्ड की हत्या में श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ था। वे इस हत्या के पश्चात् लन्दन चले गए। वीर सावरकर (जिनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था) ने 1904 ई. में अभिनव भारत समिति नामक क्रांतिकारी संस्था की स्थापना नासिक में की और शीघ्र ही उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सारे महाराष्ट्र में गुप्त समितियों का जाल बिछ गया। इन समितियों ने नासिक एवं पूना आदि में बम बनाने के फैक्ट्रियाँ स्थापित कीं। इन संस्थाओं ने महाराष्ट्र की जनता के को देश के लिए मर-मिटने की प्रेरणा दी। बंगाल विभाजन के विरोध में 1905 ई. में स्वदेशी आन्दोलन चलाया गया, उस समय वीर सावरकर ने पूना में विदेशी कपड़ों की ऐसी होली जलाई कि सारे दक्षिण में तहलका मच गया।
1906 ई. में वीर विनायक दामोदर सावरकर लन्दन चले गए और श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ बंटाने लगे। ये दोनों लन्दन से अपने संदेश तथा साहित्य गणेश सावरकर को भेजा करते थे, उन्होंने 1909 में गणेश सावरकर के नाम एक पार्सल भेजा, जिसमें पिस्तैंले थी, परन्तु इसके भारत पहुँचने से पूर्व ही 2 मार्च, 1909 ई. को गणेश सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया था, क्योंकि उन पर सम्राट के विरूद्ध युद्ध छेड़ने का अभियोग था। बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा गणेश सावरकर को 9 जून को आजीवन देश निर्वासन का दण्ड दिया गया। इसी वर्ष वीर सावरकर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इसी बीच गणेश सावरकर पर अभियोग चलाने वाले नासिक के डिप्टी कलेक्टर मि. जैक्सन को अभिनव भारत के एक सदस्य अनन्त कनहड़े ने 12 दिसम्बर, 1909 ई. को गोली से उड़ा दिया। इस कार्य के लिए 70 व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया गया तथा 3 को प्राणदण्ड मिला। गुजरात भी क्रांतिकारियों के प्रभाव से अछूता नहीं रहा था। नवम्बर, 1909 ई. में अहमदाबाद में लार्ड तथा लेण्डी मिण्टो की गाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया गया।

पंजाब में क्रांतिकारी आन्दोलन
पंजाब के क्रांतिकारी आन्दोलन के प्राणस्रोत सरदार अजीतसिंह थे। वे एक सच्चे देशभक्त होने के साथ-साथ उच्चकोटि के वक्ता तथा संगठनकर्ता भी थे। 1907 ई. में सरदार अजीतसिंह, भाई परमान्द तथा लाला हरदयाल ने क्रांतिकारियों का संगठन किया और उन्होंने पंजाब सरकार के कोलोनाइजेशन एक्ट का विरोध किया। सरकार ने इस एक्ट के कारण लाहौर तथा रावलपिण्डी में कुछ उपद्रव हुए। सत्यापल और प्रबोध चन्द्र के शब्दों में, सरदार अजीतसिंह, सूफी अम्बा प्रसाद, लाला पिण्डीदास एवं लालचन्द्र फलक ने पंजाब के लोगों में जाग्रति लाने के लिए वही कार्य किया, जो बंगाल में बंकिमचन्द्र चटर्जी तथा अन्य बंगाली लेखकों ने किया। पंजाब में लिफ्टिनेट गवर्नर सर डेनियाल इबैटसन ने घबराकर ब्रिटिश सरकार को लिखा था कि, यदि इस बढ़ती हुई राजनीतिक अशान्ति को रोकने का प्रयत्न न किया गया, तो सम्भव है कि पंजाब में फिर से 1857 ई. वाली घटनाएँ घटे। इन प्रकार 1909 में सरकार ने अपनी भूमि सम्बन्धी नीति में जनता की इच्छानुसार परिवर्तन कर दिया, जिससे पंजाब में शान्ति स्थापित हो गई और क्रांतिकारी एक प्रकार से बन्द हो गए।

मद्रास एवं राजस्थान में क्रांतिकारी आन्दोलन
मद्रास तथा राजस्थान में भी क्रांतिकारी आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। 1907 में विपिनचन्द्र पाल ने मद्रास का दौरा किया। उनके राष्ट्रवादी विचारों का मद्रास के नवयुवकों पर काफी प्रभाव पड़ा। फलतः सरकार ने विपिनचन्द्र पाल को बन्दी बना लिया तथा उन पर अभियोग चलाकर उन्हें 6 मास के कारावास का दण्ड दिया गया। इससे मद्रास के नवयुवकों में बड़ी उत्तेजना फैली। पाल के जेल से मुक्त होने पर उनका स्वागत करने हेतु एक सभा का आयोजन किया गया, परन्तु सरकार ने सभा के आयोजकों को बन्दी बना लिया। इसकी प्रतिक्रिया में टिवेनली में उपद्रव हुआ, जिसके कारण कई सरकारी भवनों को आग लगा दी गई। दफ्तरों के फर्नीचर और रिकार्ड भी जला दिए गए। सरकार ने दमन चक्र चलाते हुए आन्दोलनकारी नेताओं तता पत्र सम्पादकों को बन्दी बना लिया तथा उन पर मुकदमा चलाया। परिणामस्वरूप प्रतिशोध के रूप में क्रांतिकारियों ने 1911 ई. में टिवेनली के मजिस्ट्रेट को गोली मारकर उसकी हत्या कर दी। राजस्थान में क्रांतिकारी आन्दोलन का नेतृत्व अर्जन लाल सेठी, भारत केसरी सिंह तथा राव गोपाल ने किया।

सरकार की दमन, सुधार तथा फूट की नीति
भारत
में क्रांतिकारियों की बढ़ती हुई गतिविधियों को रोकने के लिए सरकार ने 1911 ई. में राजद्रोह सभा अधिनियम पारित किया, जिसका मुख्य उद्देश्य विरोधी सभाओं की रोकथाम करना था। लाला लाजपतराय और सरदार अजीतसिंह को गिरफ्तार कर बर्मा भेज दिया गया। फिर भी सरकार को क्रांतिकारियों को कुचलने में विशेष सफलता नहीं मिली। 1912 ई. में जब लार्ड हार्डिंग भारत के वायसराय बनकर आए, तो उनके सम्मान में 23 दिसम्बर, 1919 को दिल्ली में एक भव्य जुलूस निकाला गया। जब जुलूस चाँदनी चौक में से गुजर रहा था, तब रास बिहारी बोस ने वायसराय का घमण्ड चूर करने के लिए उस पर बम फैंका। इस घटना में वायसराय का अंगरक्षक घटनास्थल पर ही मारा गया और वायसराय के सिर पर चोट आ जाने के कारण वह बेहोश हो गए। इस

घटना के सम्बन्ध में अवध बिहारी सहित 13 व्यक्ति बन्दी बनाए गए। फाँसी देने से पूर्व ब्रिटिश अधिकारी ने अवध बिहारी को उनकी अन्तिम इच्छा के बार में पूछा, तो उन्होंने कहा कि, अंग्रेजी राज्य का अन्त हो। इस पर ब्रिटिश अधिकारी ने कहा, अब तो शान्ति से मरिए। इसके उत्तर में अवध बिहारी ने कहा कि, शान्ति कैसी? मैं तो यह चाहता हूँ कि आग भड़के और चारों तरफ भड़कें, जिससे तु भी जलो और हम भी जलें, हमारी दासता भी जले और अन्त में कुन्दन (सोना) बनकर रह जाए। रास बिहारी बोस बड़ी सफाई से बचकर निकल गए। अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी पुलिस के हाथ नहीं आए। सारांश यह कि सरकार ने क्रांतिकारियों के दमन का हर-सम्भव प्रयास किया, परन्तु उसे विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई।
सरकार ने दमन नीति के साथ-साथ उदारवादी तत्त्वों को सन्तुष्ट करने का प्रयास किया। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1909 ई. में एक अधिनियम पारित किया, जिसके द्वारा भारतियों को कुछ रियायतें दी गईं। परन्तु यह अधिनियम इतना त्रुटिपूर्ण था कि उदारवादी नेता गोपालकृष्ण ने इसकी कटु आलोचना की। अतः जब सरकार का यह प्रयास भी असफल रहा, तो उसने हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने की नीति अपनाई। इसमें उसे कुछ सीमा तक सफलता अवश्य प्राप्त हुई। 1909 ई. के अधियनि में मुसलमानों को पृथक् निर्वाचन का अधिकार देकर साम्प्रदायिकता के बीज बो दिए गए थे, लेकिन उसकी यह मित्रता केवल 2 वर्ष के बाद क्षीण होने लगी और लीग ने फिर से कांग्रेस की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया।

विदेशों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
सिर्फ भारत के अन्दर ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भारतीय क्रांतिकारियों ने अपने प्रयत्न जारी रखे। विदेशों में इनकी मुख्य शाखाएँ लन्दन, पेरिस तथा अमेरिका के सेनफ्रांसिसको और न्यूर्याक नगर में थी। भारत से बाहर क्रांतिकारी कार्य करने वाले भारतीयों में श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, मैडमकामा, लाला हरदयाल एवं मदन लाल धींगड़ा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1905 ई. में लन्दन में इण्डियन इंग्लैण्ड होमरूल सोसायटी की स्थापना की। उन्होंने इण्डियन सोशियोलोजिस्ट नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन भी आरम्भ किया, जिसमें क्रांतिकारी लेख प्रकाशित होते थे। इण्डियन इंग्लैण्ड होमरूल सोसायटी कुछ ही समय में आतंकवादियों का केन्द्र बन गई और इसकी सहायता से 1906 ई. में वीर विनायक दामोदर सावरकर इंग्लैण्ड पहुँचे। इण्डियन हाऊस इसका प्रधान कार्यालय था। 1909 ई. में वे इण्डिया हाऊस के नेता बन गए। वीर सावरकर ने कृष्ण जी वर्मा से मिलकर महाराष्ट्र के क्रांतिकारियों के कार्य में सहायता प्रदान करने के लिए 20 पिस्तौलें भेजीं। इस समय वीर सावरकर ने 1857 का स्वन्त्रता संग्राम नामक एक पुस्तक लिखी। उन्होंने इटली के देशभक्त मैजिनी की आत्म-कथा का मराठी भाषा में अनुवाद किया। इसके पश्चात् उसे भारत में छपने के लिए भेजा, ताकि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रह तो सके। 1909 में ब्रिटिश सरकार ने वीर सावरकर के छोटे भाई गणेश सावरकर को महाराष्ट्र में क्रांतिकारी दल को संगठित करने के अपराध में आजीवन कारावास की सजा दी गई। जब यह समाचार इंग्लैण्ड के क्रांतिकारियों को मिला, तो उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेने का निश्चय किया। होमरूल सोसायटी के एस सदस्य मदन लाल धीगड़ा ने 1 जुलाई, 1909 ई. को भारत मन्त्री कार्यालय के ए.डी.सी. सर फ्रैसिस कर्जन को लन्दन के इम्पीरियल इंस्टीट्यूट में गोली मार दी, क्योंकि गणेश सावरकर को सजा दिलवाने में उसका काफी हाथ था। इस अपराध के लिए मदन लाल धींगड़ा को प्राण दण्ड मिला और होमरूल सोसायटी को छिन्न-भिन्न कर दिया।

वीर सावरकर ने अपने छोटे भाई गणेश सावरकर के आजीवन कारावास का समाचार सुनकर अंग्रेजों से बदला लेने के उद्देश्य से लन्दन में कुछ मारपीट की। अतः लन्दन पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करके जहाज से बम्बई भजे दिया। वीर सावरकर ने रास्त में ही जहाज से निकलकर समुद्र में कुद पड़े और तैरते हुए एक फ्रांसीसी बन्दरगाह मसेंलीज जा पहुँचे। वहा उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय कानून के आधार पर सुरक्षा की माँग की, परन्तु फ्रांस के मल्लाहों ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के सुपुर्द कर दिया। भारत पहुँच ने पर सरकार ने वीर सावरकर को भी आजीवन कारावास की सजा सुना दी। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैण्ड के अतिरिक्त जर्मनी तथा फ्रांस में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का प्रचार किया। पेरिस की मैडम कामाने भी श्यामजी कृष्ण वर्मा की क्रांतिकारी गतिविधियों को सक्रिय समर्थन दिया। वे वहाँ वन्दे मातरम् का सम्पादन करती थीं।
इसी प्रकार, अमेरिका में एक प्रतिभाशाली युवक लाला हरदयाल ने अमेरिका और कैनेडा में क्रांतिकारी भारतीयों को संगठित किया और 25 मार्च, 1913 ई. को अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को (केलीफोर्निया) नामक स्थान पर गदर पार्टी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य अंग्रेजी जुए से भारत को स्वतन्त्र करना था। इसके अतिरिक्त उन्होंने 1913 ई. में सेन फ्रांसिस्को में गदर नामक साप्ताहिक समाचार-पत्र प्रकाशित करना प्रारम्भ किया, जिसमें क्रांतिकारी लेख छपते थे। परिणामस्वरूप लाला हरदयाल को गिरफ्तार कर लिया गया और फिर हजार रूपए की जमानत पर उन्हें रिहा कर दिया गया। अपने मित्रों की सलाह पर लाला हरदयाल अमेरिका छोड़कर स्विट्जरलैण्ड चले गए। इसके अतिरिक्त इण्डो अमेरिकन एसोसियेशन भी इस दिशा में सक्रिय था। यह संस्था फ्री हिन्दुस्तान नामक पत्र भी प्रकाशित करती थी।

9. भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उदय

एक ही देश में विभिन्न और प्रमुख सम्प्रदायों के बीच अलगाव और द्वेष की राजनीति को साम्प्रदायिक राजनीति के नाम से पुकारा जाता है। भारत में 19वीं शताब्दी में साम्प्रदायिक राजनीति का जन्म हुआ। इस साम्प्रदायिक राजनीति के अन्तर्गत पहले मुस्लिम साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ और कालान्तर में मुस्लि साम्प्रदायिकता की प्रतिक्रिया में हिन्दू साम्प्रदायिकता का उदय हुआ।
भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता भारतीय जन-जीवन की उपज है या ब्रिटिश शासन की नीति का परिणाम। इस विषय पर यूरोपियन इतिहासकारों एवं भारतीय इतिहासकारों ने अलग-अलग मत व्यक्त किए हैं। इस सम्बन्ध में क्रूपलैण्ड का कहना है कि, ब्रिटेन ने न तो साम्प्रदायिकता की यह आग सुलगाई और न ही इसे जलाये रखने का दावनी कार्य किया। लेकिन वास्तविकता में कूपलैण्ड के उपर्युक्त विचार के स्थान पर द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के अवसर पर गाँधी ने जो विचार व्यक्त किये थे, वे सत्य के अधिक निकट प्रतीत होते हैं। उन्होंने कहा था कि, भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या ब्रिटिश शासन की समकालीन है।

यह कहना तो ठीक नहीं है कि साम्प्रदायिकता के उदय और विकास का सारा दोष अंग्रेजों का ही था, परन्तु इतना अवश्य मानना पड़ता है कि भारत में साम्प्रदायिकता के उदय एवं विकास के लिए अंग्रेज ही मुख्य रूप से उत्तरदायी थे। वस्तुतः 20वीं शताब्दी में भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का बीजारोपण ब्रिटिश कूटनीतिज्ञता की एक अनोखी देन थी। ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व कई सदियों तक भारत पर मुसलमानों का आधिपत्य था। बाहर के अधिकांश मुसलमान भारत में ही बस गये थे। ऐसे मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है, जिनके पूर्वज बाहर से आये थे। परन्तु अधिकांश मुसलमान इस्लाम धर्म को स्वीकार करने वाले हिन्दुओं की सन्तान हैं। इसके अतिरिक्त शताब्दियों तक एक-दूसरे के साथ रहने के कारण दोनों सम्प्रदायों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों में काफी समानता आ गई तथा विभिन्न धर्मों के होते हुए भी काफी एकता स्थापित हो गयी थी। यहाँ तक कि 1857 के स्वन्त्रता संग्राम में दोनों सम्प्रदायों के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष किया था।

यद्यपि कभी-कभी हिन्दुओं तथा मुसलमानों में मन-मुटाव भी हो जाता था, फिर भी दोनों ने एक-दूसरे के साथ सहोयग करने का एक अच्छा आदर्श स्थापित कर दिया था, लेकिन अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति ने राष्ट्रीयता के इस वेगवान प्रवाह को खण्डित कर दिया। मेहता एवं पटवर्धन ने इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि, अपने समस्त विख्यात् कौशल के स्थान जिसने कि अभी हाल तक उनकी कूटनीति को संसार में सर्वाधिक शक्तिशाली बनाये रखा था, अंग्रेज शाकों ने अपने आपको हिन्दू और मुसलमानों के मध्य खड़ा करके ऐसे सम्प्रदायिक त्रिभुज की रचना का निश्चय किया, जिसके आधार वे स्वयं रहे।

अंग्रेजो की फूट डालो और राज्य करो की नीति के विभिन्न चरण

आंग्ल-हिन्दू सहयोग का युग-
अंग्रेजों ने आगमन से पूर्व भारत में मुसलमानों का शासन था। देश के शासन और सार्वजनिक जीवन में मुसलम्sाानों का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण था, परन्तु जब धीरे-धीरे अंग्रेजों ने भारत पर अधिकार कर लिया, तो मुस्लिम शासक उनसे नाराज हो गये और अंग्रेजों ने भी मुसलमानों को अपना मुख्य शत्रु समझा। अतः अंग्रेजों ने मुसलमानों के हर सम्भव दमन का निश्चय किया और हिन्दुओं का पक्ष लेना शुरू किया। वे यह जानते थे कि हमने मुसलमानों का शासन छीना है, अतः मुस्लिम अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे और हमारे साथ कभी भी सहयोग नहीं करेंगे। इसके अतिरिक्त भारत में कम्पनी शासन की जड़े मजबूत करने के लिए भी भूतपूर्व शासक जाति (मुसलमानों) को रास्ते से हटाना बहुत आवश्यक था। इसलिए एक ओर उन्होंने हिन्दुओं को प्रोतसाहन दिया, तो दूसरी ओर हर सम्भव उपाय से मुसलमानों का दमन करने की चेष्टा की। भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन का प्रथम युग आंग्ल-हिन्दू सहयोग का युग था। अंग्रेजों की मुस्लिम विरोधी एवं हिन्दु पक्षपाती नीति की पुष्टि लार्ड एलनबर्ग ने इस कथन से होती है, मुसलमान जाति मौलिक रूप से हमारे विरूद्ध है और इसलिए हमारी सच्ची नीति हिन्दुओं को प्रसन्न रखने की है।

ब्रिटिश सरकार का मुस्लिम विरोधी रूख-
ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम विरोधी रूख ने मुसलमानों के आर्थिक और सांस्कृतिक अधःपतन का पथ प्रशस्त किया। बंगाल में लार्ड कार्नवालिस के स्थायि भूमि बन्दोबस्त का मुस्लिम समुदाय पर घातक प्रभाव पड़ा। इससे मुसलमानों की आर्थिक स्थिति तीव्रगति से बिगड़ गई। स्थायी बन्दोबस्त के विषय में मि. जेम्स किनेने लिखते हैं कि, इस बन्दोबस्त ने हिन्दू उगाही करने वालों को ऊपर उठाकर जमींदार बना दिया। मुसलमानों के राज्य में तो सम्पत्ति मुसलमानों को मिलती, अब हिन्दुओं को उसी सम्पत्ति को एकत्रित करने का अधिकार दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को उच्च पदों से हटाना शुरू कर दिया। ऊँचे पद यूरोपियनों को प्रदान किये गये और छोटे पद हिन्दुओं को, परन्तु मुसलमानों को सरकारी पदों से अलग रखा गया। इस प्रकार, उनके लिए सरकारी नौकरियों के द्वार बन्द हो गये। उनकी कला, संस्कृति और उद्योग-धंधो को नष्ट करने का अभियान चलाया गया, सेना में उनकी भर्ती कम कर दी गई। इससे उनकी गरीबी में और भी तीव्र गति से वृद्धि होने लगी। सभी चुनावों में मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दुओं के ऊपर अधिक अनुग्रह प्रदर्शित किया जाता था। इस सम्बन्ध में नोमन ने आंकड़े देकर बताया है कि, 1871 में बंगाल, में 2141 राजपत्रित पद थे, इनमें 1338 पर यूरोपियन नियुक्त थे, 711 पर हिन्दू और मुसलमान केवल 92 पर। मुसलमानों की आर्थिक स्थिति के बारे में 1871 ई. में सर विलियम हण्टर ने लिखा था, आर्थिक दृष्टि से भारतीय मुसलमान ब्रिटिश शासन में एक विनष्ट जाती है। 175 वर्ष पूर्व अच्छे घराने में उत्पन्न मुसलमान का गरीब होना असम्भव था, अब उसका अमीर बने रहना असम्भव है।

अंग्रेजों ने नवीन शिक्षा पद्धति से मुसलमानों को बिलकुल अलग रखा, जिसने उन्हें आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बहुत पीछे धकेल दिया। मेहता एण्ड पटवर्धन के शब्दों में, मुसलमानों के साथ सबसे अधिक अन्याय शिक्षा के मामले में किया गया। 1883 ई. में अंग्रेजों ने अरबी और फारसी के स्थान पर अंग्रेजी को अदालती भाषा बना दिया। इस परिवर्तन का भी मुसलमानों के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। नये स्कूलों और कॉलेजों में भी परम्परागत भारतीय शिक्षा प्रणाली को सब प्रकार की सहायता से वंचित कर दिया। ब्रिटिश सरकार की इस नीति का परिणाम यह हुआ कि परम्परागत शिक्षण व्यवस्था लगभग पूर्णयता समाप्त हो गयी। नवीन शिक्षा नीति के कारण मुसलमान बौद्धिक व्यवसाय में पिछड़ गये और उनमें राजनीतिक चेतना का विकास नहीं हो सका। इसके विरीत, हिन्दुओं ने नवीन शिक्षा नीति को अपनाया। इसी कारण से सभी बौद्धिक व्यवसायों में मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दु बहुत आगे बढ़ गये। बोवेन के शब्दों में, 1852 और 1868 के बीच में 240 देशी वकीलों को कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रविष्य किया गया, इसमें मुसलमान केवल एक ही था। संक्षेप में, ब्रिटिश सरकार की नीति के कारण मुसलमानों का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अत्यधिक पतन हो गया। मि. नोमन के शब्दों में, सारांश यह है कि शिक्षण नीति के कारण मुसलमानों में बेकारी बढ़ी और मुसलमानों के लिए अन्य मार्ग बन्द हो गये। आर्थिक नीति ने भारतीय मुसलमानों को निर्धन बना दिया। सेना में उनकी संख्या बहुत थोड़ी कर दी गयी और हस्तशिल्प को कुचलकर उन्हें असहाय बना दिया गया। 1857 का विद्रोह इन्हीं नीतियों का परिणाम था और उसे कोई मानवीय शक्ति नहीं टाल सकती थी।

वहाबी आन्दोलन और मुस्लिम असंतोष-
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वीं शताब्दी में मुसलमानों के पुनरूत्थान के लिए अरब में एक आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ जिसे वहाबी आन्दोलन कहा जाता है। इस आन्दोलन का उद्देश्य इस्लाम में व्याप्त कुरीतियों को दूर करके उनका शुद्धिकरण करना और मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता की भावना उत्पन्न करना था। भारतवर्ष में भी धीरे-धीरे इस आन्दोलन का प्रसार होने लगा। भारत में इस आन्दोलन का सूत्रपात सईद अहमद बरेलवी ने 1820 में मक्का की यात्रा से लौटने पर किया। ब्रिटिश शासन की नीति के प्रति मुसलमानों में घोर असंतोष व्याप्त था। इस आन्दोलन ने मुस्लिम जनता को झकझोर दिया और सम्परूण देश में उत्साह की एक तरंग फैल गयी। वहाबी नेताओं ने दरिद्र तथा दलित मुस्लिम जनता के प्रतिरोध को संगठित किया। उनके प्रयासों से बंगाल में कई कृषकों ने विद्रोह कर दिये। अंग्रेजों ने इस आन्दोलन को पूर्ण शक्ति के साथ दमन करने का प्रयत्न किया। इसी दौरान भारत में 1857 का विद्रोह हुआ। अंग्रेज सरकार ने 1857 की क्रान्ति के लिए वहाबी आन्दोलन का उत्तरदायी ठहराया। सर जॉन के.पी. के अनुसार, विद्रोह के मुख्य चालक मुसलमान थे। एच.सी. ब्राउन के अनुसार, ये मुसलमान, निःसन्देह वहाबी थे। 1857 के विद्रोह के बाद वहाबी लोगों ने सीमा प्रदेश में अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष जारी रखा और उन्हें सारे देश से जन और धन की सहायता मिलती रही। डॉ. हण्टर ने लिखा है, वहाबी आन्दोलन आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा आन्दोलन था।


1857 का विद्रोह एवं भारतीय मुसलमान

यद्यपि 1857 के विद्रोह में, महान् मुगल और पेशवा, हिन्दू और मुसलमान समान रूप से अपने आपसी झगड़ों को भूल गये और अपने साम्राज्य शत्रु के विरूद्ध कन्धे से कन्धा मिलाकर भिड़े। परन्तु विद्रोह का नेतृत्व मुगल बादशाह बहादुरशाह ने किया था, इसलिए अंग्रेजों ने इसे एक राष्ट्रीय विद्रोह न मानकर एक मुस्लि मविद्रोह माना, जिसके माध्यम से मुसलमानों ने सत्ता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया था। दिल्ली और अवध दोनों के शासक मुसलमान थे और विद्रोहियों ने उन्हें अपना नेता बनाया था, इसलिए ब्रिटिश शासकों ने मुसलमानों को खास तौर पर दुश्मन मानना प्रारम्भ कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति और अधिक कठोर नीति अपनाई। सरकार ने मुसलमानों को राजकीय पदों से वंचित करके और उन्हें शिक्षा तथा आर्थिक क्षेत्रों में भी लताड़कर बुरी तरह दण्डित किया। यद्यपि 1858 की घोषणा में कहा गया था कि सार्वजनिक पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सरकार, जाति, धर्म आदि को भेदभाव नहीं रखेगी, तथापि इस घोषणा को मुसलमानों पर लागू नहीं किया गया। संक्षेप में, इस विद्रोह के बाद भी कम से कम एक दशक तक सरकारी नीति मुसलमानों के विरूद्ध और हिन्दूओं के पक्ष में रही।

1870 के पश्चात् ब्रिटिश नीति में परिवर्तन

1857 के कुछ वर्षों बाद ही मुसलमानों के प्रति अंग्रेजी की नीति में परिवर्तन होने लगा। ब्रिटिश सरकार की मुस्लिम विरोधी नीति के कारण मुसलमानों की आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में हालत काफी दयनीय हो गयी थी। वे पूर्णतः निराश तथा निरूत्साहित हो चुके थे। अतः अंग्रेजों को मुसलमानों की ओर से किसी संकट का भय नही ं था। अंग्रेजों ने महसूस किया कि, गदर राजसत्ता के हेतु अन्तिम लड़ा ई थी, जिसे पूर्णतः कुचल दिया गया था। वे (मुसलमान) इतने कमजोर थे कि अब विद्रोह के काबिल नहीं रह गये थे, लेकिन फिर भी उनका कुछ प्रभाव शेष था। अतः उनका सहयोग प्राप्त करना अधिक श्रेष्टकर होगा, खासकर इसलिए की पश्चिम सभ्यता से प्रभावित पूँजीपति मध्यम वर्ग के उद्धभव से राष्ट्रवाद को नया खतरा पैदा हो गया था। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार त्याग कर उनसे मित्रता स्थापित कनरा अपने लिए अधिक उपयोगी समझा। इसके अतिरिक्त पूँजीवादी मध्यम वर्ग में मुख्यतः पाश्चात्य शिक्षा एवं अन्य कारणों से हिन्दुओं में, राष्ट्रीय चेतना का उद्भव हो रहा था। कुछ अंग्रेज इस बात से सशंकित हो उठे कि हिन्दुओं की राष्ट्रीय जागृति उनके लिए खतरा नहीं बन जाये। उनको यह भी आशंका थी कि हिन्दू और मुसलमान राष्ट्रीय हित के नाम पर एक हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में अनेक ब्रिटिश अधिकारियों ने ऐंग्लो-मुस्लिम हितों की एकरूपता और एंग्लो-मुस्लि मित्रता की आवश्यकता पर बल दिया। इन अधिकारियों में सर विलियम हण्टर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने अपनी पुस्तक दी इण्डियन मुसलमान में ऐंग्लो-मुस्लिम मित्रता की आवश्यकता पर बल दिया।
अंग्रेजों ने मुसलमानों की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाना शुरू किया। मुसलमानों की ओर से भी इसका सकारात्मक उत्तर मिला। भारत में आंग्ल-मुस्लिम मित्रता की दिशा में प्रसिद्ध मुस्लिम नेता सर सय्यद अहमद खाँ और अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य मि. बैक ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। संक्षेप में, 1870 के बाद ब्रिटिश नीति में परिवर्तन हुआ और आंग्ल मुस्लिम मित्रता की नींव पड़ी। अंग्रेजों का मुसलमानों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण तथा हिन्दुओं के प्रति विरोधी रुख अन्त तक बना रहा।

सर सैय्यद अहमद खाँ का अलीगढ़ आन्दोलन
सर सैय्यद अहमद खां ने अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन का नेतृत्व किया। उनका जन्म 1816 ई. में दिल्ली में एक उच्च मुस्लिम घराने में हुआ था। 20 वर्ष की आयु में ही वे सरकारी सेवा में आ गये थे। 1857 के विद्रोह के समय उन्होंने अंग्रेजों की सहायता की थी। उनके कार्यों से प्रसन्न होकर कम्पनी ने उन्हें सितार-ए-हिन्द की उपाधि से सुशोभित किया और जज के पद पर नियुक्त किया।
विद्रोह के बाद सर सैय्यद अहमद ने अपने सह-धर्मावलम्बियों के मस्तक से राजद्रोह का कलंक मिटाने के लिए अथक् प्रयास किये। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने भारतीय विद्रोह के कारण नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मुसलमानों को ईसाइयों तथा यहूदियों के साथ भोजन करने की आज्ञा है। उन्होंने बाइबल पर एक टीका लिखी और उसके माध्यम से मुसलमानों और इसाइयों में मेल उत्पन्न करने का प्रयास किया। उन्होंने टीका में इस बात पर विशेष बल दिया कि, मुसलमानों के सच्चे मित्र तो केवल ईसाई हो सकते हैं। इस पुस्तक में कुछ उदाहरण देकर उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि मुसलमानों की निष्ठा ब्रिटिश सरकार के प्रति है। विद्रोह के बाद उन्होने ईसाइयों और मुसलमानों के बीच धार्मिक सामीप्य लाने का कार्य किया। जस्टिस शाहदीन ने लिखा है कि, सर सैय्यद अहम खाँ को यह पता था कि जब तक मुसलमानों और ईसाइयों में धार्मिक वैर है, तब तक भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश राज के प्रति भक्ति पैदा नहीं होगी और उस समय तक ईसाई शासक भी उन्हें राज भक्त नहीं समझेंगे। इसलिए उसने ईसाईयों और मुसलमानों में धार्मिक मेल उत्पन्न कराने का यत्न किया।

सर सैय्यद अहमद खाँ ने अपने जीवन के दो प्रमुख उद्देश्य बनाये। प्रथम, मुसलमानों के अंग्रेजों के सम्बन्ध ठीक करना एवं, द्वितीय, मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना, ताकि उनका पिछड़ापन दूर हो सके एवं वे पश्चिमी सभ्यता के अधिक से अधिक सम्पर्क में आ सकें। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सर सैय्यद ने मुसलमानों को समझाया कि सरकार के प्रति वफादार करने से ही उनके हितों की पूर्ति हो सकते है। उन्होंने अंग्रेजों से भी कहा कि, मुसलमान अंग्रेजी शासन के विरूद्ध नहीं है। यदि सरकार उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करे, तो वे उसके प्रति वफादर हो जायेंगे। सैय्यद ने भारत के वफादार मुसलमान नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। उन्होंने मुसलमानों तथा अंग्रेजों के मध्य सद्भावना उत्पन्न करने के लिए कई लेख प्रकाशित किये। शाहदीन के शब्दों में, सर सैय्यद अहमद खाँ ने मुसलमानों तथा अंग्रेजों के बीच मित्रता की कोशिश की, क्योंकि वे इस बात सेे अवगत थे कि जब तक दोनों सम्प्रदायों में धार्मिक विद्वेष, शंका और अविश्वास बना रहेगा, तब तक क्रिश्चियन शासक उन्हें वफादार प्रजा नहीं समझेंगे और फलतः मुसलमानों को उनकी सुरक्षा और संरक्षण प्राप्त नहीं होगा।

सर सैय्यद ने लेखों से मुसलमानों की राजभक्ति के बारे में सन्देह के जो बादल थे, वे कुछ ही समय में दूर हो गये। दूसरी ओर, अंग्रेजों की फूट डालो और राज्य करो की नीति अपनाई। इसलिए उन्होंने मुसलमानों के प्रति सद्भावना की नीति अपनाई। उन्होंने हिन्दुओं की बढ़ती हुई राष्ट्रीयता के विरूद्ध मुस्लिम साम्प्रदायिकता का प्रयोग किया। इस कारण, सर सैय्यद अहमद खां को अपने प्रमुख उद्देश्य में सफलता मिलती गयी। अपने दूसरे उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने 1864 ई. में गाजीपुर में एक अंग्रेजी शिक्षा का स्कूल स्थापित किया। एक वर्ष बाद एक विज्ञान समाज की स्थापना की, जिसका प्रमुख कार्य अंग्रेजी की पुस्तकों का उर्दू भाषा में अनुवाद करना था। 1870 ई. में उन्होंने तहजीब-उल-अख-लाख नामक समाचार पत्र को प्रकाशित करना प्रारम्भ किया, ताकि मुस्लिम जनता तक उनके विचार पहुँच सके।

वे अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक काल में राजभक्त होने के साथ-साथ कट्टर राष्ट्रवादी थे। वे नौकरशाही की कठोर आलोचना करने से नहीं डरते थे और भारतीयों के प्रति ब्रिटिश अधिकारियों के दुर्व्यवहार की कटु निन्दा करते थे। उन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया। 1884 ई. में पंजाब भ्रमण के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए सर सैय्यद अहमद खाँ ने कहा था कि, हमें (हिन्दू और मुसलमानों को) एक मन एक प्राण हो जाना चाहिए और मिल - झुलकर कार्य करना चाहिए। यदि हम संयुक्त है, तो एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक सहायक हो सकते हैं। यदि नहीं तो एक का दूसरे के विरूद्ध प्रभाव दोनों का ही पूर्णतः पतन और विनाश कर देगा। इसी प्रकार के विचार उन्होंने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में भाषण देते समय व्यक्त किये। उन्होंने कहा था कि, हिन्दू शब्द में हिन्दू और मुसलमाना दोनों आ जाते हैं, क्योंकि दोनों ही हिन्दुस्तान के निवासी हैं। एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि, हिन्दू एवं मुसल्मान शब्द को केवल धार्मिक विभेद को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों ही एक ही राष्ट्र हिन्दुस्तान के निवासी हैं।

सर सैय्यद अहमद के उपरोक्त राष्ट्रवादी विचारो के आधार पर लोगों को यह आशा थी कि वे अन्य राष्ट्रवादी नेताओं के साथ मिल-जूलकर कार्य करेंगे, लेकिन दुर्भाग्यवश उनके साम्प्रदायिक प्रेम के सामने उनका राष्ट्र प्रेम तुच्छ पड़ गया। 1885 में जब कांग्रेस की स्थापना हुई, तो उन्होंने कांग्रेस को सहयोग देने के स्थान पर उसका विरोध किया। उनमें यह विश्वास पनपता गया कि, भारत के लिए स्वराज्य की कल्पना बिलकुल अव्यावहारिक तथा हानिकारक है तथा मुसलमानों की सुरक्षा और दृढ़ता (अलीगढ़ के बुनियादी विचार) मुसलमानों और अंग्रेजों के मेल से ही होगी। कहा जाता है कि, सर सैय्यद की राजनीति में परिवर्तन का दायित्व अलीगढ़ कॉलेज के तत्कालीन प्रिन्सिपाल मि. बैक की कूटनीति को था। मि. बैक सर सैय्यद पर इतने हावी हो गये कि उनकी राष्ट्रीयता साम्प्रदायिकात में परिवर्तित हो गयी और वे सरकार के खिलौने की भाँति आचरण करने लगे।
अलीगढ़ कॉलेज का अंग्रेज प्रिन्सिपल मि. बैक ब्रिटिश साम्राज्य का सच्चा सेवक था। वह हिन्दु-मुस्लिम एकता का कटु विरोधी था। उसने सर सैय्यद को समझाया कि आंग्ल-मुस्लिम गठबन्धन से मुसलमानों का उत्थान होगा और राष्ट्रवादियों के साथ मिलने से मुसलमानों के दुःख और कष्ट बहुत अधिक बढ़ जायेंगे। मि. बैक ने सर सैय्यद को विश्वास दिलाया कि, ऐंग्लो-मुस्लिम समझौते से मुस्लिम जाति की व्यवस्था में सुधार होगा, नहीं तो राष्ट्रीय विचारधारा उनके लिए पुनः कष्ट, परिश्रम तथा आँसुओं का मार्ग खोल देगी। उन्हें यह विश्वास करना पड़ा कि सरकार का समर्थन करना ही उनकी जाति के लिए सुरक्षा प्राप्त करने का सबसे निश्चित मार्ग है। परिणामस्वरूप, उनके प्रभाव का प्रयोग मुसलमानों को विशेषकर उत्तर भारत के मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने के लिए किया गया।

बैक ने कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय संगठन के विरोध में मुसलमानों को उभारने का सफल प्रयास किया। उसने अपने विचार इस ढंग से रखे कि मुसलमानों को यह विश्वास हो जाये कि कांग्रेस विशुद्ध रूप से हिन्दुओं की संस्था है और अंग्रेज मुसलमानों के सच्चे हितैषी है। उन्होंने अपने लेख में इस प्रकार लिखा, कांग्रेस का उद्देश्य है कि देश की राजनीतिक प्रभुता अंग्रेजों के हाथ से हिन्दुओं के हाथ में आ जाये। मुसलमान इन मांगों से कोई सहानुभूति नहीं रख सकते थे। अपने समान हित के कारण मुसलमानों तथा अंग्रेजों के लिए यह अपेक्षित है कि वे मिलकर कांग्रेस के कार्यों का विरोध करें। इसलिए हम शासन के प्रति राज भक्ति तथा ऐंग्लो-मुस्लिम सहयोग के समर्थ हैं। 1893 में मुस्लिम सुरक्षा-संस्था का संगठन किया गया, जिसमें बैंक भी एक मंत्री था। इस संस्था का उद्देश्य मुसलमानों को कांग्रेस में सम्मिलित होने से रोकना था। बैक ने इस प्रकार लिखा, कांग्रेस उद्देस्य देश के राजनीतिक नियन्त्रण को अंग्रेजों से हिन्दुओं में हस्तांतरित करना है। मुसलमानों की इन मांगो के साथ किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं हो सकती। मुसलमानों तथा अंग्रेजों के लिए आवश्यक है कि वे इन आन्दोलनकारियों का मुकाबला करने के लिए संगठित हो जायें तथा देश की आवश्यकता तथा बुद्धि के प्रतिकूल प्रजातन्त्रात्मक सरकार के जारी करने के सम्बन्ध में रोकथाम करें। इसलिए हम सरकार के प्रति वफादारी तथा अंग्रेजों व मुसलमानों के संगठित होने का समर्थन करते हैं। उसने आगे लिखा, भारत में संसदीय प्रणाली बहुत अनुपयुक्त है और यदि उत्तरदायी संस्थाएं यहां बनायी गयी, तो वह परीक्षण असफल ही होगा। मुसलमानों को हिन्दू बहुमत के अधीन रहना होगा, जिसे मुसलमान बहुमत नापसंद करेगा और मुझे निश्चय है कि यह आसानी से इसे स्वीकार नहीं करेगा।
मि. बैक के प्रयासों से सर सैय्यद की राष्ट्रीयता साम्प्रदायिकता में परिवर्तित हो गयी। अब वे अंग्रेज सरकार के भक्त हो गये और कांग्रेस का विरोध करने लगये। बैक ने इस कार्य के कारण एक दुर्धर्ष साम्राज्य निर्माता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी। उसकी मृत्यु पर 1899 में सर जॉन स्ट्रेची ने लंदन टाइम्स में इस प्रकार लिखा था, यह एक ऐसे अंग्रेज देहावसान है, जो एक देश में साम्राज्य निर्माण कार्यों में सलंग्न था। उसकी मृत्यु अपने कर्तव्य पथ पर खड़े हुए एक सैनिक की भाँति हुई है। मि. बैक ने मुसलमानों को देश की प्रमुख राष्ट्रीय धारा से दूर रखकर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना एवं स्वामित्व में अकथनीय योग दिया था।

सैय्यद ने मुसलमानों को अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा दी। इसी उद्देश्य से उन्होंने 1875 ई. में मोहमडन एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की, जिसने आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का रूप धारण कर लिया। शीघ्र ही यह संस्था मुस्लिम सम्प्रदाय का गढ़ बन गयी। सैय्यद ने 1877 ई. में संस्था में लार्ड लिटन को एक मान-पत्र देते हुए कहा था कि, इस कॉलेज की नींव रखने का मुख्य उद्देश्य यह है कि पूर्वी ज्ञान का पश्चिमी साहित्य तथा विज्ञान से मेल किया जाये, मुसलमानों को ब्रिटिश सम्राट की उपयोगी प्रजा बनाया जाये और उनमें राजभक्ति उत्पन्न की जाये।
सैय्यद ने शुरू से ही मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का प्रयत्न किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने 1887 ई. में मुस्लिम शिक्षा सम्मेलन की स्थापना की। इसके अधिवेशन प्रतिवर्ष उसी समय और उसी नगर में होते थे, जहाँ कांग्रेस करती थी, ताकि मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रखा जा सके। इसके बाद सैय्यद ने बनारस के राजा शिवप्रसाद के सहयोग से एक और संस्था स्थापित की, जिसका नाम देशभक्त एसोसियेशन रखा यह संस्था अत्यन्त प्रतिक्रियावादी थी और कांग्रेस के प्रगतिशील विचारों का हरसम्भव तरीके से विरोध करती थी।
सैय्यद ने मुस्लिम शिक्षा सम्मेलन एवं देशभक्त ऐसोसियेशन नामक दो संस्थाओं की स्थापना की, जिन्हें अपने उद्देश्य में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही थीं। ब्रिटिश सरकार ने 1888 ई. से कांग्रेस का विरोध करना शुरू कर दिया था। प्रिन्सिपल बैक के प्रभाव के अन्तर्गत सर सैय्यद राष्ट्रीय आन्दोलन के विरोधी हो गये थे। एक बार उन्होंने कहा था कि, कांग्रेस का अन्तिम क्ष्य देश पर शासन करना है और यद्यपि वे इस शासन को सभी भारतीयों के नाम से करना चाहते हैं, परन्तु मसुलमान ऐसे शासन में असहाय होंगे, क्योंकि वे सर्वदा अल्पसंख्या में होंगे। इस प्रकार सैय्यद जैसे मुस्लिम नेता भी मुसलमानों को दूर रखने का हर सम्भव प्रयास कर रहे थे, इसके बावजूद भी भारतीय मुसलमानों की काफी संख्या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की समर्थक बनी रही। कांग्रेस का 1891 में नागपुर, 1892 में इलाहाबाद एवं 1893 में लाहौर में अधिवेशन हुआ, जिसमें मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या क्रमश-8.6, 14.5 एवं 7.5 प्रतिशत थी।

मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियण्टल डिफेंस ऐसोसियेशन

सर सैय्यद अहमद खाँ ने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने के लिए मि. बैक के सहयोग से 1893 ई. में मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियण्टल डिफेंस ऐसोसियेशन की स्थापना कर डाली। मि. बैक इस संस्था के सचिव थे। इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों का कांग्रेस में प्रवेश रोकना था।
इस संस्था के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-
(1) अंग्रेजों तथा अंग्रेजी शासन को मुस्लिम विचारों से परिचित करवाना।
(2) मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करना।
(3) ऐसे कार्यों का समर्थन करना, जिससे ब्रिटिश शासन सुदृढ़ हो।
(4) जनता में राजभक्ति की भावना जाग्रत करना एवं
(5) मुसलमानों में राजनीतिक आन्दोलन को फैलने से रोकना।
सर सैय्यद अहमद खां की वृद्धावस्था के कारण मि. बैक शीघ्र ही इस संस्था के कर्त्ताधर्ता बन गये। उन्होंने भारत एवं इंग्लैण्ड में इस संस्था की शाखाओं को सम्बोधित करते हुए जो भाषण दिया, वह अलीगढ़ कॉलेज की मैग्जीन में प्रकाशित हुआ, जो इस प्रकार है-
मुसलमानों की अंग्रेजों के साथ तो मित्रता स्थापित हो सकती है, लेकिन अन्य भारतीय सम्प्रदायों के साथ नहीं। उदाहरणतया शिवाजी तथा गुरू गोविन्दसिंह के अनुयायी औरंगजेब को एक महान् नायक मानने में मुसलमानों के साथ समहत नहीं हो सकते। मुसलमान उस शासन पद्धति को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकते, जिसके अन्तरगत उन्हें बहुमत के अधीन रहना पड़े। वे कांग्रेस की प्रतियोगिता परीक्षा सम्बन्धी मांगों के विरूद्ध हैं।

इस ऐसोसियेशन ने मांग रखी कि-
(1) बिना किसी प्रवेश परीक्षा के मुसलमानों को तकनीकी संस्थाओं में प्रवेश दिया जाये।
(2) स्थानीय स्वशासन संस्थाओं में मुसलमानों को समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाये, एवं
(3) साम्प्रदायिक आधार पर पृथक् निर्वाचन पद्धति लागु की जाये।
यह संस्था इस प्रकार से मुस्लिम लगी की पूर्वागामी संस्था थीं। 1890-93 के वर्षों में, हिन्दू-मुस्लिम दंगों, उर्दू-हिन्दी वाद-विवाद, आर्य समाज आन्दोलन, गो-वध विरोधी आन्दोलन की भी कुछ स्थितियां बनीं। इन घटनाओं का गलत चित्रण करके ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावना को भड़काया। इस प्रकार इन घटनाओं एवं ऐसोसियेशन द्वारा किये गये प्रयत्नों के फलस्वरूप अब कांग्रेस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम होने लगा।

बंगाल का विभाजन (16 अक्टूबर, 1905)

अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों का पूरा लाभ उठाया और फूट डालो और राज्य करो को शासन की नीति का आधार बनाया। लार्ड कर्जन के शासनकाल में ब्रिटिश सरकार ने स्पष्ट रूप से मुस्लिम समर्थक और हिन्दू विरोधी नीति अपनायी और इस नीति के प्रतीक के रूप में 1905 में बंगाल विभाजन किया गया। वास्तविकता यह है कि बंगाल में हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे से अलग करलने तथा राष्ट्रीयता की भावना को कुचलने के उद्देश्य से ही बंगाल का विभाजन किया था, परन्तु लार्ड कर्जन ने पूर्वी बंगाला का दौरा किया और मुसलमानों में यह प्रचार किया कि उनको प्रसन्न करने के लिए ही यह कदम उठाया गया है। इससे मुसलमानों को यह विश्वास हो गया कि ब्रिटिश सरकार, उनके हितों की रक्षक है। अतः वे हिन्दुओ से विमुख होकर राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक् होने लगे।
डॉ. आर. के. बम्बवाल ने लिखा है कि, बंगाल का विभाजन देशवासियों के विरूद्ध देशवासियों के समबल के कार्यक्रम में एक कदम था। इसमें को कोई संदेह नहीं कि कर्जन ने शासन सम्बन्धी सुविधाओं के आधार पर बंगाल विभाजन का औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा की, परन्तु सत्य त ोयह है कि बंगाल विभाजन के मूल में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन की खाई खोद कर राष्ट्रीयता की प्रवाहमान धारा को अवरूद्ध करने की नीति काम कर रही थी। बंगाल विभाजन के विरोध में जबरदस्त आन्दोलन प्रारम्भ हो गया, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों ने भाग लिया। अतः जन-आन्दोलन के कारण ब्रिटिश सरकार को विवश होकर इस विभाजन को 1911 ई. में रद्द करना पड़ा। सारांश यह कि 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में नौकरशाही की चालों से हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट के बीज बोये गये।

ब्रिटिश सरकार को बंगाल विभाजन से हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे से अलग करने में सफलता नहीं मिली, तो उसने फूट डालो और राज्य करो नीति को आधार बनाकर ऐसे कदम उठाये की सोची, जिसेस हिन्दू और मुसलमान सम्पूर्ण भारत में न केवल एक-दूसरे के अलग, वरन् विरोधी हो जायें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु ब्रिटिश सरकार ने 1906 ई. में दो कदम उठाये (1) मुस्लिम प्रतिनिधि मण्डल से साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मांग करवाना, और (2) मुसलमानों के लिए अखिल भारतीय संगठन की स्थापना करवाना, ताकि वह मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रख सकें।

शिमला शिष्टमण्डल और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग

1906 में एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने कि हिन्दुओं और मुसलमानों की फूट को और अधिक बढ़ाया तथा कालान्तर में भारतीय इतिहास को ही परिवर्तित कर दिया। 1906 में भारत सचिव लार्ड मार्ले ने भारत के वायसराय लार्ड मिण्टो को कुछ संवैधानिक सुधार करने की सलाह दी। लार्ड मिण्टो सुधारों के साथ हिन्दुओं तथा मुसलमानों में फूट डालना चाहते थे, ताकि राष्ट्रीय चेतना को आसानी से कुचला जा सके। अतः इस हेतु वायसराय के निजी मंत्री डनलप स्मिथ ने अलीगढ़ कॉलेज के नये प्रिंसिपल आर्क बोल्ड को लिखा कि, यदि आगामी सुधारों के बार में मुसलमानों का एक प्रतिनिधि मण्डल मुसलमानों के लिए अलग अधिकारों की माँग करे और इस हेतु वायसराय से मिले, तो वायसराय को इससे मिलने से प्रसन्नता होगी। एस. ब्लण्ट ने मुसलमानों से अपना हक माँगने की अपील की और कहा कि, यदि मुसलमान केवल अपनी शक्ति पहचान लें, तो उनकी अवहेलना नहीं होगी तथा सरकार उनसे बुरा व्यवहार नहीं करेगी। इंग्लैण्ड से हमें बराबर भारत में मुस्लिम विद्रोह का भय बना रहता है और यदि मुसलमान एक शब्द भी कह देता है, तो उस पर 20 हिन्दुओं का ज्यादा ध्यान दिया जाता है। अतः यदि मुसलमान चुपचाप बैठे रहे औैर तकदीर कोसते रहे तो स्वाभाविक हि कि ब्रिटिश जनता को उन पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं होगी। मि. आर्क बोल्ड ने 10 अगस्त, 1906 ई. को अलीगढ़ कॉलेज के सचिव नवाब मोहसिन-उल-मुल्क को इस योजना के बारे में एक पत्र लिखा था कि, महामहिम वायसराय के निजी सहायक कर्नल डनलप स्मिथ ने मुझे बताया है कि महामिहम से मुस्लिम शिष्ट मण्डल से भेंट करने की अनुमति माँगने के लिए उनके पास एक औपचारिक पत्र भेज दिया जाये। यह पत्र मुसलमानों के कुछ प्रमुख प्रतिनिधियों के हस्ताक्षरो से युक्त होना चाहिए और शिष्ट मण्डल में सभी प्रान्तों में प्रतिनिधि होने चाहिए। मेरा सुझाव वह है कि हम इस पत्र का प्रारम्भ राजभक्ति और गम्भीर अभिव्यक्ति के साथ करें। बाद में हम स्वशासन की दिशा में सरकारी प्रयत्न की सराहाना करें, किन्तु उसी सम्बन्ध में हम अपना यह भय भी प्रकट कर दें कि निर्वाचन का सिद्धान्त मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों के प्रतिकुल होगा। इसके उपरान्त विनयपूर्वक यह संकेत दिया जाना चाहिए कि मुसलमानों की माँग को पूरा करने के लिए धर्मानुसार प्रतिनिधित्व देने अथवा नाम निर्देशन करने की व्यवस्था की जाये, लेकिन इस समस्त कार्य में मुझे पृष्ठभूमि में ही रखा जाना चाहिए, समय अधिक नहीं है इसलिए हमें शीघ्रता करनी चाहिए।

तद्नुसार 36 प्रमुख भारतीय मुसलमानों का एक प्रतिनिधि मण्डल आगा खां के नेतृत्व में 1 अक्टूबर, 1906 को शिमला में तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो से मिला और उसके समक्ष निम्नलिखित माँगें रखी:-
(1) किसी भी प्रकार के प्रतिनिधित्व में मुसलमानों के महत्त्व को उनकी संख्या से नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिरक्षा और मुगलकाल में उनके स्थान के अनुसार आंका जाये।
(2) मुसलमानों के लिए पृथक् चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(3) विधान मण्डलों में मुसलमानों को उनकी आबादी से अधिक स्थान दिया जाये।
(4) सरकारी नौकरियाँ मुसलमानों को अधिक दी जायें।
(5) मुस्लिम विश्वविद्यालयों की स्थापना के बारें में सरकार की ओर से धन की सहायता मिले।
(6) प्रत्येक हाईकोर्ट तथा चीफ कोर्ट में मुस्लिम सम्प्रदाय के व्यक्तियों को जजों के रूप में लिया जाना चाहिये।
(7) यदि गर्वनर जनरल की कौंसिल में किसी भारतीय को नियुक्त किया जाये, तो मुस्लिम हितों का ध्यान रखा जाये।
(8) उच्च नौकरियों में भरती के लिये प्रतियोगिता परीक्षा नहीं होनी चाहिए।

लार्ड मिण्टो ने मुसलमानों की साम्प्रदायिक माँग को स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि मुसलमानों को इस दिशा में प्रोत्साहित भी किया। उसने कहा कि, किसी भी प्रकार के नेतृत्व में, चाहे वह नगरपालिका या जिला बोर्ड अथवा व्यवस्थापिका सभी किसी का भी हो, जिसमें निर्वाचन के सिद्धान्त को लागू किया जायेगा, उसमें मुस्लिम जाति को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त तुम्हारी स्थिति को तुम्हारी संख्या के अनुरूप न नाप कर तुम्हारी जाति के राजनीतिक महत्त्व एवं उसके द्वारा की गयी साम्राज्य की सेवाओं के आधार पर आंका जायेगा। लार्ड मिण्टो ने यह भी कहा कि, मुझे आपकी भाँति इस बात पर पूर्ण विश्वास है कि भारतवर्ष में चलायी गयी कोई भी निर्वाचन प्रणाली उपद्रवात्मक असफलता को प्राप्त होगी, यदि वह इस महाद्वीप की जनसंख्या के विभिन्न वर्गों के विश्वासों और परम्पराओं की अवहेलना करने जनता को व्यक्तिगत निर्वाचन अधिकार प्रदान करेगी। लार्ड मिण्टो के इस उत्तर का बड़ा महत्त्व है। उसके जीवन चरित्र के लेखक बुकान ने ज्ञापन को इस्लाम के अधिकारों का चार्टर कहा है। लेडी मिण्टो ने अपनी दैनिक डायरी में प्रतिनिधि मण्डल के भेंट के दिन के सम्बन्ध में लिखा था, कि, लार्ड मिण्टो ने आज का दिन भारतीय इतिहास में युगान्तकारी दिवस कहकर पुकारा है। वायसराय ने प्रतिनिधि मण्डल को शिमला में अपने भवन में एक पार्टीं दी। उपरोक्त साम्प्रदायिक प्रतिनिधि मण्डल का आयोजन ब्रिटिश दिमाग की उपज थी। 1923 में कांग्रेस अधिवेशन में मौलाना मोहम्मद अली ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि, 1906 के शिष्टमण्डल का अभिनव अंग्रेज सूत्रधारों के निर्देशानुसार किया गया था।
आर्क बोल्ड के पत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है कि साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व ब्रिटिश दिमाग की उपज थी, मुसलमानों की दिमाग की नहीं। इंग्लैण्ड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री मि. रैम्जे मेक्डोनल्ड ने भी यह स्वीकार किया था कि, पृथक साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग को शुरू करवाने तथा उसे लागु करने का श्रेय ब्रिटिश दफ्तरशाही को है।

मुस्लिम शिष्टमण्डल से भेंट की संध्या से ही एक उच्च अंग्रेज अधिकारी की ओर से श्रीमती मिण्टो को एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि, श्री मान् की सेवा में एक पंक्ति का एक ऐसा कार्य हुआ है, जिसका प्रभाव भारत और भारतीय इतिहास पर वर्षों तक रहेगा। 6 करोड़ 20लाख व्यक्तियों को राजद्रोहियों की पंक्ति में शामिल होने से रोक देने का यह कार्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। लेडी मिण्टो ने अपने डायरी में 1 अक्टूबर, 1906 को ही इस पत्र का उल्लेख किया है। इन्हीं विचारों को व्यक्त करते हुए बुकान ने अपनी पुस्तक लाइफ ऑफ मिण्टों में लिखा है कि, इसने निःसन्देह राजद्रोह की कतारों में मुस्लिम रंगरूटों से होने वाली वृद्धि रोक दी। यह मुसीबत के दिन के लिए, जो आ रहा था, इतना बड़ा लाभ था, जिनका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
इससे स्पष्ट है कि उपरोक्त शिष्टमण्डल के पीछे मुख्य हाथ लार्ड मिण्टो का ही था। यह बात लार्ड मार्ले द्वारा मिण्टो को लिखी गयी इन पंक्तियों से नितान्त स्पष्ट हो जाती है, मुस्लिम विवादों में अब भी मैं आपका अनुसरण नहीं करूँगा। मैं आपको यह याद दिलाना चाहता हूँ कि उसके असाधारण अधिकारों के बारे में आपके आख्यान ने ही यह मुस्लिम हौवा खड़ा कर दिया ह। मुझे पूर्ण-विश्वास है कि मेरा निर्णय सर्वोत्तम था।
भारत सचिव मार्ले संयुक्त प्रतिनिधित्व के पक्ष में थे। अतः उन्होंने मिण्टो के साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धात का विरोध किया। भारत के राष्ट्रवादी भी इस योजना के विरोध में थे। ब्रिटिश समर्थक समाचार-पत्र स्टेट्समेन ने भी कहा कि मिण्टो की यह योजना धृणास्पद है, परन्तु मिण्टो अपने विचारों पर अडिग रहा और उसने लार्ड पार्ले से अपना प्रस्ताव स्वीकार करवा लिया। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार ने ढाका के नवाब सलीम उल्ला खाँ को एक लाख पौण्ड का ऋण कम व्याज पर इसलिए दिया था, ताकि इक प्रलोभन में आकार वह इस कार्य को करे। इस प्रकार लार्ड मिण्टो भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का जनक बन गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है कि, पाकिस्तान के निर्माता कवि इकबाल या मि. जिन्ना नहीं, वरन् मिण्टो थे।
ब्रिटिश सरकार ने 1909 ई. में एक अधिनियम पारित किया, जिसमें साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग को स्वीकार कर लिया गया। इस अधिनियम द्वारा मुसलमानों को उनकी आबादी से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने पाकिस्तान का बीजारोपण कर दिया। सर आगा खाँ ने भी इस शिष्टमण्डल की सफलता का वर्णन करते हुए कहा कि, लार्ड मिण्टो ने हमारी माँगों को स्वीकार करके एक ऐसी व्यवस्था का सूत्रपात किया, जो ब्रिटिश सरकार के भारत सम्बन्धी भावी संवैधानिक पत्रों का आधार बनी रही और जिसके अनिवार्य परिणामस्वरूप भारत का बंटवारा तथा पाकिस्तान का जन्म हुआ। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए श्री रामगोपाल का यह दावा ठीक प्रतीत होता है कि पाकिस्तान का प्रभुता सम्पन्न स्वतंत्र राज्य के रूप में जन्म अलीगढ़ के मुस्लिम विश्विविद्याल में हुआ।
इसमें एक रोचक तथ्य यह है कि 1909 के कानून में जब साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गयी, तो मोहम्मद अली जिन्ना ने इस पृथक् प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को भारत की राजनीति रूपी शरीर में बुरी नियत से प्रविष्ट किया गया विषैला तत्त्व कहकर इसकी कटु निन्दा की थी, क्योंकि उस समय वह कट्टर कांग्रेसी थे। गाँधी ने भी कहा था कि, यदि वह अधिनियम पारित नहीं होता, तो हम (हिन्दू-मुस्लमान) स्वयं इस जातिगत मनो-मालिन्य का समाधान कर लेते।

मुस्लिम लीग की स्थापना (1906 ई.)

शिमला प्रतिनिधित्व मण्डल की सफलता से मुस्लिम नेताओं का उत्साह बढ़ा और उन्होंने कांग्रेस के समान एक राजनीतिक संगठन बनाने का निश्चय किया। 30 दिसम्बर, 1906 ई. को ढाका (अब बंगला देश की राजधानी) में नवाब सलीम उल्ला खां के निमंत्रण पर कुलीन तथा उच्च कोटि के मुसलमानों का एक सम्मेलन हुआ। नवाब बकर-अल-मुल्क इसके अध्यक्ष थे। इस सम्मेलन में मुसलमानों के लिए अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के नाम की यएक राजनीतिक संस्था स्थापित की गयी। अगले वर्ष मुस्लिम लीग का वार्षिक अधिवेशन करांची में बुलाया गया। इसमें लीग का संविधान बनाया गया और इसके निम्नलिखित उद्देश्य निशिच्त किये गये।
(1) भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा की भावना पैदा करना और यदि ब्रिटिश सरकार की नीति के बारे में उनका कोई गलत धारणा हो, तो उसे दूर करना।
(2) भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य अधिकारों की रक्षा करना और नम्रतापूर्वक उनकी आवश्यकताओं और इच्छाओं को सरकार के सम्मुख पेश करना।
(3) उपर्युक्त उद्देश्यों को बिना किसी प्रकार की हानि पहुँचाये तथा सम्भव मुसलमानों और दूसरी जातियों के बीच मित्रता के भाव पैदा करना।
(4) शिक्षित मुसलमानों को सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की सुविधा देना आदि।
सर सुल्तान मुहम्मद शाह को, जो इतिहास में आगा खाँ के नाम से प्रसिद्ध है, लीग का स्थायी प्रधान नियुक्त किया गया, लेकिन उन्होंने लीग के सिद्धान्तों में आकस्मिक परिवर्तन के कारण 1913 में त्याग-पत्र दे दिया।
लीग के सचिव जकाउल्ला खाँ ने लीग के उद्देश्य के बार में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये थे- हम लोग हिन्दुओं और मुसलमानों की सामाजिक एकता के विरोधी नहीं...लेकिन दूसरे किस्म की एकता (राजनीतिक) में समान राजनीतिक उद्देश्य निर्धारित करने का सवाल उठता है। कांग्रेस के साथ ही हमारी किस्म की एकता सम्भव नहीं हो सकती, क्योंकि हमारे और कांग्रेस के उद्देश्य एक नहीं। वे ऐसे काम करते हैं, जिनका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को कमजोर करता है। वे प्रतिनिधित्व सरकार चाहते हैं, मुसलमानों के लिए जिसका मतलब मौत है। वे सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा चाहते हैं और इसका मतलब होगा कि मुसलमान सरकारी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे। इसलिए हम लोगों को (हिन्दुओं के साथ) राजनीतिक एकता के नजदीक जाने की आवश्यकता नहीं। लीग का लक्ष्य मुसलमानों की माँगों को बाअदब आरजू के साथ सरकार के सामने पेश करना है।

नवाब बकर-उल-मुल्क ने ढाका के पश्चात् अलीगढ़ में विद्यार्थियों की एक सभा में भाषण दिया था, जिसमें मुस्लिम लीग की राजनीतिक आकांक्षाओं और अंग्रेजी शासन के प्रति लीग के दृष्टिकोण की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। भाषण की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं, ईश्वर न करे यदि भारत से अंग्रेजी शासन समाप्त हो जाये, तो हिन्दू ऐश करेंगे और हम लोगों को हर समय अपने जान-माल और इज्जता का खतरा रहेगा। मुसलमानों को इस खतरे से बचाने का सिर्फ एक ही रास्ता है-अंग्रेजी शासन के कायम रखने में मदद करना-हमें कांग्रेसियों की आन्दोलनकारी राजनीति को नहीं अपनाना चाहिए। अंग्रेजी शासन के प्रति राजभक्त रहना तुम्हारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। तुम जहाँ कहीं भी हो, चाहे फुटबाल के मैदान में या टेनिस के खेल में अपने आपको अंग्रेज फौज का सिपाही समझो।
लीग के उद्देश्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक साम्प्रदायिक संस्था थी, जो केवल मुसलमानों के हितों का पोषण चाहती थी। इसकी स्थापना कुछ राजभक्तों ने की थी। उसका उद्देश्य विदेशी सरकार के प्रति राजभक्ति में वृद्धि करना और राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रवाह को रोकना था। 1908 ई. में मुस्लिम लीग का अधिवेशन अमृतसर में हुआ। इसमें लीग ने मुसलमानों को आबादी से अधिक स्थान विधानमण्डलों में दिये जाने की माँग की तथा प्रिवी कौंसिल में एक हिन्दू तथा एक मुसलमान शामिल करने की माँग की गयी। मुसलमानों ने यह भी माँग की कि सरकारी नौकरियों में उन्हें पर्याप्त स्थान दिये जाने। 1909 एवं 1910 ई. के अधिवेशनों में मुस्लिम लगी ने इन्ही माँगों को दोहराया। ये सारी माँगे कांग्रेस की माँगों के बिल्कुल विपरीत थीं। इससे राष्ट्रवादी मुसलमानों को बहुत दुःख हुआ। एक राष्ट्रवादी मुसलमान नेता ने कहा था कि, मेरे सहधर्मियों द्वारा भारत में असमाधेय भाव पैदा करने का प्रयत्न प्रशंसनीय नहीं है। यह पंदोरा की पेटी सिद्ध होगा और भारत को भयंकर स्थिति का सामना करना पड़ेगा। नवाब सादिक अली खां ने लीग की साम्प्रदायिक नीति का विरोध करते हुए कहा कि, मुसलमानों को यह शिक्षा देना कि उनके राजनीतिक हित हिन्दुओं से पृथक् हैं, अच्छा नहीं। मुसलमानों के अपने हितों के लिए भी यह सिद्धान्त अपनाना हानिकारक है। इससे स्पष्ट है कि लीग कुलीन मुसलमानों की संस्था थी, इसीलिए राष्ट्रवादी मुसलमानों ने इसकी साम्प्रदायिक प्रवृत्ति की घोर निन्दा की। इस प्रकार, लीग सम्पूर्ण मुस्लिम सम्प्रदाय का समर्थन प्राप्त नहीं था।

सरकार द्वारा साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की स्वीकृति- जिस समय कांग्रेस ने उदारवादी तत्त्व स्वराज्य की माँग कर रहे थे, ठीक उसी समय मुस्लिम नेताओं ने सरकार के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की। परिणामस्वरूप, अंग्रेजों ने भी साम्प्रदायिकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त सहयोग दिया। 1909 ई. के अधिवेशन के द्वारा मुसलमानों को विशेष रियायतें प्रदान की गयीं। उदाहरणस्वरूप, उनके लिए पृथक् चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की गयी। इसके अतिरिक्त विधान मण्डलों में उन्हें उनकी आबादी से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया। इस प्रकार, ब्रिटिश सरकार ने 1909 के अधिनियम के द्वारा भारतीय राजनीति में सदा के लिए विष वृक्ष बो दिया। स्वयं भारत सचिव लार्ड मार्ल ने वायसराय मिण्टो को एक पत्र में लिखा, याद रखिये कि पृथक् निर्वाचन क्षेत्र बनाकर हम ऐसे घातक विष के बीज बो रहे हैं, जिनकी फसल बड़ी कड़वी होगी। पं. नेहरू के शब्दों में, पृथक् निर्वाचन ने भारतीय जीवन के प्रत्येक पहलु को आघात पहुँचाया, हर प्रकार की पृथकता की भावना को जन्म दिया व अन्त में देश के बंटवारे की ही बात सामने आयी। अयोध्या सिंह लिखते हैं, मार्ले-मिण्टो सुधार के जरिए मुसलमानों के पृथक् चुनवा मण्डल और अनुपात से ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया गया। इस प्रकार की सुविधाओं के जरिये मुसलमानों को अपनी ओर खींचने और बहुमत का असंतोष सुविधा भोगी अल्पमत की तरफ मोड़ने का षड्यन्त्र ब्रिटिश साम्राजियों ने किया था।
1909 ई. के सुधारों में भारत विभाजन के बीज बो दिये। मुसलमानों को पृथक निर्वाचन प्रणाली देने जाने से लगभग 6 करोड़ भारतीय शेष भारतीय जनता से पृथक् हो गये। आगा खां के शब्दो में, लार्ड-मिण्टो ने हमारी माँगों को स्वीकार करके एक ऐसी व्यवस्था का सूत्रपात किया, जो ब्रिटिश सरकार की भारत सम्बन्धी संवैधानिक माँगों को आधार बनी रही और जिनके अनिवार्य परिणामों के रूप में भारत विभाजन और पाकिस्तान का जन्म हुआ। गाँधी ने भी कहा था कि, यदि यह अधिनियम पारित नहीं होत तो हम (हिन्दू-मुस्लिम) स्वयं इस जागिगत मनो-मालिन्य का समाधान कर लेते।

 
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